कहो कौन्तेय-८४

विपिन किशोर सिन्हा

(कर्ण-वध के कारण अर्जुन का विषाद)

पिछले अठारह दिनों का कोलाहल अकस्मात ही निःस्तब्ध सायंकाल में परिवर्तित हो गया है। रात्रि के साथ विषाद की काली छाया समस्त पृथ्वी को अपने आप में समा लेने को आतुर है। मनुष्य रूप में धरती पर जन्म लेनेवाले सद्असद् जीव, आत्मा रूप में अचर-अगम ब्रह्मांड में विलीन हो गए हैं। कितनी पीड़ाएं, कितनी विवशताएं, कितने पाप-पुण्य, उचित-अनुचित, धर्म-अधर्म, नाते-रिश्ते – सबको लील गया यह कुरुक्षेत्र। जीते हैं हम – अग्रज युधिष्ठिर, भैया भीम, नकुल, सहदेव और मैं, पृथापुत्र पार्थ। युद्ध जीतकर भी आत्मा अतृप्त है। मन में एक बड़ा-सा कंटक चुभ गया है। अब तो यह जीवन भर पीड़ा देता रहेगा। मर्मस्थल में चुभा यह कंटक जीवनपर्यन्त कसकता रहेगा। अवचेतन में सुनता हूं कर्ण का अट्टहास —

“तो जीत गए तुम गाण्डीवधारी, पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर, पृथापुत्र पार्थ! विपुल विद्याओं, भांति-भांति के दिव्यास्त्रों के स्वामी, पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन – क्या पाया तुमने? लक्ष-लक्ष विधवाओं का क्रन्दन, क्षत-विक्षत विजयश्री, रक्तरंजित हस्तिनापुर क साम्राज्य और कर्ण-वध की पीड़ा, जो शेष जीवन के अन्त तक तुम्हारा पीछा करती रहेगी। मैं हूं तुम्हारा चिर शत्रु कर्ण – तुम्हारी अधिकार सीमा से परे, तुम्हारे आंजलिक बाण की परिधि से बहुत-बहुत दूर। दुख, शोक और पश्चाताप की सरिता में गोते लगाते हुए, उस पार तुम हो – इस पार मैं हूं, सुख-दुख, राग-द्वेष, मान-अपमान, विरक्ति-मोह, अपना-पराया, सारे बंधनों से मुक्त। मैं हंस रहा हूं, तुम रो रहे हो। तुम्हीं बताओ – कौन जीता – मैं, या तुम?

“कृष्ण! कृष्ण!! संभालो मेरे इस मन को। मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि तुम ही तो हो। तुम्हीं तो सचराचर ब्रह्माण्ड के कर्त्ता हो, नियामक हो। मैं तो वलय मात्र हूं – तुम्हारे प्रकाश वृत्त का, तुम्हारी प्रतिच्छवि मात्र हूं। देर से सुन रहा हूं मातु कुन्ती का अरण्य रोदन – हाहाकार करते हुए हृदय की आर्त्त पुकार – प्रथम पुत्र कर्ण के लिए। कर्ण के लिए उनकी अपरिमित करुणा आलोचना का विषय भी बनेगी, लेकिन माता तो माता ही है – समस्त पृथ्वी की धूरी – हम पुत्रों को गर्भ में नौ-नौ मास धारण करके धरा पर लानेवाली मेरी माता कुन्ती – वृद्धावस्था ने उसके मुखमण्डल को और प्रदीप्त कर दिया है – जैसे चन्द्रमा की शीतल आभा – ज्योतिस्नात, श्वेतवस्त्रावृता मां कुन्ती। अन्तर्मन का कोलाहल शान्त नहीं हो पा रहा। मां की गोद में छुप जाना चाहता हूं – जागतिक दुख, शोक, पीड़ा, चीत्कार, रुदन से परे। कुछ घड़ी क्लान्त तन-मन को वात्सल्य की छाया में विस्मृत कर देना चाहता हूं। लेकिन यह संभव है क्या? मैं तो उसका अपराधी हूं। मैंने उसके प्रथम पुत्र, अपने ज्येष्ठ सहोदर भ्राता कर्ण का वध इन्हीं हाथों से किया है। रथ से चक्र निकालते हुए कुछ घड़ी के लिए जीवन दान मांगा था उसने। कितना कृपण निकला मैं! उस महान दानवीर को कुछ क्षण का दान भी नहीं दे सका। क्या क्षमा मांगने पर भी वह मुझे क्षमा कर पाएगी? मैं विक्षिप्तों की भांति बैठे-बैठे प्रलाप कर रहा था कि दाहिने कन्धे पर श्रीकृष्ण के कर-कमलों के शीतल स्पर्श ने मुझे चैतन्य किया।

मैं खड़ा हुआ, मुड़ा और मधुसूदन के वक्षस्थल पर अपना सिर टिका दिया। मेरे नेत्रों के निरन्तर अश्रु प्रवाह ने उनके वक्षस्थल को भिंगो दिया। मेरा मुख अपने सामने कर पीत उत्तरीय से मेरे आंसू पोंछते हुए उन्होंने कहा –

“हे पार्थ! धैर्य रखो। धैर्य, धर्म, मित्र और पत्नी की परीक्षा संकट के समय ही होती है। यह तुम्हारी परीक्षा की घड़ी है। माता कुन्ती के रहस्योद्घाटन ने तुम सभी भ्राताओं को झकझोर दिया है। अपने ही हाथों, अपने सबसे ज्येष्ठ भ्राता के वध के अपराध बोध के भाव से तुम दबे जा रहे हो। इस समय तुम्हारी आंखों से बहते हुए अश्रु, न तो अभिमन्यु के लिए हैं और न ही द्रौपदी के पांच पुत्रों के लिए। अपने आंसू के प्रत्येक बूंद में तुम कर्ण की छवि देख रहे हो। तुम्हारा हृदय करुणा का सागर है। तुम इस विश्व के ऐसे अद्वितीय योद्धा हो जो शत्रु के लिए भी करुणा के भाव रखते हो। मैं तुम्हारे इस स्वभाव से भलीभांति परिचित हूं। तुमने स्वजनों के प्रेम में अधीर होकर युद्ध के प्रथम दिवस ही जब गाण्डीव को फेंक दिया था, मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ था। अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो मैं चकित होता।

धनंजय! आज मैं गर्व और प्रसन्नता से कह सकता हूं कि मेरे सर्वप्रिय मित्र ने जन्म से लेकर आजतक कभी अधर्म और अन्याय का पल भर के किए भी आचरण नहीं किया है। उसके हृदय में करुणा का महासागर सदैव हिलोरें लेता रहता है। तुम्हारी यही विशेषताएं तुम्हें अन्य योद्धाओं से पृथक करती हैं और तुम्हें सर्वकालिक सबसे महान योद्धा, विचारक और एक पूर्ण मानव के रूप में स्थापित करती हैं । तुम्हारे अतिरिक्त, युद्ध आरंभ होने की वेला में किसी भी योद्धा को स्वजनों के लिए मोह क्यों नहीं उत्पन्न हुआ? पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण और अग्रज कर्ण, जिनके लिए तुम्हारी आंखों में आंसू सूखते नहीं, सभी युद्ध के लिए शंखनाद कर रहे थे। दूसरों के दुखों से सदा दुखी हो जाने वाले तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर भी युद्ध के लिए उतावले हो रहे थे। सबकी अपनी-अपनी विवशताएं थीं, अपने-अपने स्वार्थ थे। एकमात्र तुम थे अर्जुन, सिर्फ तुम, जिसका कोई निजी स्वार्थ न युद्ध रोकने में था और न युद्ध करने में। मानवता के प्रति तुम्हारे समर्पण ने मुझे गीता के अठारह अध्याय के उपदेश सुनाने को विवश किया। मैं तुम्हारा मोह दूर करने में सफल रहा। विगत अठारह दिनों तक तुमने हिमालय की तरह अविचल रहकर कर्त्तव्य पालन किया है। तुमने किसी को नहीं मारा है। तुम तो निमित्त मात्र रहे हो। युद्धाग्नि तो मैंने प्रज्ज्वलित की थी। स्वयं मैंने तुम्हारे अश्वों का संचालन करने के लिए नन्दिघोष रथ की वल्गाएं अपने हाथ में ली थीं। तुम्हारी तो कोई प्रतिज्ञा अबतक भंग नहीं हुई है, लेकिन मेरी? युद्ध के तीसरे दिन ही हाथ में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा भंग हो गई, फिर भी उसकी मैंने कोई चिन्ता नहीं की, कभी पश्चाताप नहीं किया। आज मेरी प्रिय यादव सेना का एक भी सैनिक जीवित नहीं है। मेरा सर्वप्रिय भगिनी-पुत्र अभिमन्यु मेरे जीवित रहते वीरगति को प्राप्त हो गया। अपनी बहन सुभद्रा की सूनी गोद देख क्या मेरा मन हाहाकार नहीं कर उठता है?

कभी सोचा है तुमने, क्यों किया मैंने यह सब?

जन्म से लेकर आजतक तुमलोगों ने क्या पाया है? कष्ट और सिर्फ कष्ट, यही न? तुमलोगों का अपराध मात्र यही था न कि तुमलोग न्याय और धर्म के पुजारी थे। द्रौपदी के चीरहरण के समय हस्तिनापुर में विद्रोह हो जाना चाहिए था, लेकिन आम नागरिकों ने इसे राजमहल का एक सामान्य खेल समझा। मेरे बार-बार प्रोत्साहित करने पर भी जिस पितामह से तुम सदा मृदुयुद्ध ही करते रहे, वे सभा में उपस्थित थे और थे दुशासन के कुकृत्यों के प्रत्यक्षदर्शी भी। जिनसे तुम सदैव प्रत्यक्ष युद्ध से बचने के प्रयास करते रहे, वे तुम्हारे श्रद्धेय गुरुवर द्रोण, द्यूतसभा में बैठे-बैठे अपनी शुभ्र-धवल दाढ़ी सहला रहे थे।

इस पृथ्वी के किस राजा को यह ज्ञात नहीं था कि तुमलोगों के साथ घोर अन्याय हुआ है। इस महासमर में, जब धर्म और अधर्म में से, किसी एक का पक्ष लेने के लिए सबको निमंत्रित किया गया, तो क्या हुआ? स्वार्थ के वशीभूत अधिकांश क्षत्रपों ने, जिसमें तुम्हारे मातुल शल्य भी सम्मिलित थे, अधर्म क साथ दिया, दुर्योधन के साथ खड़े हुए। अपने समस्त प्रयासों, सत्य, न्याय और धर्म की दुहाई के उपरान्त भी हम मात्र सात अक्षौहिणी सेना अपने पक्ष में एकत्र कर पाए। अधर्म के साथ बहुमत था – ग्यारह अक्षौहिणी सेना का।

कौन नहीं जानता कि युद्ध कभी अन्तिम सत्य नहीं होता। युद्ध से सारी समस्याएं कभी सुलझती नहीं, सारे प्रश्न कभी हल होते नहीं। लेकिन जब मानव जाति धर्म और न्याय से श्रद्धा खोने के कगार पर पहुंच जाय, समाज के पतनोन्मुख होने में कोई शंका न रह जाय, राष्ट्र की सांस्कृतिक नींव बुरी तरह हिल जाय और आनेवाली पीढ़ी के पास विवेकयुक्त, सर्वकल्याणकारी रम्य सपनों की कोई संभावना शेष न रह जाय, तो महायुद्ध अपरिहार्य हो जाता है।

क्या द्रौपदी के निष्कलंक चरित्र को अपमान का विषय बनाने वाले दुर्योधन-दुशासन को दण्ड देना आवश्यक नहीं था? क्या शकुनि मामा की कपटपूर्ण कूटनीति का सदा सर्वदा के लिए उन्मूलन आवश्यक नहीं था? क्या भीष्म-द्रोण की मुग्ध असमर्थता का मुंह खोलना आवश्यक नहीं था? क्या धृतराष्ट्र के दृष्टिहीन नेत्रों में सत्य का चमचमाता अंजन लगाना आवश्यक नहीं था? क्या कर्ण के पथभ्रष्ट, मार्गच्युत और अखंड संभ्रमित जीवन को स्वर्ग का सुयोग्य मार्ग दिखाना आवश्यक नहीं था?

जिस कर्ण के वध का प्रायश्चित तुम कर रहे हो, उसे सन्मार्ग पर लाने का मैंने स्वयं प्रयास किया था –

युद्ध के पूर्व जब मैं शान्ति का प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर गया था, तो कर्ण से भेंट हुई थी। शान्तिवार्त्ता विफल होने के पश्चात मैंने राजसभा से प्रस्थान किया। कर्ण मुझे विदा करने महाद्वार तक आया। मैंने पीछे मुड़ सबसे विदा ली, प्रणाम किया लेकिन कर्ण का हाथ पकड़ रथ में अपने साथ बिठा लिया। वह यंत्रवत मेरे साथ चल पड़ा। नगर की सीमा से बाहर आते ही एक वटवृक्ष दिखाई पड़ा। रथ को मार्ग पर ज्यों-का-त्यों छोड़, मैं कर्ण को साथ ले, वृक्ष की घनी छाया में बैठ गया।

प्रकृति हमारे प्रत्येक सुख-दुख की साक्षी होती है। वृक्ष की छाया में कर्ण के साथ बैठना, जैसे आत्मा के अंश को अपने में लीन करने का विनम्र प्रयास था। जानते हो कौन्तेय, उस क्षण कर्ण के साथ बैठा मैं, उसमें अपनी ही प्रतिच्छवि देख रहा था। ऐसा नहीं कि मैं कूटनीतिज्ञ नहीं, लेकिन न जाने क्यों, उस क्षण मन भर आया था – उस ज्येष्ठ कौन्तेय के लिए। तुम मेरी छवि हो अर्जुन; तुममें, तुम्हारे हर कर्म में, मैं ही प्रकाशित होता हूं। तुम्हारा कर्म भी मैं हूं. कर्त्ता भी मैं। आत्मन! तुम्हारे ही नेत्रों की आभा झिलमिला रही थी उस क्षण दानवीर कर्ण के आयत नेत्रों में। मेरे हस्त-स्पर्श से जैसे उसका व्यक्तित्व संकुचित-सा हो उठा था। अनायास ही लगा मुझे कि मेरा स्नेह-स्पर्श उसके मन को जल से लदे मेघ-सा बना गया है, जो उंगली के हल्के स्पर्श से बरस जाएगा। हृदय में एक हूक-सी उठी थी पार्थ! तुम जानते हो, मैं ही जगत के चराचर प्राणियों का नियन्ता हूं, मनुष्यों की भाग्यविधि बनती है, मेरी ही धुन पर, तीनों लोक समाहित हैं, मुझीं में। मैं ही ब्रह्म हूं, मेरे ही अंश रूप में यह पृथ्वी अनगिनत प्राणियों से आपूरित है; तो मैं न जान पाऊंगा अपने ही अंशी की परिणति? मानवावतार लिया मैंने, तो साधारण मनुष्य के मन का द्वंद्व ही विचलित कर उठा मुझे। एक तीव्र संवेग जगा जिसने कौरवों के दुष्कर्म के परिणामस्वरूप क्रोध के स्थाई भाव पर आधिपत्य जमाते हुए मुझसे कहा – कर्ण की नियति बदल दूं। कह दूं कि हे आत्मन! अपने अंश को पहचानो, चले आओ मेरे पास, हो जाओ एकात्म। मैं ही सच्चिदानन्द हूं, ब्रह्म हूं। मैं ही सत्, नित्य और चैतन्य हूं, मैं ही आनन्द स्वरूप हूं। जो सत्य है, उसका बोध हो जाए तो जीव सच्चिदानन्द हो जाय, ब्रह्मानन्द का अनुभव करे; तुम भी मुझमें एकाकार हो जाओ कर्ण। इच्छा हुई कि उससे कहूं कि सत् ही यथार्थ है, और चित् है उसका बोध। सत्य की चेतना ही आनन्द देती है, अतः उस आनन्द को पहचानो।

क्रमशः

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