वैज्ञानिकों में‌ भी फ़न्डामैन्टलिज़म

विश्व मोहन तिवारी

मैं डा. सुबोध मोहन्ति का साक्षात्कार ले रहा था। मुझे उनके उत्तरों में सुविचारित परिपक्वता प्रसन्न कर रही थी। अत: मैं अनेक प्रश्न योजनानुसार नहीं, वरन प्रेरणा के अनुसार कर रहा था। मैंने उनसे पूछा,” क्या विज्ञान संचारक को घटनाओं में विज्ञान संगति सिद्ध करते समय धर्म का उपहास करना चाहिये?” उऩ्होंने तत्काल ही उत्तर दिया कि ’वर्सैस’ (बरअक्स या विरोध) नहीं होना चाहिये। मैंने कहा यह हुई सच्ची वैज्ञानिक समझ, दिमाग का खुलापन और उदारता; वरना अनेक वैज्ञानिकों में‌ भी एक तरह का फ़न्डामैन्टलिज़म दिखता है।

मुझे थोड़ा सा ऐसा फ़न्डामैन्टलिज़म लारैन्स एम क्रास में‌ नज़र आया (सितंबर ०९ का साइंटिफ़िक अमेरिकन) जो एरिज़ोना स्टेट यूनिवर्सिटी की एक अत्यंत मह्त्वपूर्ण प्रायोजना ’ओरिजिन्स इनिशिएटिव’ के निदेशक हैं। वे न्यूयार्क सिटी में हो रहे विश्व विज्ञान उत्सव में हो रहे एक विमर्श ’विज्ञान, आस्था और धर्म’ में‌ भाग ले रहे थे। वे डंके की चोट पर घोषणा करते हैं कि उत्सव में ऐसा विषय रखना भी विज्ञान का अपमान करना है। यह इन दोनों विषयों को बराबरी का स्थान देता है जो कि गलत है। अंत में उस विमर्श के संचालक ने निर्णय दिया कि मुख्यत: ईश्वर हमारी प्रकृति की समझ के लिये तथा उस समझ के अनुसार हमारे कार्यों के लिये अप्रासंगिक है।विज्ञान नहीं मान सकता कि ईश्वर विश्व के कार्यकलापों में कुछ भी‌ दखल दे सकता है। क्रास कहते हैं कि जब तक हम धर्म की चमत्कार वाली मनोवृत्ति से मुक्‍त नहीं होते, विज्ञान तथा कला के बीच की दरार पर सेतु नहीं बना सकते। सी पी स्नो की कला तथा विज्ञान के बीच दरार वाली अवधारणा को क्रास ने धर्म और विज्ञान के बीच दरार वाली अवधारणा में बदल दिया है, जब कि स्नो धर्म के विरोध में न बोलते हुए अज्ञान के विरोध में बोलते हैं! अंतत: फ़ंडामैंटलिज़म का एक मह्त्वपूर्ण लक्षण यह तो है कि ’केवल मेरा ईश्वर सत्य है, दूसरे का नहीं।’ अधिकांश वैज्ञानिक कह रहे हैं कि सत्य वही है जो विज्ञान देखता है, अन्य का देखा हुआ सत्य नहीं हो सकता।

क्या हिन्दी विज्ञान कथा में‌ इस विषय का संरचनात्मक संश्लेषण, विश्लेषण नहीं‌ हो सकता?

Previous articleपॉलीथिन व प्लास्टिक कचरे पर नियंत्रण : एक बड़ी चुनौती
Next articleकिसान बुद्ध का आह्नान!
विश्‍वमोहन तिवारी
१९३५ जबलपुर, मध्यप्रदेश में जन्म। १९५६ में टेलीकम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि के बाद भारतीय वायुसेना में प्रवेश और १९६८ में कैनफील्ड इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाजी यू.के. से एवियेशन इलेक्ट्रॉनिक्स में स्नातकोत्तर अध्ययन। संप्रतिः १९९१ में एअर वाइस मार्शल के पद से सेवा निवृत्त के बाद लिखने का शौक। युद्ध तथा युद्ध विज्ञान, वैदिक गणित, किरणों, पंछी, उपग्रह, स्वीडी साहित्य, यात्रा वृत्त आदि विविध विषयों पर ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित जिसमें एक कविता संग्रह भी। १६ देशों का भ्रमण। मानव संसाधन मंत्रालय में १९९६ से १९९८ तक सीनियर फैलो। रूसी और फ्रांसीसी भाषाओं की जानकारी। दर्शन और स्क्वाश में गहरी रुचि।

1 COMMENT

  1. विश्वमोहन तिवारीजी को उनके उत्कृष्ट लेख के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ. वैसे देखा जाय तो अब विज्ञानं शब्द अपनी अर्थवत्ता खो चुका है या यूँ कहे कि कुछ विशिष्ट ज्ञान नाम कि संज्ञा नहीं रह गयी है .ज्ञान शब्द अपने में पर्याप्त है इसलिए विज्ञानं शब्द का कोई अलग अर्थ नहीं है. पहले यह बात ठीक थी कि जब अंधविश्वासों के विपरीत जो ज्ञान सामने आया वह विज्ञानं अर्थात विशिष्ट ज्ञान के रूप में जाना जाने लगा.जैसे -जैसे समय बीतता गया ज्ञान का विस्फोट पिछली शताब्दियों में काफी हुआ. और इसने धर्म जैसे विषय में भी दखल देना शुरू किया औएआरएम ने सदैव र ईश्वर के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लग गया..पर अनिश्चितता के सिद्धांत ने विज्ञानं को चक्कर में दल दिया. प्रमात्रा भौतिकी ने सारी सोच पर सवाल खड़े कर दिये. महँ वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन ने कहा था कि ईश्वर पासे नहीं फेंकता. पर उन्होंने भी माना कि ऐसा संभव है. विज्ञानं भी अन्धविश्वास को तरजीह देता रहा था.यद्यपि उसका अंधविश्वास विपरीत दिशा में था. आज वह नित नए रहस्यों में उतरता चला जा रहा है और उतने ही गहरे रहस्यों में घिरता भी जा रहा है. डार्क मेटर,और डार्क एनर्जी इसी गहराई कि ओर संकेत करते हैं. धर्म ने सदैव यह कहा है कि वह परम सत्ता जिसे इश्वर कहते है कभी भी पूर्ण रूप से जाना नहीं जा सकता.. वह पूर्ण है वह अव्याख्य है ऐसा उपनिषदों ने भी कहा है. हाँ एक बात जरूर है कि विज्ञानं अपने पुराने सत्यों के विपरीत नवीन सत्य भी ग्रहण करता रहा है.
    अंत में यह कहना चाहता हूँ कि हमें दुराग्रही नहीं नहीं होना चाहिए.
    बिपिन कुमार सिन्हा

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here