सेक्यूलर मतलब, हिंदू विरोधी?

अपने एक इंटरव्यू के दौरान तस्लीमा नसरीन ने कहा कि ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष लोग मुस्लिम समर्थक और हिंदू विरोधी हैं। वे कट्टरपंथियों के कामों की तो आलोचना करते हैं, लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथियों के घृणित कामों का बचाव करते हैं। सीधे शब्दों में कहा जाए तो तस्लीमा कहना चाह रही है कि भारत में सेक्यूलर होने का मतलब का हिंदू विरोधी होना हो गया है? इस विषय पर लिखने के लिए भी मुझे बहुत सोचना पड़ा। जब टीवी पर बहस करने के लिए विषय का चुनाव करते हैं, तब भी बहुत सतर्कता बरतनी पड़ती है। सतर्कता के दायरे पर विचार करते हैं, तो ये मानते हैं कि अल्पसंख्यकों के मसले पर संभल कर बोला जाए।

निजी तौर पर मैंने कभी ये भेद अपने जीवन में नहीं पाया। मेरे मित्र और तमाम साथी मुसलमान रहे हैं। किसी तरह का भेद मैं उनके और मेरे जीवन में नहीं पाता। मान्यताएं, खान-पान, इबादत आदि के तौर तरीकों में फर्क तो एक धर्म में ही आपको मिल जाएंगे, इसमें अलग-अलग धर्मों की बात ही क्या करना? अब प्रश्न ये उठता है कि अल्पसंख्यक विषय पर बात करते हुए इसे संवेदनशील क्यूं बनाया जाता है?

दरअसल संवेदनशीलता का ये हौव्वा ही असली भेद को पैदा करता है। इसके बाद जिंदगी तो सामान्य तौर पर चलती रहती है, लेकिन भावनाओं को सुलगाने का धंधा शुरू हो जाता है। इसमें एक बहुत सामान्य मनोविज्ञान काम करता है। मैं तुम्हारा हितैषी हूं और तुम बहुत खतरे में हो। चाहे बहुसंख्यक हों या अल्पसंख्यक दोनों को ही कई संगठन, पार्टियां और नेता अपने क्लाइंट्स के तौर पर देखते हैं। जरा गौर कीजिएगा कि हिंदुओं को हिंदू और मुसलमानों को मुसलमान होने की याद कब ज्यादा कराई जाती है? सियासी दंगल में ये एक ऐसा मुद्दा होता है, जिसे सुलगाए रखने का हर मुमकिन प्रयास किया जाता है। अल्पसंख्यकों को पहले डराने और फिर उनका हितैषी बनने की राजनीति ऐसा ही एक प्रयास है। दादरी का मुद्दा एक ऐसा ही मुद्दा है, जिसका भरपूर इस्तेमाल बिहार, दिल्ली से लेकर कश्मीर तक की राजनीति में किया जा रहा। कौन हैं वो लोग जो सड़कों पर लोगों को ढूंढ ढूंढ कर मार रहे हैं? कौन गाय खाता है कौन गाय ले जाता है कि जानकारियां अचानक से कैसे सामने आने लगी हैं? क्या गाय की चिंता नया विषय है? नहीं ये नया विषय नहीं है, लेकिन ये गर्माया हुआ विषय जरूर है। अभी इसके भरपूर दोहन की आवश्यकता महसूस की जा रही है।

अब इन हालात में जरा अल्पसंख्यकों की स्थिति पर विचार करिए। आप पाएंगे कि ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जैसे उनसे अधिक असुरक्षित इस देश में कोई और नहीं है। अचानक से ये असुरक्षा का माहौल क्यूं और कौन बना रहा है? कथित धर्मनिरपेक्ष फौरन बहुसंख्यक कट्टरपंथियों को कटघरे में खड़ा कर देंगे। लेकिन यदि आप इस माहौल को गहराई से समझे तो इस माहौल को बनाने में अल्पसंख्यकों के कथित रहनुमां ही सामने आएंगे। इन लोगों के साथ-साथ कथित धर्मनिरपेक्ष विद्वानों की एक टोली भी सामने आती है, जो ऐसे मौकों पर अपनी दुकान चमकाती है। ये सामाजिक ताने बाने को मजबूत करने में क्या योगदान देते हैं, ये कहना तो मुश्किल है, लेकिन ऐसे मुद्दों पर अल्पसंख्यकों के हितैषी बनकर ये अपनी एक अलग पहचान जरूर बना लेते है। एक बार पहचान बन गई तो आपको इनके पक्ष में हर बात कहनी है।

गाय का मांस खाना यदि कई राज्यों में अपराध है, तो वहां कि पुलिस इस पर कोई कार्यवाई क्यूं नहीं करती? और यदि पुलिस कार्यवाई नहीं करेगी तो क्या जनता सड़कों पर खुद ही कानून हाथ में ले लेगी? दोनों ही स्थितियां अप्रिय है और हमारे अमन को खराब करने वाली हैं। कानून हाथ में न लें और राजनेताओं की भड़काऊ बातों में आकर अपराधी न बनें ये तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन साथ ही ऐसे किसी भी हालात को बनाने वाली बातों को भी जड़ से खत्म करने की गारंटी तय करें। यदि खानपान पर कोई बंधन नहीं है तो हमारी पुलिस सुरक्षा को तय करे और यदि किसी चीज पर पाबंदी है तो उस पाबंदी को सुनिश्चित करे।

तस्लीमा नसरीन को मुस्लिम विरोधी कहा जाता है और उनकी बयानबाजी उनकी अपनी पहचान है, लेकिन इस मुद्दे पर विचार करें तो ये भी सच है कि हमारे देश में पढ़े लिखे, बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष वही माने जाने लगे हैं, जो बहुसंख्यक के विरोध में बात करते हैं। शायद ये भी एक वजह है बहुसंख्यक कट्टरपंथ को बढ़ावा देने के लिए। कट्टरपंथ दोनों ही खतरनाक हैं चाहे वो बहुसंख्यकों का हो या अल्पसंख्यकों का, दोनों के खिलाफ खुलकर बोलने की आवश्यकता है। बहुसंख्यक कट्टर पंथ पर बोलने में तो हमारे देश बहुत मुखरता देखने को मिलती है लेकिन अल्पसंख्यक कट्टरपंथ संवेदनशील विषय बन जाता है, ऐसा क्यूं?

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