देख तुम्हारी उछल-कूद …

-वीरेन्द्र सिंह पहिार- aap

भ्रष्ट्राचार-विरोधी आंदोलन की उपज समझे जाने वाले अरविन्द केजरीवाल के मामले में आम लोगों की धारणा आम राजनीतिज्ञों से कुछ अलग किस्म की थी। लोगों का मानना था कि केजरीवाल कोई पेशेवर राजनीतिज्ञ नहीं, बल्कि वह धनबल, बाहुबल, वंशवाद, जातिवाद एवं सम्प्रदायवाद से पूरी तरह ग्रस्त भारतीय राजनीति को नई दिशा देंगे। दिल्ली विधानसभा चुनाव में 70 में 28 सीटें यकायक पाने के बाद तो यहां तक माने जाना लगा कि केजरीवल गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के दिल्ली में सत्तानशीनी के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा बन सकते हैं। यहां तक कि संघ के सर संघचालक मोहन भागवत को भी संघ को यह चेतवानी देनी पड़ी थी कि वह आप पार्टी को हल्के में न ले। संभवतः इसी संभावना को भांपकर अरविंद केजरीवाल ने बड़ा दॉव खेलना उचित समझा। उन्हे लगा कि कांग्रेस की वैशाखियों पर टिककर दिल्ली का मुख्यमंत्री रहने के बजाय प्रधानमंत्री की दौड़ मे शरीक होना ज्यादा श्रेयस्कर है। केजरीवाल और उनकी आप पार्टी को यह तो पता था कि उनकी पार्टी के पक्ष में चाहे जितना बड़ा माहौल हो पर फिलहाल 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हे बहुमत मिलने वाला है नहीं। फिर भी उन्हे यह उम्मीद रही होंगी कि जिस ढ़ंग से आप पार्टी के पक्ष में माहौल बन रहा है, तो हो सकता है कि वह लोकसभा में 100 के आस-पास का आंकड़ा छूंँ लें। 100 तक की संख्या एक नई-नवेली पार्टी के लिए एक निश्चित रूप से एक बड़ी संख्या थी और ऐसी स्थिति में भाजपा और नरेन्द्र मोदी को रोकने के लिए कांग्रेस उन्हंे प्रधानमंत्री बनाने के लिए समर्थन भी दे सकती है, ऐसा केजरीवाल का सोचना बहुत अनुचित नहीं था। थोड़ें समय के लिए यदि केजरीवाल प्रधानमंत्रंी न भी बन पाते तो ‘‘आप पार्टी’’ के समर्थन को देखते हुए भविष्य हमारा है, यह मानने में कोई किन्तु-परन्तु नहीं था। इसी संभावना के मद्देनजर केजरीवाल ने जन लोकपाल के बहाने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे-दिया। कुछ इस अंदाज में त्याग-मूर्ति का बाना ओढ़ते हुए कि सत्ता का उनके लिए कोई मायने नहीं है। लेकिन इसी दौरान ‘आप पार्टी’ का जनसमर्थन कई घटनाओं के चलते घटते-क्रम की ओर जाने लगा। खास कर दिल्ली की आप सरकार जिस तरह से जनवरी के चौथे सप्ताह में बिना किसी ठोस कारण के धरने पर बैठी, उससे देश के जिम्मेदार और संजीदा नागरिकों मेें अच्छा संदेश नही गया। इसी तरह से केजरीवाल के विधि मंत्री सोमनाथ भारती के जैसे विवादास्पद कृत्य सामने आए और केजरीवाल ने उनका समर्थन किया। उससे लोगों को यह एहसास होने लगा कि यह पार्टी भी दूसरो की तरह ही-है। इसी तरह मनीष सिसोदिया के कबीर फाउंडेशन जिसमें केजरीवाल भी जुडे है, उसके फर्जीवाडें को लेकर भी जैसे तथ्य सामने आए, उसमें लोगों ने यह मानना शुरू कर दिया के ‘हाथी के दांत खाने के और है, दिखाने के और है।’ इन्ही सब घटनाक्रमो के मध्य केजरीवाल ने मुख्यमंत्री बनते ही जिस ढ़ंग से अपने लिए बड़ा बंगला मांगा, सुरक्षा न लेने का वायदा तोड़ते हुए बड़ा सुरक्षा-घेरा लिया, उससे इस देश का ओैसत आदमी यह मानने को बाध्य हो गया कि यह भी दूसरों की तरह ही सत्ता-सुख भोंगने वाले लोग है, पर केजरीवाल को शायद ऐसा लगा कि यदि वह त्यागर्मूिर्त बनाकर दिल्ली की कुर्सी, छोड़ देंगे तो उनके पक्ष में समर्थन की जो लहर बह रही है, वह अंधड़ में बदल जाएगी और लोग उन्हें हाथो-हाथ लेंगे।
केजरीवाल को यह पता था कि कांग्रेस तो पराभव की ओर ही है, इसलिए उन्हांेने नरेन्द्र मोदी को निशाने पर लिया। इसी तारतम्य में केजरीवाल ने 1 फरवरी को ऐसे नेताओं को जिन्हें चुनाव में हटाया जाना चाहिए, उनकी एक लम्बी-चौड़ी लिस्ट जारी कर दी, जिसमें नरेन्द्र मोदी का भी नाम था। अब चूंकि नरेन्द्र मोदी के विरूद्ध भ्रष्टाचार का कोई प्रकरण तो ढूढऩें से भी मिलने से रहा, इसलिए नरेन्द्र मोदी का नाम नफरत फैलाने वालों की सूची में जोड़ दिया गया। पर केजरीवाल यही नहीं रूके, वह गुजरात गए और यह साबित करने की भरपूर कोशिश की, कि गुजरात में विकास की जो बातें की जा रही हैं, वह मीडि़या का प्रचार मात्र है। इतना ही नहीं, केजरीवाल को जब एक जगह गुजरात पुलिस ने पूछताछ के लिए रोक लिया, तो आप पार्टी ने जैसे सिर पर आसमान उठा लिया और दिल्ली समेत भाजपा के कई कार्यालयों में हिंसक प्रदर्शन किए। मामला यही नहीं रूका। केजरीवाल नरेन्द्र मोदी से सवाल-जवाब करने बगैर समय लिए उद्धत ढ़ंग से गांधीनगर मोदी के आवास की ओर बढ़ने लगे। वस्तुतः, केजरीवाल का पूरा प्रयास यह था कि नरेन्द्र मोदी को जो इस देश के लोग महानायक मान बैठे हैं, वह गलत है और मोदी महानायक न होकर खलनायक है। इसके लिए पहले तो उन्होंने गुजरात में जाकर कहा कि गुजरात में मोदी के शासन में 800 किसान आत्महत्या कर चुके हैं और गुजरात से लोैटने के बाद बनारस में इस संख्या को गुणात्मक रूप से आगे बढ़ाते हुए 5878 ही बता दिया। जबकि गुजरात सरकार का कहना है कि मोदी शासन में मात्र 1 किसान ने आत्महत्या की है। यह भी उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र और आंध्र जैसे कांग्रेस शासित प्रांतों में जहां किसानों ने सबसे ज्यादा आत्महत्या की है, वहां पर केजरीवाल ने कुछ भी बोलना जरूरी नहीं समझा। केजरीवाल ने मोदी पर दूसरा बड़ा आरोप यह लगाया कि उनके शासन में किसानों की जमीनें औने-पौने दामों में अडाणी और अम्बानी को दे-दी गई। जबकि इसके उलट गुजरात सरकार का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी गुजरात के भूमि अधिग्रहण नीति की तारीफ की है और बाजार मूल्य के हिसाब से किसानों को प्रतिकर दिया गया है। अब केरीजवाल कहते हैं कि गुजरात में कृषि विकास दर की बातें झूठी हैं, जबकि देश का योजना आयोग यह कहता है कि मोदी शासन में गुजरात के कृषि विकास की दर 11 प्रतिशत रही है। जहां तक केजरीवाल का यह आरोप है कि गैस में रिलायन्स को नाजायज लाभ लेने दिया गया। वहां गुजरात सरकार का कहना है कि ओएनजीसी में सरकार की 80 फींसदी हिस्सेदारी है, रिलायन्स की हिस्सेदारी मात्र दस फीसदी है। कच्छ के सिख किसानों के मुद्दे पर गुजरात सरकार का कहना है कि 454 सिख परिवार अब भी भू-स्वामी हैं और केजरीवाल गैरकानूनी ढंग से खेती की जमीन खरीदने वाले रियल इस्टेट माफिया की मदद कर रहे हैं। खैर, जब केजरीवाल को ऐसा लगा कि वह मोदी की छवि को कोई नुकसान नहीं पहुचा पा रहे हैं, तो निराशा और हताशा में सत्ता में आने पर मीडिया के जेल भेजने की बातें करने लगे, जिसके चलते बचा-कुचा जन-समर्थन भी जाता रहा।
पर ऐसा लगता है कि केजरीवाल की इन बे-सिर-पैर और आधारहीन बातों से उनका जन समर्थन नगण्य हो चला है और मोदी का कारवां पूर्ववत दिल्ली की सत्ता की तरफ बढ़ता जा रहा है। अब भले केजरीवाल अपनी वेबसाइट पर कश्मीार को पाकिस्तान में दिखाएं और नरेन्द्र मोदी द्वारा पाकिस्तान का एजेन्ट कहे जाने पर नरेन्द्र मोदी की भाषा पर सवाल उठाए। लेकिन केजरीवाल कहीं भी इस बात का खण्डन नहीं कर रहे हैं। निश्चित रूप से यह देशद्रोह जैसा ही कृत्य है। लोगों को यह भी पता होगा कि अगस्त 2011 में दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना आंदोलन के दौरान जब भारतमाता के चित्र को कुछ लोगों ने साम्प्रदायिक कहा था तो केजरीवाल ने उस चित्र को हटवा दिया था। इसी तरह से अपने सहयोगी प्रशांत भूषण की कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग की, उन्होंने प्रकारांतर से समर्थन किया था। कहने का आशय यह है कि दूसरे तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों की तरह केजरीवाल भी मुस्लिम वोट बैंक के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। बनारस में जाकर जब वह गंगा-स्नान करते है और बाबा विश्वनाथ के दर्शन करते हैं और वोट के लिए उनकी दुहाई देते हैं, तो वह प्रचलित टोटकों की तरह हिन्दू आस्था को भुनाने का प्रयास कर रहे होते हैं। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि केजरीवाल को यह पता चल गया है कि लोग उनकी असलियत जान गए हैं कि भारतीय राजनीति में एक और वोट का सौदागर आ गया है। इस तरह से लोगों में यह उम्मीद पूरी तरह बुझ चुकी है कि केजरीवाल कुछ नया करेंगे। तभी तो जनवरी माह में उनके समर्थन में, जहां 25 प्रशित लोग खड़े थे, अब पांच प्रतिशत भी नहीं बचे हैं। सीटें भी अब 100 के आसपास तो बहुत दूर की कौड़ी है, 10 भी मिल जाएं तो बड़ी बात है। अब केजरीवाल कोई दांव चलता न देखकर कर रहे हेैं कि यदि भाजपा उनकी कुछ शर्तें मान लें तो वह भाजपा में शामिल हो सकते हैं। कुल मिलाकर वोट के लिए केजरीवाल के ऐसे हथकण्डों को देखकर माणिक वर्मा के शब्दों में यही कहा जा सकता है- ‘देख तुम्हारी उछल-कूद बंदर भी शरमाएं।’

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