बीज कंपनियों ने फिर लूटी किसानों की किस्मत -संतोष सारंग

बिहार के किसानों को बीज कंपनियों ने एक बार फिर छला। अभी दानाविहीन मक्के का मामला शांत भी नहीं हुआ था कि गेहूं की फसल फेल होने की खबरें गर्म होने लगीं। आक्रोशित किसानों के विरोध-प्रदर्शन के बाद मामला तूल पकड़ा। आनन-फानन में विधान सभा चुनाव के मुहाने पर खड़ी बिहार सरकार ने किसानों को उपज लागत से कम मुआवजा देने की घोषणा कर जले पर नमक छिड़कने का काम किया है। मीडिया भी किसानों के इस मुद्दे को तरजीह नहीं दे रही है। फसल बर्बादी की खबर अंदर के पेज का मसाला बनता है, पर सरकार जब मुआवजा घोषित करती है तो फ्रंट पेज की लीड बनती है। फलतः सरकार, मीडिया एवं अन्य संबद्ध सरकारी तंत्रों से निराश हमारे अन्नदाता अपनी किस्मत को कोस रहे हैं। और इससे अधिक एक बेबस भारतीय किसान कर ही क्या सकता हैं?

राज्य के पूर्णिया, खगड़िया, समस्तीपुर, चंपारण सहित कई अन्य जिलों में लगभग दो लाख हेक्टेयर से अधिक जमीन में लगे मक्के एवं गेहूं की बाली में दाना नहीं आया। हालांकि, राज्य के मुखिया नीतीश कुमार ने केवल 63 हजार हेक्टेयर मक्के की फसल की बर्बादी की बात स्वीकारी है। पूर्वी चंपारण के तुरकौलिया के किसान चंद्रकिशोर सिंह, तरुण कुमार, धरीक्षण शर्मा, खगड़िया के हरदिया के किसान सोनेलाल यादव, मुजफ्फरपुर के मीनापुर के किसान प्रगास महतो ने भी अन्य किसानों की तरह चैलेंजर पायोनियर-7, पायोनियर 92, लक्ष्मी विकाल्व 9081, पिनकॉल, 900 एम ब्रांड, मोंसेंटो आदि कंपनी या किस्मों के मक्का बीजों का प्रयोग किया था। मक्के की फसल नष्ट होने से गुस्साए किसानों ने खगड़िया में कृषि मंत्री रेणु देवी को घेरकर अपना गुस्सा उतारा। सरकार हरकत में आई और फसल की क्षतिपूर्ति के लिए प्रति हेक्टेयर 10 हजार रुपए मुआवजा देने की घोषणा की। पर, यह रकम फसल उपज की लागत का आधा भी नहीं है। बीज, खाद, पटवन से लेकर मजदूरी में प्रति हेक्टेयर में मक्के की उपज का लागत लगभग 25 हजार रुपए आता है। सरकार को लागत और उपज के हिसाब से मुआवजा देना चाहिए। मुआवजा तो किसानों का मुंह बंद करने का झुनझुना मात्र है। सवाल है कि कितने किसान मुआवजे का सही लाभ उठा पाएंगे। सैंकड़ों किसान बटाईदार के रूप में खेती करते हैं जिन्हें मुआवजे का लाभ नहीं मिल सकता। मोतीपुर ब्लॉक के कृषि पदाधिकारी का कहना है कि किसानों के पास बीज खरीददारी की रसीद भी नहीं है और फसल बीमा भी नहीं। फलतः सरकारी स्तर पर किसानों को मुआवजा देना नियमसंगत नहीं है। ऐसे में, भला कितने किसानों को मुआवजा मिल सकेगा? और जिनको मिलेगा भी, क्या गारंटी कि वे भ्रष्टतम सरकारी सिस्टम के शिकार नहीं बनेंगे?

2003 में भी यहां के किसानों को मोंसेंटो एवं कारगिल कंपनियों के निर्वंष बीजों के कारण रोना पड़ा था। कृषि विभाग, कृषि वैज्ञानिकों एवं कुख्यात मल्टीनेशनल कंपनियों की सांठगांठ से बिना ट्रायल के ही बीज बाजार तक पहुंचते रहे हैं। कभी कृषि वैज्ञानिक मौसम को दोशी ठहराते हैं तो कभी समय से पहले बुआई को कारण मानते रहे हैं। परंतु सच्चाई है कि कुख्यात बीज कंपनियां अपने ट्रायल की जानकारी कृषि विश्वविद्यालय या कृषि विभाग को दिए बिना ही बीज मार्केट में उतार देती हैं। मुजफ्फरपुर जिला कृषि पदाधिकारी वैद्यनाथ रजक भी स्वीकारते हैं कि कंपनी बीज प्रत्यक्षण की जानकारी नहीं देती है और बीज बिक्री के लाइसेंस पर ही बीज बेच देती है। मजेदार बात है कि जब विभाग को मालूम है तो कार्रवाई क्यों नहीं होती है? सीधा-सा जवाब है कि यह सब मोटी रकम का खेल है। खाद्य सुरक्षा देने वाले किसानों के मुद्दे सरकार की प्राथमिकता में कब रहे? सरकार जानती है कि असंगठित किसान आंदोलन नहीं करते। पर, सरकार को इस गफलत में नहीं रहना चाहिए कि उनके पास वोट के अधिकार तो हैं ही।

देश की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है लेकिन सरकार का सबसे कम ध्यान इसी क्षेत्र पर रहता है। भारत की कुल आबादी का करीब 65 फीसदी लोग खेती करते हैं जबकि बिहार के 81 फीसदी लोगों की आजीविका कृषि पर निर्भर है। निःसंदेह भारत बीज का एक बड़ा बाजार है। भूमंडलीकरण के कारण बाजार तक पहुंच आसान हुई है। रसायन बनाने वाली कुख्यात अमरीकी कंपनियां बीज के बाजार में उतर गईं। कहना गलत न होगा कि भारत की खेती पर इनका कब्जा बढ़ रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कुदृष्टि ने पहले परंपरागत खेती एवं देसी बीजों से हमें विमुख किया। अधिक उत्पादन का लालच देकर जीएम (जेनेटिकली मोडीफाइड) बीज बोने को मजबूर किया। पेटेंट का खेल भी हमारे खलीहानों में खेला गया। कुछ वर्ष पहले बीटी कपास की खेती के कारण आंध्र प्रदेश के 4 गांवों में सैकड़ों भेड़े मर गईं। विदर्भ सहित दक्षिण भारत के कई राज्यों में किसानों की आत्महत्या इन्हीं कंपनियों एवं सरकार की कृषि विरोधी नीतियों का परिणाम है। फिलहाल, बीटी बैंगन को लाने की सरकार की मंशा आम जनता के आंदोलन के कारण धरी-की-धरी रह गई। पर, क्या गारंटी कि आने वाले दिनों में हमारे किसान लूटेरी कंपनियों के हाथोंर् भुत्ता बनने से बचे रहेंगे?

भारत दुनिया का 8वां सबसे बड़ा बीज बाजार है। फिरंगी विदेशी कंपनियां इस देश में सालाना तकरीबन 1 अरब डॉलर का कारोबार करती हैं। एक अनुमान के अनुसार, बीज उद्योग में कॉर्पोरेट का दखल सालाना 15 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। कुल मिलाकर देश के करीब 75 करोड़ छोटे-बड़े किसानों के हित एवं तमाम भारतीयों की थाली में परोसे जानेवाले व्यंजनों के स्वाद इन्हीं खलनायकों की मेहरबानी पर टिकी है। खुली अर्थव्यवस्था के इस दौर में दो अंकों की विकास दर बनाए रखने के लिए मनमोहनी सरकार को किसानों से ज्यादा बाजार के धुरंधरों की चिंता रहती है। तभी तो ‘राष्ट्रीय जैव-प्रौद्योगिकी नियंत्रक प्राधिकार विधेयक 2009 (एनबीआरएआई)’ नामक एक अहितकर कानून लाने की तैयारी चल रही है। यह विधेयक कंपनियों को कानूनी संरक्षण देगी। इसके पहले भी कंपनियों को सूचनाएं छुपाने में सरकारी विभागों की मदद मिलती रही है। जैव-प्रौद्योगिकी विभाग ने ग्रीनपीस एवं माहिको के बीच चली लंबी आरटीआई की लड़ाई के बीच हस्तक्षेप करते हुए कहा था कि फाइल को सार्वजनिक करने से कंपनी के व्यावसायिक हित को नुकसान पहुंचेगा। हमारे नौकरशाहों एवं सरकार को किसानों के मानवीय हितों से ज्यादा कंपनियों के व्यावसायिक हितों की चिंता अधिक है।

सनद रहे कि बीटी कपास, बीटी बैंगन के जरिये जीएम फसलों को बढ़ावा देकर भारतीय खेती को चौपट करने की अंतर्राष्ट्रीय साजिश चल रही है। यूरोपीय संघ के दशोेंं में नब्बे के दर्शक से ही जैविक खेती को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। अमरीका दुनियाभर में जीएम फसलों को बढ़ावा दे रहा है, वहीं व्हाइट हाउस परिसर में जैविक खेती की जा रही है। पश्चिम के देशों ने रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का प्रयोग करनेवाले असम के चाय बागानों से चाय मंगाना छोड़ दिया। परंतु दूसरी ओर उन्हीं देशों की कंपनियां रासायनिक उत्पाद बेचकर भारतीय किसानों से डॉलर कमाते हैं। हमारे पर्यावरण, जैव-विविधता, कृषि उत्पादकता पर प्रति कुल प्रभाव पड़ता है सो अलग। कई मोर्चे पर हमारे अन्नदाता बेबस हैं। रासायनिक खाद व कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से जमीन की उर्वरा शक्ति घट रही है। पंजाब-हरियाणा के खेत बंजर हो रहे हैं। एक तरफ बीज, खाद, कृषि उपकरणों के दाम बेतहाशा बढ़े हैं, जिससे कृषि लागत खर्च बढ़ गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत के बराबर जब नहीं मिलता है तो किसानों की परेशानी बढ़ना स्वाभाविक है। साहूकारों अथवा बैंकों से कर्ज लेकर खेती करना, बाढ़-सुखाड़ का दंश, व्यापारियों-बिचौलियों की कुदृष्टि भी किसानों की कमर तोड़ने में सहायक होती है।

इसे किसानों को ठगने का एक सरकारी कार्यशैली नहीं तो और क्या कहेंगे कि एक तरफ तो विदेशी कंपनियों को खुली छूट दी जाती है तो दूसरी ओर ‘राष्ट्रीय बागवानी मिशन’ योजना चलाकर अपना धब्बेदार चेहरा ढकने का उद्यम किया जाता है। जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गई यह योजना हाथी का दांत साबित होकर रह गई है। सरकार एवं कृषि विभाग जानता है कि जैविक खेती को बढ़ावा मिल गया तो फिरंगियों के साथ चल रहा डॉलर का यह खेल बंद हो जाएगा। इधर, प्रख्यात पर्यावरणविद् अनिल प्रकाश बिहार में मक्का किसानों के साथ हुए हादसे के बाद युवाओं एवं किसानों को गोलबंद करने में लगे हैं। श्री प्रकाश कहते हैं कि बीज के बहाने मल्टीनेशनल कंपनियां अपनी उपनिवेशवादी नीतियों का विस्तार करने में लगी है। मुजफ्फरपुर, ढोली बाजार के किसान अजीत कुमार चौधरी कहते हैं कि हमें परंपरागत खेती की ओर लौटना चाहिए, तभी हमारी खेती बची रहेगी। वे ऐसे हादसे से बचने के लिए किसानों को राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा से बीज खरीदने की सलाह देते हैं।

मल्टीनेशनल कंपनियों ने पहले हल्दी, नीम, बासमती चावल के पेटेंट का खेल खेलकर भारतीय अस्मिता, संप्रभुता पर प्रहार किया तो अब संपूर्ण भारतीय जीवन शैली पर प्रभाव डालते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर सवालिया निशान छोड़ने पर तूली है। आज भारत का एक-एक नागरिक सिर्फ उपभोक्ता वस्तु बनकर रह गया है। लिहाजा, हम लुटते रहे हैं और सरकार मूकदर्शक बनी रही है। इसमें भी दो राय नहीं कि बेबस, बेहाल, कर्ज से दबे किसान आत्महत्या को मजबूर होकर आंदोलन पर उतारू हो जाएं तो सामंती सरकार की गोलियां उन्हें मौत के घाट उतार देंगी। रास्ता एक ही बचता है-या तो लुटे-पिटे किसान सरकार की निरंकुशता व साजिश के शिकार बने रहे या नक्सलियों की सेना में शामिल हो जाएं। अन्यथा, भाग्य के भरोसे बेहाल जिंदगी की मार सहते रहें।

-लेखक सीटीजन जर्नलिस्ट अवार्ड से सम्मानित पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

1 COMMENT

  1. Thus is nothing new for farmers,all over India these seed companies are playing this game,recently in Chhattisgarh,also farmers faced the serious problems from onion seeds of one of the so called reputed MNC seed company.Farmers suffered heavy losses as onion did not developed the bulbs and farmer did not got even a Re from the crop.Agricuture minster showed his greatness and ordered for an inquiry,who heads the inquiry,same people who are in hand in gloves with these companies.Every one knows the out come before the inquiry (?) is over.Why thes companies are given permission to sale the seeds before they have been varified in and tested in local conditions.They are allowed to sale what ever they want.
    Farming it self is business of loss and with these kind cheating with farmers,future seems to be very dark.

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