स्वयं सहायता समूह और महिला सशक्तीकरण

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महिला सशक्तीकरण से अभिप्राय जीवन के विविध क्षेत्रों में महिलाओं द्वारा निर्णय प्रक्रिया में साझेदारी से है । इसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक इत्यादि सभी विषयों में महिलाओं की स्थिति मे परिवर्तन होता हैं । यह महिलाओं के स्वयं पर नियंत्रण, अपने परिवार के बारे में महत्वपूर्ण निर्णयों में साझेदारी तथा घर के इतर निर्णयों में भूमिका निर्धारित करता है । महिला सशक्तीकरण को राजनीति, प्रशासन, अर्थव्यवस्था, व्यापार-वाणिज्य इत्यादि में प्रतिनिधित्व के रूप में भी आंका जाता है । इसके तहत महिलाओं में सुरक्षा की भावना, मातृत्व मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर में कमी इत्यादि के रूप में भी देखा जाता है । सशक्तीकृत महिलाओं द्वारा अपनी क्षमता के दायरे में विश्वास का निर्माण शामिल होता है । महिलाओं को सशक्त करने में कुछ कारकों की अहम भूमिका होती है जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सैनिटेशन, आस्तियों पर स्वामित्व, कौशल, प्रशिक्षण, प्रौद्योगिकीय ज्ञान इत्यादि जिन्हें नीचे दिए गए चित्र में दर्शाया गया है-

चित्र 5.1- महिला सशक्तीकरण के कारक

 women empowerment

स्वयं सहायता समूह और महिला सशक्तीकरण

भारत के गुजरात राज्य में सुश्री इला भट्ट के नेतृत्व में 1974 से महिलाओं द्वारा संगठित स्वयं सहायता समूहों को सूक्ष्म वित्त प्रदान कर उन्हें उत्पादक गतिविधियों का प्रशिक्षण दिया जा रहा है जो कि सूक्ष्म वित्त के क्षेत्र में सबसे पहला सफल प्रयास माना जाता है । बाद में, बांग्लादेश में श्री मुहम्मद यूनूस ने 1976 से सूक्ष्म वित्त को आधार बनाकर अनेक स्वयं सहायता समूहों का सृजन किया जिसने बांग्लादेश में गरीबी कम करने, महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने एवं कई लघु एवं कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवन देने का कार्य किया जिसके लिए यूनूस को वर्ष 2005 में नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया जिसके बाद से स्वयं सहायता समूह एवं सूक्ष्म वित्त की अवधारणा एक व्यापक क्रांति के रूप में उभरते हुए विकासशील देशों में गरीबी निवारण एवं महिला उत्थान का अहम माध्यम बन चुकी है । इस प्रकार स्वयं सहायता समूहों द्वारा महिला सशक्तीकरण के पहलू को नीचे दिए गए चित्र से समझा जा सकता है-

चित्र 5.2- स्वयं सहायता समूहों द्वारा महिला सशक्तीकरण

स्वयं सहायता समूहों में महिला भागीदारी को प्रभावित करने वाले तत्व

  • भौगोलिक
  • सामाजिक-आर्थिक
  • संस्थागत

महिला भागीदारी का नतीजा

  • घरेलू आमदनी में बढ़ोतरी
  • खाद्य सुरक्षा
  • गरीबी निवारण

 

महिला भागीदारी

  • निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी
  • नियोजन व क्रियान्विति में भागीदारी

 

स्वयं सहायता समूहों द्वारा महिला सदस्यों को प्राथमिकता दिये जाने के कारण

हमारे देश में बहुत सारे गैर-सरकारी संगठन एवं सूक्ष्म वित्त संस्थाएं स्वयं सहायता समूहों के गठन व उन्हें ऋण देकर निर्धनता निवारण के उद्देश्य से कार्य करती है । ये समूह महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के अलावा उनमें समग्र जागरूकता के विकास में भी भूमिका निभा रहे हैं जिससे उनका सामाजिक, आर्थिक व वैयक्तिक सशक्तीकरण हो रहा है । यूँ तो, सूक्ष्म वित्त का उदात्त लक्ष्य गरीबी निवारण है किन्तु इसके महत्वपूर्ण सम्पूरक के रूप में महिला सशक्तीकरण का लक्ष्य भी पूरा हो रहा है । सूक्ष्म वित्त क्षेत्र में महिलाओं की सक्रिय उपस्थिति के निम्नलिखित कारण हैं-

  • किसी भी अर्थव्यवस्था में महिलाओं के योगदान पर प्रायः गौर नहीं किया जाता है जो भारतीय अर्थव्यवस्था में भी परिव्याप्त है । यही कारण है कि सूक्ष्म वित्त संस्थाएं महिलाओं को ऋण देने तथा उनके विकास पर बल देते हैं । इस प्रकार महिलाओं को ऋण देकर सूक्ष्म वित्त संस्थाएं महिला उद्यमों के सृजन, विकास व संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है । जिससे महिलाओं की स्वायत्तता, स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता, स्वरोजगार, आत्मविश्वास व सामाजिक ओहदे में वृद्धि हुई है ।
  • एक अनुमान के अनुसार दुनिया की गरीब जनसंख्या का 70 फीसदी हिस्सा महिलाएं हैं । स्पष्ट है कि गरीबी की मार पुरुषों की तुलना में महिलाओं पर अधिक पड़ रही है । ऐसे में, सूक्ष्म वित्त संस्थाओं द्वारा निर्धनता निवारण के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विशेषकर महिला स्वयं सहायता समूहों को प्रोत्साहन दिया जाता है । क्योंकि एक पुरुष को गरीबी रेखा से बाहर निकालने का उसके परिवार पर भी असर हो यह निश्चित नहीं होता किन्तु महिलाओं का आर्थिक सशक्तीकरण निश्चित ही पूरे परिवार विशेषकर बच्चों की ज़िन्दगी में व्यापक बदलाव लेकर आता है ।
  • भारत जैसे देशों में महिलाओं के सशक्तीकरण का पहलू अधिक जटिल है क्योंकि महिलाओं की उपस्थिति प्रायः अनौपचारिक क्षेत्र में ही है जहां न सिर्फ समान कार्य पर समान वेतन नहीं दिया जाता है बल्कि महिलाओं के यौन शोषण के मामले भी अधिक होते हैं ।
  • विकासशील देशों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं में बेरोजगारी दर कहीं अधिक है ऐसे में सूक्ष्म वित्त संस्थाओं द्वारा महिलाओं पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है ।
  • सरकार द्वारा भी महिलाओं को लक्षित वर्ग के रूप में प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि सामाजिक परिवर्तन में महिलाओं की कारगर भूमिका है ।
  • कई अध्ययनों से यह सिद्ध हुआ है कि महिलाओं की वित्तीय विश्वसनीयता पुरुषों से अधिक है क्योंकि महिलाएं पुरुषों की तुलना में ऋण राशि के इस्तेमाल में ज्यादा जिम्मेदार होती है । महिलाओं द्वारा सूक्ष्म वित्त संस्थाओं से लिए गए ऋण की भुगतान दर 95 फीसदी से भी अधिक है जो कि पुरुषों द्वारा संचालित स्वयं सहायता समूहों की तुलना में कहीं अधिक सफल हैं । स्पष्ट है कि महिलाओं के समूह पुरुषों की तुलना में बेहतर ग्राहक हैं, वे संसाधनों की बेहतर प्रबंधक हैं, ऋण के लाभों को परिवारों के बीच फैला रही हैं ।

 

स्वयं सहायता समूहों का महिलाओं के जीवन पर प्रभाव

स्वयं सहायता समूहों में कार्य करने के कारण महिलाओं के आत्मविश्वास, स्वाभिमान, आत्म-गौरव इत्यादि में वृद्धि होती है क्योंकि घरेलू परिधि के बाहर एक समूह के रूप में छोटी-छोटी बचत इकट्ठी करके, ऋण लेकर, बैंक कर्मचारियों से संपर्क, लघु उद्यम स्थापित करके, समूह की बैठकों की कार्रवाई संचालित करके महिलाओं में निम्नलिखित क्षमताओं का विकास होता है:-

  • स्वनिर्णय की शक्ति- स्वयं सहायता समूह के सदस्य के रूप में काम करने के कारण महिलाओं की स्वयं निर्णय लेने की शक्ति का विकास होता है । महिलाओं द्वारा बैंकों के साथ लेन-देन, कागजी कार्रवाई इत्यादि करने से उनमें आत्म-विश्वास पनपता है । समूह की गतिविधियों के संचालन, बैठकों में भाग लेने से महिलाओं की स्वनिर्णय की क्षमताओं का विकास होता है जो धीरे-धीरे परिवार और समुदाय में उनकी सोच को आवाज मिलती है ।
  • जानकारी तथा संसाधनों की उपलब्धता समूह के सदस्य के रूप में महिलाओं की गतिशीलता बढ़ जाती है । घर की चारदीवारी में कैद रहने वाली महिलाएं इन समूहों के माध्यम से पंचायत संस्थाओं, बैंक, सरकारी तंत्र, गैर-सरकारी संगठनों, सूक्ष्म वित्त संस्थानों इत्यादि से संपर्क में आती है जिससे उनके पास अधिक सूचना एवं संसाधन होते हैं । सूचना एवं संसाधनों की उपलब्धता महिलाओं को सशक्त करती है ।
  • सामूहिक निर्णय के मामलों में अपनी बात बलपूर्वक रखने की समर्थता अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि स्वयं सहायता समूहों में कार्य करने वाली महिलाओं की सामुदायिक कार्यों में सहभागिता, पंचायत की बैठकों में उपस्थिति अधिक सक्रिय होती है । अन्य महिलाओं की अपेक्षा ये महिलाएँ अपनी बात समुदाय के सामने अधिक बलपूर्वक रख पाती है ।
  • आर्थिक आत्मनिर्भरता स्वयं सहायता समूह की सदस्य के रूप में महिलाएँ आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर बनती है जिससे परिवार में उनकी स्थिति में सुधार होता है तथा इस प्रकार उपलब्ध धन का इस्तेमाल वे अपने निजी इस्तेमाल अथवा बच्चों की शिक्षा व स्वास्थ्य इत्यादि में करती हैं । अध्ययनों से स्पष्ट है कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा के मामले कम होते हैं ।
  • मनोवैज्ञानिक विकास स्वयं सहायता समूह की सदस्य के रूप में महिलाओं द्वारा स्वयं की पहल पर सामाजिक बदलावों के लिए भागीदारी सुनिश्चित होती है । उनका बदलाव लाने की अपनी क्षमता में विश्वास सुदृढ़ होता है ।
  • कौशल विकास- हमारे देश में प्रायः महिलाएं सिलाई, कढ़ाई, पापड़ बनाने, अचार बनाने जैसे कई कार्य करती हैं किन्तु इन्हीं कार्यों को स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक आधार पर किया जाता है । इन समूहों को सरकारी तथा गैर-सरकारी संगठनों द्वारा कौशल प्रशिक्षण भी दिया जाता है जिससे महिलाओं की स्वयं की व्यक्तिगत या सामूहिक शक्ति बेहतर करने के लिए कौशल सीखने की क्षमता का विकास होता है ।
  • लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में विश्वास इन समूहों में सामान्यतया सभी सदस्य एक जैसी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के होते हैं तथा इनकी कार्रवाई में लोकतांत्रिक प्रविधियों को अपनाया जाता है जिससे महिलाओं का लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में विश्वास मजबूत होता है । इसका प्रभाव गांव में राजनीतिक संस्थाओं यथा ग्राम सभा, पंचायत इत्यादि पर भी पड़ता है । महिलाओं की अन्यों की विचारधारा को लोकतांत्रिक तरीके से बदलने की क्षमता में अभिवृद्धि होती है ।
  • वित्तीय क्षेत्र में भागीदारी आज दुनिया भर में महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को गरीबी का मुकाबला करने में सबसे ज्यादा आशाजनक माना जा रहा है । भारत में 80 फीसदी से अधिक स्वयं सहायता समूह महिलाओं से संबद्ध हैं जिनमें भुगतान दर 95 फीसदी के आसपास है तथा गैर-निष्पादक परिसंपत्तियों का प्रतिशत बहुत कम है ।

 

महिलाओं की एसएचजी-बैंक लिंकेज योजना में स्थिति

नाबार्ड की भारत में सूक्ष्म वित्त की स्थिति 2011-12 रिपोर्ट के अनुसार मार्च 12 के अंत तक एसएचजी बैंक लिंकेज योजना के लगभग 79 प्रतिशत बचत खाते महिला एसएचजी द्वारा खोले गए थे । एसएचजी को बैंकों द्वारा दिए गए ऋण में लगभग 80 प्रतिशत ऋण महिला एसएचजी को दिए गए वहीं बैंकों द्वारा दिए बकाया ऋण में लगभग 84 फीसदी महिला एसएचजी द्वारा लिए गए । स्पष्ट है कि भारत में एसएचजी-बैंक लिंकेज योजना के तीन-चौथाई से अधिक लाभार्थी महिला एसएचजी हैं ।

तालिका 1- मार्च अंत में स्वयं सहायता समूहों की बचत एवं ऋण के मामले में स्थिति

 

2009-10

2010-11

2011-12

संख्या

(लाख में)

राशि

(करोड़ में)

संख्या

(लाख में)

राशि

(करोड़ में)

संख्या

(लाख में)

राशि

(करोड़ में)

एसएचजी द्वारा की गई बचत

69.53

6198.71

74.62

7016.30

79.60

6551.41

महिला एसएचजी की बचत

53.10

(76.4)

4498.66

(72.6)

60.98

(81.7)

5298.65

(75.5)

62.99

(79.1)

5104.33

(77.9)

बैंक द्वारा दिए गए ऋण

15.87

14,453.3

11.96

14547.73

11.98

16534.77

महिला एसएचजी को दिए ऋण

12.94

(81.6)

12429.37

(86.0)

10.97

(85.0)

12622.33

(86.8)

9.23

(80.4)

14132.02

(85.5)

बैंकों में बकाया ऋण

48.51

28038.28

47.87

31221.17

43.54

36340.00

महिला एसएचजी के बकाया ऋण

38.98

(80.3)

23030.36

(82.1)

39.84

(83.2)

26123.75

(83.7)

36.49

(83.8)

30465.28

(83.8)

नोट- कोष्ठक में दिए गए आंकड़े महिला एसएचजी का प्रतिशत दर्शाते हैं ।

स्त्रोत- नाबार्ड

 

महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों के विकास में बाधक तत्व

यद्यपि महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों द्वारा काफी अच्छा काम किया जा रहा है किन्तु भारतीय परिप्रेक्ष्य में महिलाओं को स्वयं को समूहों के रूप में संगठित होने व किसी उद्यम के विकास में पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है जैसे-

(क) महिलाओं की गतिशीलता पर सीमाएं भारत में पुरुष प्रधान समाज के कारण महिलाओं का जीवन प्रायः घर की चारदीवारी में ही सीमित होता है । इसलिए घर के बाहर जाकर स्वयं सहायता समूहों के रूप में संगठित होने की स्थिति में उन पर अनेक प्रकार की सामाजिक बाधाएं होती हैं । महिलाओं द्वारा समूहों के रूप में संगठित होने पर भी उन्हें अपने उद्यम को आगे बढ़ाने के लिए बैंकर्स, गैर-सरकारी संगठनों, अपने उत्पादों के लिए मध्यस्थों इत्यादि से बातचीत करनी होती है जिसमें कई बार परिजनों द्वारा सीमाएं डाली जाती हैं । इसी प्रकार पुरुष जहां देर रात तक काम कर सकते हैं महिलाओं के लिए कार्य करने की अवधि अनेक कारणों से सीमित होती है ।

(ख) सामाजिक प्रतिबंध भारतीय समाज में महिलाओं के रहन-सहन, काम-काज, रोजगार इत्यादि पर अनेक सामाजिक-पारम्परिक रीति-रिवाज भी बाधा के रूप में काम करते हैं । महिला स्वयं सहायता समूहों को स्वयं के उद्यम के उत्पादों का प्रचार करने व उनको शहरों तक पहुंचाने के लिए पुरुषों की सहायता लेनी पड़ती है । परिणामतः समूहों में कार्य करने के बावजूद महिलाएं स्वयं में पूर्ण विश्वास नहीं कर पाती हैं तथा पुरुषों पर निर्भरता को अपने जीवन का यथार्थ मानने लगती हैं । ऐसी स्थिति में सशक्तीकरण केवल आर्थिक आत्मनिर्भरता का ही रूप ले पाता है और मनोवैज्ञानिक विकास नहीं हो पाता है ।

(ग) बैंकर्स का नकारात्मक रवैया परम्परागत रूप से बैंकों में पुरुष ग्राहक ही अधिक संख्या में होते हैं तथा महिलाएं एक तरह से बैंकिंग सेवाओं से वंचित रही हैं । स्वयं सहायता समूहों की सदस्य के रूप में जब महिलाएँ बैंकों से ऋण इत्यादि के लिए संपर्क करती हैं तो पूर्व अनुभव के अभाव में उनकी जिज्ञासाएं व शंकाएं अधिक होती हैं किन्तु बैंकर्स की तरफ से इस स्थिति के प्रति सकारात्मक व सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार नहीं किया जाता है जिससे महिला समूहों का मनोबल कम होता है ।

(घ) प्रशासनिक बाधाएँ सरकारी संस्थाओं से संपर्क साधने में महिला समूहों को प्रशासनिक रूढ़िताओं, जटिलताओं, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, पुरुषवादी मानसिकता इत्यादि के कारण अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है । जिससे सरकार द्वारा स्वयं सहायता समूहों के लिए चलाई जा रही अनेक प्रोत्साहन योजनाओं का लाभ महिला समूह नहीं उठा पाते हैं अथवा उन्हें अनेक चुनौतियों से जूझना पड़ता है ।

 

सारांश

सार रूप में, हम कह सकते हैं कि स्वयं सहायता समूह महिलाओं के सशक्तीकरण में महत्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं क्योंकि इन समूहों में कार्य करने से उनके स्वाभिमान, गौरव व आत्मनिर्भरता में वृद्धि होती है । परिणामस्वरूप महिलाओं की क्षमताओं में बढ़ोतरी होती है । आज भारत दुनिया भर में महिलाओं द्वारा संचालित स्वयं सहायता समूहों के क्षेत्र में सर्वोपरि स्थान रखता है किन्तु हमारे देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, प्रशासनिक, राजनीतिक व आर्थिक परिस्थितियां महिला समूहों की गतिशीलता, व्यवहार्यता व साध्यता में अनेक चुनौतियां खड़ी होती हैं । इन चुनौतियों को कम करने में महिला संगठनों, समाजसेवी संस्थाओं, गैर-सरकारी संगठनों, सरकारी एजेंसियों इत्यादि द्वारा कार्य किया जा रहा है । जिसके फलस्वरूप महिला समूहों की सक्रियता व सामाजिक-आर्थिक जीवन में भागीदारी व महिला सशक्तीकरण सच्चे मायनों में हो रहा है ।

संदर्भ

  • नाबार्ड भारत में सूक्ष्म वित्त की स्थिति 2011-12 रिपोर्ट
  • आनंद सिंहा Financial Inclusion and Urban Cooperative Banks
  • M-Cril MicroFinance Review 2010
  • www.rbi.org.in

 

 

 

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निधि चौधरी
तीन विषयों (अंग्रेजी साहित्य 2005, लोक प्रशासन 2007 एवं ग्रामीण विकास 2012) में स्नातकोत्तर की उपाधि । वर्तमान में लोक प्रशासन में पी.एच.डी. कर रही हैं । इसके अलावा यूजीसी-नेट, JAIIB (2008), CAIIB (2009) तथा BJMC (2003) की डिग्री भी रखती हैं ।। रचनाओं का प्रकाशन राष्ट्रीय स्तर के कई अखबार, पत्र-पत्रिकाओं जैसे द इंडियन बैंकर, बैंक क्वेस्ट, द इंडियन इकॉनोमिक जर्नल, द आइमा ई-जर्नल, बैंकिंग चिंतन अनुचिंतन, सीएबी कॉलिंग, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक नवज्योति, मेरी सहेली, गृहलक्ष्मी, गृहशोभा इत्यादि में हो चुका है ।

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