स्वार्थ अप्रतिम, मूल्यवान, अनिन्दनीय

हृदयनारायण दीक्षित

अपना सुख सबकी कामना है। अपनों का सुख इसी अपने का हिस्सा है। तुलसीदास की आत्मानुभूति प्रगाढ़ थी। उन्होंने इसी अपनेपन के लिए एक प्रीतिकर शब्द दिया-‘स्वान्तः सुखाय’। रामकथा उन्होंने ‘स्वान्तः सुखाय’ ही गायी। सभी प्राणी अपने सुख के लिए ही कर्म करते हैं। दूसरों के सुख की बात करने वाले राजनीति करते हैं। ‘वृहदारण्यक’ उपनिषद् उत्तर वैदिक काल की गाढ़ी अनुभूति है। तब याज्ञवल्क्य की मेधा तपती थी, जनक जैसे राजा भी विद्वानों की सभा बुलाते थे। तब दुख-निवारण के गूढ़ विषयों पर गोष्ठियों का वातावरण था। बेशक यज्ञ थे, यज्ञ से जुड़े कर्मकाण्ड थे लेकिन यज्ञ अग्नि की जांच में तपी मेधा प्रज्ञा की महक से दिग्दिगन्त व्यापक था। भारत नन्दन कानन था। प्रश्नों प्रतिप्रश्नों की पुष्प वर्षा थी। याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को बताया प्रियतम! अपने लिए ही पति-पत्नी को प्यार करता है। अपने लिए ही पत्नी पति को प्यार करती है। अपने लिए ही पिता पुत्र को, पुत्र पिता को और राजा प्रजा को प्रजा राजा को। स्वार्थ अप्रतिम मूल्यवान है, अतुलनीय है, विकल्पहीन है, अनिंदनीय है। स्वार्थ स्वभाव है। स्वार्थ बीज है, इसी बीज से परमार्थ का विराट वृक्ष उगता है। स्वार्थ में ही परमार्थ की संभावना है।

‘महाभारत’ में प्रीतिकर कथा है। दुर्योधन का जन्म हुआ। तमाम अपशकुन हुए। विदुर ने कहा, कुल के कल्याण के लिए परिवार के सदस्य का, ग्रामहित में कुल का, जनपदहित में ग्राम का और राष्ट्रहित में जनपद का त्याग करना चाहिए लेकिन ‘आत्मार्थे पृथ्वी त्यजेत’ – आत्मार्थ इस पृथ्वी को भी त्याग देना चाहिए। यहां आत्मार्थे का स्वहित होना चाहिए। लेकिन यह स्वहित परिवार, ग्राम और देशहित में भी बड़ा है। कोई कह सकता है कि ‘आत्मार्थे’ का मतलब आत्मा के लिए ही होना चाहिए। गीता महाभारत की सुवास है। महाभारत विराट उपवन है, इसमें वृक्ष हैं, खरपतवार है, फलो-फूलों के साथ कांटे भी हैं लेकिन गीता में फूलों की सुरभि और दिव्य गंध है। गीता में आत्मा को शस्त्रों द्वारा न आत्मा-मारे जाने वाला, आग द्वार न जलाया जाने वाला, पानी द्वारा न भिगोया जाने वाला बताया गया है लेकिन गीता के ही छठे अध्याय (श्लोक 5) में आत्मा शब्द के दिलचस्प प्रयोग हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं ‘उध्दरेदात्मनात्मानं नात्मानभवसादयेत्’ – आत्मा से आत्मा का या स्वयं का उध्दार करें। स्वयं का अवसाद न करें – ‘न आत्मानम् अवसादयेत्’। आत्मा ही मित्र है, आत्मा ही शत्रु है। (वही श्लोक 5) आत्मा स्वयं का पर्यायवाची है। हम स्वयं ही चूक करते हैं, अपने शत्रु हो जाते हैं। हम स्वयं ही उध्दार करते हैं, स्वयं के मित्र हो जाते हैं।

गीता के शब्द चुने हुए हैं, बिल्कुल बीज गणित जैसे। इस श्लोक का प्रथम भाग ध्यान देने योग्य है। ‘उध्दरेदात्मनामनं’ में उध्दरेत का अर्थ है – उध्दार करें या ऊपर उठाएं। ‘आत्मनात्मानं’ का अर्थ है ‘आत्मा से आत्मा का’। अर्थात आत्मा से आत्मा का उध्दार करें। एक आत्मा से दूसरी आत्मा के उध्दार के बात अटपटी है। आगे कहते हैं, ‘नात्मानमवसादयेत’ – अर्थात् आत्म अवसाद न करें। दूसरी पंक्ति की बात सीधी है – यह आत्मा मित्र है और शत्रु भी है। आत्मा से आत्मा के उध्दार का अर्थ आत्म साक्षात्कार है, आत्मा दो नही है। पतंजलि ने योग सूत्र (श्लोक 5 व 6) में चित्त की पांच वृत्तियां बताई है – प्रमाण, विपर्यय (मिथ्याज्ञान, विकल्प, निद्रा और स्मृति। फिर पांचों वृत्तियों की परिभाषा बताई। उन्होंने प्रत्यक्षबोध, अनुमान और अनुभव सिध्दों के वचन-कथन को प्रमाण कहा। (वही 7) मिथ्या ज्ञान को विपर्यय कहा और शब्दों के जोड़ से बनी अवास्तविकता को कल्पना। (वही 8 व 9) उन्होंने विषयवस्तु से शून्य चित्तदशा को निद्रा बताया लेकिन सबसे दिलचस्प विषय है मन की पांचवी वृत्ति-स्मृति। पतंजलि ने बताया, अनुभवों को याद करना स्मृति है – ‘अनुभूत विषया सम्प्रमोषा स्मृतिः’। (वही 11) मनुष्य का चित्त इन पांचो का क्षेत्र है। योगसूत्रों के अनुसार यह पांचों क्लेश का कारण है और अक्लेश का भी – ‘वृत्तया पंचतया क्लिष्टा अकिलष्टा’। (वही 5) गीता में भी आत्मा शत्रु व मित्र दोनो है।

पतंजलि का कथन वैज्ञानिक है और गीता का दार्शनिक। पतंजलि इन पांचों को योग विज्ञान के जरिए एकात्म बनाने का उपाय बताते हैं और गीता बोध जगाकर। असल बात है भीतर का क्षेत्र। यहां तमाम ऐषणाएं हैं, काम, क्रोध और ढेर सारी वासनाएं हैं। यहीं पर सत्य है, शिव और सुन्दर भी है। यह सब हमारे व्यक्तित्व का ही हिस्सा है। कृष्ण कहते हैं जिसने स्वयं को स्वयं द्वारा जीत लिया है वह स्वयं का मित्र है, जिसने यह नहीं पाया वह स्वयं का शत्रु है। (गीता 6.6) यहां एक मजेदार लड़ाई है। स्वयं से स्वयं की लड़ाई, यह लड़ाई दिलचस्प है। गीता में भरापूरा आधुनिक मनोविज्ञान है। मनुष्य व्यक्तित्व की निजता का बोध स्मृति से आता है। चित्त वृत्ति के शेष 4 तत्व प्रमाण, मिथ्याज्ञान, कल्पना और निद्रा स्मृति के हिस्से हैं। विषयों की अनुपस्थिति के कारण निद्रा काल की स्मृति व्यापक नहीं होती तो भी निद्रा याद रहती है। मनुष्य को अपने ऊपर गर्व होता है, कारण स्मृति है। उसका कुल बोध राष्ट्रबोध भी स्मृति के कारण है। विवेक भी स्मृति विश्लेषण का परिणाम है। दर्शन विज्ञान की यात्रा भी स्मृति की सहायता से ही होती है। आश्चर्य की बात नहीं कि गीता सुनने के बाद आखिर में (18वां अध्याय) अर्जुन के मुह से ‘नष्टो मोहा स्मृतिलब्धवा’ शब्द ही निकलते हैं। स्मृति व्यक्तित्व गढ़ती है। अस्मिता भाव जगाती है, स्वयं के होने की अनुभूति पैदा करती है और अहंकार बढ़ाती है। अहंकार को समाज जीवन में गलत माना जाता है लेकिन दर्शन और बोध में वह हमारे विकास का ही एक चरण है। अहंकार का अर्थ है – मैं हूं। अपने होने का अनुभव गलत नहीं हो सकता। मैं हूं स्वयं के विकास की एक मंजिल है और मैं कौन हूं व्यक्तित्व विकास की अगली यात्रा।

मनुष्य व्यक्तित्व का अजब गजब उपकरण है स्मृति। लेकिन पतंजलि द्वारा बताई गई स्मृति पढ़े गए रटे गए शब्दों का ज्ञान नहीं अनुभवों का ही संकलन है। बच्चों के अनुभव कम होते हैं। उनकी स्मृति कम होती है, वे अबोध कहलाते हैं। पागलों की स्मृति खराब हो जाती है वे विक्षिप्त कहलाते हैं। स्मृति ठीक हो तो पिता मां आदर पाते हैं, स्मृति प्रगाढ़ हो तो विश्वामित्र, अथर्वा, कपिल, राम कृष्ण हमारे पूर्वज हो जाते हैं। अनुभूति वाली स्मृति और प्रगाढ़ हो तो आकाश पिता और धरती माता दिखाई पड़ते हैं। यही स्मृति-प्रतीति अनुभूति समग्रता में खिलकर ‘स्व’ को परम का भाग बनाती है और स्वार्थ-परमार्थ बन जाता है। अर्जुन का स्मृति लब्ध भाग्य ऐसा ही है। टी.वी. वाले कथावाचक आत्म निरीक्षण पर बहुत बोलते हैं। वे आत्मा को परमात्मा का तत्व बताते है और उसी के निरीक्षण तथा मुआइने की बाते कहते हैं। सारा मजा अनुभवों से संकलित स्मृति को ध्यान से देखने का है। यह एक जीवन्त और रसमय अनुभव है। स्मृतियां स्वयं में अनुभूतियां हैं। अनुभूतियों के भीतर से होकर एक बार या कई दफा गुजरने की अनुभूति से ही विवेक आता है। स्व-दर्शन बहुत जरूरी है। स्वयं से स्वयं का उध्दार गीता का मर्म है। इसलिए स्वयं की मुलाकात बहुत जरूरी है। स्वयं से स्वयं की भेंट में अवसाद आता है। गीता के रचनाकार का निर्देश साफ है, नात्मनम-अवसादयेत। स्वयं का अपमान मत कीजिए। स्वयं की स्वयं से भेंट अंततः बोध जगाती है। आधुनिक मनुष्य स्वयं के साक्षात्कार से बचता है। वह बोर होता है। बेचैन होता है। मित्रों में जाता है। उदास मित्र अपना-अपना रोना रोते हैं। आध्यात्मिक बीमारी के रासायनिक उपचार खोजे जाते हैं। दारू स्वयं से स्वयं की मुलाकात टालती है सो दारू की खपत बढ़ी है। आधुनिक संगीत भी आत्म साक्षात्कार बचाता है सो संगीत का व्यापार बढ़ा है। देह व्यापार बढ़ा है। आदमी स्वयं से भाग रहा है। वह स्वयं से स्वयं का एनकाउंटर झेल नहीं पाता। पूरी आधुनिक सभ्यता अवसाद और विषाद की गिरच्चत में हैं। लेकिन भारतीय योग और दर्शन में अंदरूनी बीमारियों को अंदरूनी शक्ति से ही ठीक करने का आध्यात्मिक रसायन विज्ञान है। स्वयं का साक्षात्कार जरूरी है। कृष्ण ने बताया है जब मनुष्य इस हिस्से को जीत लेता है, वह परम ऊर्जा से जुड़ जाता है और तब वह सर्दी-गर्मी, सुख-दुख और मान-अपमान में भी उद्विग्न नहीं होता है – ‘शीतोष्ण सुखदुखेषु’ तथा ‘मानापमानयोः’। (वही श्लोक 7)

* लेखक उत्तर प्रदेश विधान परिषद् सदस्य हैं।

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