वरिष्ट होने की बीमारी

बडे होने का अहसास इन्सान को जरूर होना चाहिये किन्तु लोग बडा कहे तब ही आदमी का बडप्पन अच्छा लगता है खुद अपने मुॅह मिॅया मिटठू बनने से सिर्फ जग हसॉई के सिवा कुछ नही मिलता। आज कल हमारे शहर में अर्जी फर्जी कवि, शायर, और कुछ पत्रकार इस रोग से पीड़ित होने के कारण शहर में चर्चित है। उन की अकडी हुई गर्दन देख कर हर कोई उन्हे दूर से ही पहचान लेता है। वरिष्ठता की ये बीमारी टीबी या फिर स्वाइन फ्लू की तरह बहुत खतरनाक भले ही न हो मगर ये सर्दी खॉसी की तरह आम भी नही है। ये बीमारी यू ही हर किसी लल्लू पंजू को नही होती ये सिर्फ उन्ही नाकारा निठल्ले, सुस्त, आलसी लोगो को होती है जिन में बिना संघर्ष किये छल, कपट, घात प्रतिघात, धूतर्ता, ठगी, छीना झपटी, के वायरस गुणो के रूप में होते है जो समाज में अपने इन अवगुण के बल पर मान सम्मान हासिल करना चाहते है। हा इतना जरूर है कि इस बीमारी के कीटाणु जब किसी व्यक्ति विशोष में उत्पन्न होते है तो स्थिति विकट जरूर हो जाती है।

कुछ ज्ञानी महापुरूषो ने इस बीमारी पर गहनता से शौध किया है जिस के परिणाम स्वरूप इस की केवल तीन प्रजातियो का ही पता चला है। सर्व प्रथम इस बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति मुंगेरी लाल की तरह दिन में भी हसीन सपने देखता है और खुद को महान समझने लगता है। उस की गर्दन में अकड़न की शिकायत हो जाती है। धीरे धीरे उस का स्वर बदलने लगता है। अपनी तारीफ लल्लू पंजू यार दोस्तो और अपने इर्द गिर्द घूमने वाले चमचो से कराता है। कुछ अक्ल के अंधे लोग खाने और चाटने की गरज से ऐसे बीमार शायर की तुलना ग़ालिब और मीर से करते है। यदि साहित्यकार है तो दुनिया के बडे बडे साहित्यकारो से यदि वो पत्रकार है तो उसे और उस के घटिया अखबार और समाचारो को आसमान की बुल्दियो तक पहॅुचा दिया जाता है। इस बीमारी के दूसरे चरण में प्रतिष्टता के स्तर पर मामला चला जाता है और सामने वाला इन्सान ऐसे व्यक्ति को हर स्तर में अपने से कम नजर आता है। किसी किसी व्यक्ति में कीटाणु ज्यादा मात्रा में होने के कारण उसे अपने सामने सब छोटे और बौने नजर आते है। इस बीमज्ञरी के अन्तिम चरण में आते आते महानता के कीटाणु उत्पन्न होने के बाद व्यक्ति लाईलाज होने लगता है क्यो कि वरिष्ठता और प्रतिष्ठा के विरूद्व तो लडा भी जा सकता है मगर महानता के आगे हर आदमी मजबूर हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को समाज उस के हाल पर छोड देता है। अन्तिम चरण में आकर ये बीमारी इतनी घातक हो जाती है की ऐसे बीमार व्यक्ति अपने यार दोस्तो और चमचो से संभाले भी नही संभलते।

वरिष्ठता की ऐसी बीमारी से ग्रस्त लोगो को कुछ लोग पागल भी कहने लगते है। जिस तरह की हरकते वो सभ्य समाज में रह कर करने लगते है उस लिहाज से ऐसे व्यक्ति को पागल की उपाधि दी जा सकती है। किन्तु अपनी और अपने चेलो चपाटो की नजर में महान हो चुके ऐसे आदमी पर इस बात का जरा भी असर नही पडता की लोग उसे क्या कह रहे है उस के कानो में तो अपने चमचो द्वारा दिन रात की जा रही अपनी प्रशंसात्मक आवाजे सुनाई देती रहती है अपनी जय जयकार और कारनामो के ख्वाब उसकी ऑखो में भ्रम का मोतियाबिंद आते ही आने लगते है। ऐसा कोई व्यक्ति यदि कभी आप के शहर, गॉव कस्बे में घूमता नजर आये तो कृप्या उसे अन्यथा न ले। क्यो की आज कल ऐसी वरिष्ठता की बीमारी के कीटाणु कुछ लोगो में तेजी के साथ फैलने लगे है।

1 COMMENT

  1. ऐसे ही कुछ लोग राष्ट्रीय नेता का मुकाम हासिल कर जाते हैं और देश को कभी भी हल न होने वाली गंभीर समस्याएं राष्ट्रिय धरोहर स्वरुप दे जाते हैं.
    ऐसे राष्ट्र संतापिओं का क्या किया जाए …..शादाब साहेब -कोई इलाज़ हो तो ज़रूर सुझाइए !

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here