राकेश कुमार सिंह
शबनमी ओश के कण
मोती सदृस्य बिखरे हुये,
कोमलता पारदर्शी,
मुखड़ा तुम्हारा याद आया !
शीतल मंद वायु का झोका,
मौसम अठखेलियाँ करता हुआ,
गुंजार भ्रमरों का सुना तो,
हँसना तुम्हारा याद आया !
चटखती हुई कलियाँ;
महक पुष्पित फिजा की,
निर्गमित आह्लाद बनकर,
पायल छनकाना तुम्हारा,
बरबस हमें याद आया !
उत्कंठा अटल अभिराम सिंचित,
बेदना घायल पलो की,
गंध बनकर रच बस गया,
अंतर्तम का बाँकपन,
फिर से मुझको याद आया !