शहीदे आज़म भगतसिंह

आज हम भारत का ” गणतन्त्र दिवस ” मना रहे हैं । भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जिन्होंने अपने जीवन की बलि चढ़ा दी , जिनके त्याग और बलिदान के कारण ही आज हमें स्वतंत्र भारत के नागरिक होने का गौरव मिला है , उन
शहीदों को आज स्मरण करना हमारा पवित्र कर्त्तव्य है । हम उनको कभी नहीं भूलेंगे ।
वीर भगत तुम हममें ज़िंदा , वीर भगत तुम सबमें ज़िंदा ।
हर देशभक्त में तुम रहोगे , ज़िंदा हो , ज़िंदा ही रहोगे ।।
देशभक्त क्रांतिकारी भगतसिंह , सुखदेव और राजगुरू को 24मार्च 1931 के दिन फाँसी दी जाने की घोषणा ब्रिटिश सरकार ने की थी । किन्तु छलपूर्वक उन्हें २३ मार्च को संध्या साढ़े सात बजे ही फाँसी दे दी गई थी । उनका शव भी परिजनों को नहीं सौंपा । शव के टुकड़े टुकड़े करके , बोरी में भरकर फ़िरोज़पुर लाकर जलाया । कुछ लोगों के आ जाने पर – अधजले टुकड़ों को सतलज नदी में फेंक कर – अधिकारी भाग खड़े हुए थे । गाँव वालों ने आकर उन्हें उठाया था और विधिवत अंतिम संस्कार किया था ।
शहीद भगतसिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को बंगा लायलपुर में सरदार किशनसिंह और विद्यावती जी
के घर हुआ था । इनके परिवार में देशभक्ति की भावना पहिले से ही थी । पिता किशनसिंह ने “भारत सोसाइटी ”
बनाई। उन पर कई मुक़दमें चले थे , ढाई वर्ष जेल में रहे थे । चाचा अजीतसिंह की गतिविधियों से डरकर सरकार ने
उन्हें रंगून भेज दिया था । सन् 1907 में बालगंगाधर तिलक द्वारा उनको सम्मानित किया गया था । यही नहीं , दूसरे चाचा सरदार स्वर्णसिंह ने लाहौर जेल में यातना सहते सहते दम तोड़ा था । वही संस्कार भगतसिंह को भी मिले थे ।
13अप्रैल 1919 में जलियाँवाला बाग़ का कांड सुनकर , 12 वर्ष का बालक भगतसिंह 12 मील पैदल चलकर वहाँ पहुँचा । वहाँ की मिट्टी माथे से लगाई – कुछ शीशी में सहेजी। साथ ही इस जघन्य हत्याकांड का बदला लेने की प्राण-प्रतिज्ञा की । उसके बाद “नौजवान भारत सभा ” बनाई । घर वालों ने विवाह के बन्धन में बाँधना चाहा , तो इनकार कर दिया। कहा – ” मुझे भारत माँ के बंधन काटना हैं ” ।
अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर 3फ़रवरी 1928 को भारत आए ” साइमन कमीशन ” के अधीक्षक सांडर्स को गोली से मार दिया । इसके बाद सेंट्रल असेम्बली सभागार में दो बम फोड़े।बटुकेश्वर दत्त और जतिनदास भी इनके साथी थे । सबने मिलकर वहाँ ” इनक़लाब ज़िंदाबाद ” के नारे लगाए । अपनी पहचान छिपाई नहीं , भागे भी नहीं , वहीं खड़े रहे । ख़ुशी ख़ुशी अपनी गिरफ़्तारी कराई । उन तीनों को जेल हो गई । बम फोड़ने का उनका उद्देश्य किसी की जान लेना नहीं था , वरन् शत्रु को हिलाना था । क्रांति के बिगुल की आवाज़ को अंग्रेज़ों तक पहुँचाना था । मुक़दमा चला। फाँसी की घोषणा हुई ।
उनसे कहा गया , कि वे वायसराय से लिंखित माफ़ी माँग लें , तो सज़ा कम हो सकती है । फाँसी रुक सकती है ।
किन्तु इस विकल्प को उन्होंने अस्वीकार कर दिया था । तरह तरह की कठोर यातनाएँ सहीं । जेल में उन्होंने सबसे
लम्बा 64 ( चौंसठ ) दिनों का अनशन किया था । जतिनदास ने वहीं प्राण त्याग दिये थे ।
फाँसी के पूर्व उनके माता-पिता जेल में उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा -” मेरे जाने पर दु:ख के आँसू आँख
में न लाना । मैं बड़े गर्व से भारतमाँ के चरणों में स्वयं को बलिदान कर रहा हूँ । ” – ” लाल जो खेला तेरी गोदी , डाल दे भारतमाँ की गोदी ।” अपनी अंतिम इच्छा में उन्होंने लिखा था –
” जन्म यहीं पर ( भारत में ) फिर हो मेरा । सेवा-देश धर्म हो मेरा ।।”
और …वीर सेनानी भगतसिंह ने ” भारतमाता की जय , इनक़लाब ज़िन्दाबाद ” कहकर फाँसी के फंदे को गले में पहन लिया । इस तरह शहादत दे दी ।
भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र , मुम्बई के वैज्ञानिक अधिकारी ( पदार्थ संसाधन विभाग में )कवि कुलवंतसिंह
ने ” शहीदे आज़म भगतसिंह ” के नाम से उनकी जीवनी पर एक खंडकाव्य लिखा है , जो बड़ा ओजपूर्ण है । उसमें
क्रांतिकारियों पर किये गए अत्याचारों और यातनाओं के वर्णन को पढ़कर आँखों में आँसू आ जाते हैं । ये काव्य
इंटरनेट पर भी है । उसके कुछ छंद उद्धृत हैं –
“भारत जकड़ा ज़ंजीरों में , कूद पड़े तब हवनकुंड में ।
आन बचाने ये भारत सिंह , राजगुरू ,सुखदेव, भगतसिंह ।।”
*
” क्रान्ति की वेदी पर तर्पण , यौवन फूलों सा कर अर्पण ।
हँसते हँसते न्योछावर थे , जय इनक़लाब के नारे थे ।।”
*
शहीद भगत सिंह ने कहा था –
दिल से न निकलेगी कभी भी , वतन की उल्फ़त मर कर भी ।
मेरी मिट्टी से भी सदा , ख़ुशबुए वतन आएगी ।।
*
ये क्रांतिकारी सदा अमर रहेंगे, जिन्होंने स्वतन्त्रता की बगिया को अपने रक्त से सींचा था । अपने साहस और वीरता से ब्रिटिश साम्राज्य को हिला दिया था । उनके प्रति श्रद्धासुमन सादर समर्पित हैं । उन सभी को हम सभी
भारतीयों का शतश: नमन ।
bhagat-singh-शकुन्तला बहादुर

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