मेरी दृष्टि में ‘शांतिनिकेतन’ – सारदा बनर्जी

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यदि रवीन्द्रनाथ को जानना, समझना और अनुभव करना हो तो ‘शांतिनिकेतन’ सबसे उत्तम स्थान है। रवीन्द्रनाथ जिस विश्व-शांति का उद्घोष शांतिनिकेतन की प्रतिष्ठा द्वारा करना चाहते थे, उस ‘शांति’ को शांतिनिकेतन या बीरभुम की भूमि में, वहां के रम्य वातावरण में सहज ही अनुभव किया जा सकता है। कोलाहल-मुक्त प्रकृति का आस्वाद अभी भी इस भूमि में पाया जा सकता है जिसे कविगुरु ने ‘शांतिनिकेतन’ नाम दिया था और आधिकारिक तौर पर जिसे ‘विश्वभारती’ कहा जाता है। यह सही है कि रवीन्द्रनाथ मूलतः प्रकृति के कवि रहे हैं और यही कारण है कि यदि रवि ठाकुर को महसूस करना है, उनकी प्राकृतिक कविताओं के वास्तविक मर्म को आत्मसात करना है तो बीरभुम की उस प्रकृति में जाना होगा जहां कभी कविगुरु रहा करते थे, जिसके सुरम्य सौंदर्य को भोगा करते थे और जहां घंटों विभोर होकर समय बिताया करते थे। वैसे तो प्रकृति से प्यार करने वालों को प्रकृति के किसी भी रुप में कविगुरु मिल जाते हैं लेकिन जिस प्रकृति को देखकर वे एक सुंदर गाना ही लिख डाले, उस प्रकृति का सौंदर्य कुछ और ही है। बीरभूम का यह मनो-मुग्धकारी स्थान है ‘खोआई’। अभी यह गांव से जुड़ा हुआ है और यहां संथालियों या गांव-वासियों की छोटी-छोटी झोपड़ियां देखने को मिल जाती हैं लेकिन कविगुरु के लिखे गाने से पता चलता है कि जिस समय रवीन्द्रनाथ मौजूद थे शायद उस दौरान यह गांव से अलग एक वीरान जगह थी। गांव को छोड़कर लाल माटी के बने हुए सुंदर पथ से मोहित होकर ही कविगुरु लिख बैठे होंगे , “ग्राम छाड़ा ओई राँगा मांटीर पथ, आमार मोन भुलाए रे……….।”

हां…कविगुरु मोहित हुए थे इसी लाल माटी के बने हुए पथ को शायद घंटो निहारकर। इस पथ से गुज़रते हुए एक तरफ नहर का शांत और सौम्य जल है जो काफ़ी आकर्षित करता है। नहर का यह जल एक आवाज़ करते ‘झोरा’ (छोटी झरना) से बहता हुआ आता है। पथ के दोनों ओर पंक्तिबद्ध लेकिन अपने मिज़ाज में खड़े सोनाझुरी पेड़ दिखाई देते हैं। सुबह की पहली किरण जब इन पेड़ों पर पड़ती है तब लगता है मानो समस्त पेड़ सोने के रंग में रंगकर सोना ही हो उठा हो। लाल पथ के दूसरे तरफ वनस्पतियों का फैला समूचा संसार है। वनस्पतियों के बीच ही एक छोटी थरथराती-कांपती नदी को पार करते हुए कुछ दूरी में ‘खोआई’ दिखाई दे जाता है।‘खोआई’ बांग्ला शब्द है जिसका अर्थ है – ‘ घिसकर कम हो जाना।’ दरअसल दूसरी तरफ से बहने वाला नहर का पानी भीतर से बहता हुआ उल्टे तरफ आता है और मिट्टी घिस-घिसकर अलग-अलग जगहों से बह जाती है और इसके कारण एक असाधारण भास्कर्य की सृष्टि होता आया है। एक विशाल क्षेत्र को लेकर बना यह प्राकृतिक भास्कर्य अपूर्व व अद्वितीय सौंदर्य-संपन्न है। ऐसा लगता है जैसे मिट्टी ने परत-दर-परत घिसते-घिसते अलग-अलग आकार व आकृति में अपना सौंदर्य खोलकर हमारे सामने बिखेर दिया हो। उसी सौंदर्य में वनस्पतियां उगकर अपना अलग स्थान बनाकर मिट्टी की सुंदरता को और अधिक निखार रहा हो। बड़े खोआई के पास फैले अनेकों छोटे-छोटे खोआई भी दूर तक दिखाई देंगे। खोआई के पास ही दूर-दूर तक यूकलेप्टस के अनगिनत पेड़ दिखाई देते हैं।इन यूकलेप्टस के पेड़ों के बीच अनेकों अद्भूत व शहरों में लुप्तप्राय पक्षियों को देख-देखकर मन उमंग से भर उठता है। इस परिवेश को निहारते हुए, महसूस करते हुए केवल कविगुरु के लिखे गाने ही होठों पर आ रुकते हैं।मन होता है कि सोचूं….यह वही जगह है जिसे विश्व-कवि कभी उपभोग किया करते थे,जिसका आनंद हृदय में अनुभव कर उनकी असंख्य कविताएं निसृत हुआ करती थीं। खोआई को देखते-देखते कब कहां किस बांक में कौन-सा विचित्र सौंदर्य देखने को मिल जाए यह कहना मुश्किल है। तभी खोआई पर लिखी कविगुरु की ये पंक्तियां सार्थक लगती है, ‘ओ कोन बांके कि धन देखाबे, कोनखाने कि दाय ठेकाबे, कोथाय गिये शेष मेले जे, भेबेइ ना कुलाय रे आमार मोन भुलाए रे।’

रानी चंद(चोंदो) जो शांतिनिकेतन में शुरु के दिनों की कला-भवन की छात्रा और नंदलाल बसू और रवीन्द्रनाथ की शिष्या थीं, के अनुसार नंदलाल बसू समेत शांतिनिकेतन की छात्र-छात्राएं हर साल खोआई में पिकनिक करने जाया करते थे।इसी से समझा जा सकता है कि खोआई का अपना एक आकर्षण है। रानी चोंदो के अनुसार एक समय नंदलाल बसू के परामर्श से ही विश्वभारती के कला भवन के विद्यार्थी खोआई से मिट्टी जुगाड़ कर ले जाते थे।अंकन के लिए विभिन्न रंगों की मिट्टी से रंग बनाया करते थे, जैसे काली मिट्टी से काला रंग, लाल मिट्टी से लाल रंग आदि। वस्तुतः अवनींद्रनाथ ठाकुर के कहने से ही घर में यानि शांतिनिकेतन में रंग बनाने का सिलसिला शुरु हुआ जिससे कि रंगों के लिए विदेशों पर आश्रित न रहना पड़े।

खोआई में चलते-चलते हल्की धूप मेरे चेहरे पर आ ठहरती है।लाल माटी के पथ से गुज़रने वाले यात्री कभी पैदल सिर पर बोझ लेकर, कभी साइकिल में, कभी गाड़ी या ट्रैक्टर में चकित भाव से हमें देख-देखकर गुज़रने लगते हैं।उनकी आंखों में कौतूहल स्पष्ट दिखाई देता है लेकिन कोई अशालीन भाव-भंगिमा नहीं। ग्रामीण या आदिवासी पुरुषों द्वारा शहरी स्त्रियों को देखकर किया गया कोई अभद्र आचरण या इंगित तो बिलकुल ही नहीं। शायद इसीलिए शांतिनिकेतन दूसरे जगहों से अलग है। ये आदिवासी लोग कर्मरत हैं लेकिन ये शहरी व्यस्तता से कोसों दूर हैं।इन्हें नहीं पता थकान किसे कहते हैं, व्यग्रता किसे कहते हैं, ये काम करते रहते हैं लेकिन व्यस्त होने का शहरी दिखावा नहीं करते।

यूकलेप्टस वन से आगे जाकर शाल-वन मिल जाएंगे। फिर आदिवासियों (संथालियों) का गांव।‘खोआई’ शीर्षक कविता में रवीन्द्रनाथ लिखते हैं, ‘एई शालबोन, एई एकला स्वभाबेर तालगाछ/ ओई सोबुज माठेर संगे रांगा माटिर मिताली..।’ नहर में धीर गति से बहने वाले पानी को निहारते हुए जब मैंने रवीन्द्रसंगीत छेड़ा तो जाने क्यों ऐसा लगा कि रवीन्द्रनाथ मेरे आस-पास ही कहीं है।सच है कि यहीं आकर विश्वकवि को अनुभव किया जा सकता है। यहां की शांत प्रकृति हृदय को आंदोलित करने की क्षमता रखती है।

नहर के उल्टे तरफ छोटे पत्थर हैं जहां बैठ कर आराम किया जा सकता है।कविगुरु को प्रकृति में किसी तरह का बंधन पसंद नहीं था,शायद इसीलिए बाद में खोआई में तीन-चार मुक्त भास्कर्य(पक्षियों के) स्थापित किया गया।दर्शकों के लिए बने इस जगह से कुछ आगे बढ़कर एक शांत छोटी नदी देखने को मिलेगी जो अपनी खूबसूरती में बेजोड़ है।आसपास छोटे खोआई और बीच में लाजवाब मीठी-सी नदी। खोआई में ही एक जगह ‘सुप्रीयो ठाकुर’ का आश्रम मिल जाता है। गांव के लोग इन्हें काफ़ी मानते हैं। खोआई में हर शाम चार बजे से ‘बाउल गान’ होता रहता है।

खोआई से आगे बढ़कर जहां रास्ता खत्म होता है वहां से दाहिने मुड़कर ‘आमार कुठी’ की तरफ जाया जा सकता है।यहां भी स्थानीय लोगों के बाउल गानों के मज़े लिए जा सकते हैं ।पंक्तिबद्ध सफेद सुंदर हंस देखे जा सकते हैं और कोपाई नदी के पास फैले मनमोहक शरदकालीन काश-फूल तो जैसे अपने पास खींचती है। खोआई से लौटते समय बाईं तरफ का रास्ता सीधे ‘कोपाई’ नदी की ओर जा रहा है।विभिन्न वनस्पतियों से भरा यह जगह अपने आप में असामान्य है।यह एक सुंदर नदी है जहां कविगुरु घंटो समय बिताया करते थे।गांववाले इस नदी का भरपूर उपयोग करते हैं। नदी के आस पास विभिन्न तरह के पेड़ दिखाई देते हैं। यह नदी अनेक दूर तक यात्रा करती है और इसका दूसरा छोड़ ‘आमार कुठी’ की तरफ देखा जा सकता है।

शांतिनिकेतन में कविगुरु के घर काफ़ी आकर्षित करते हैं। सुरेन कर (रवीन्द्रनाथ का इंजीनियर) के हाथों बने विभिन्न असाधारण मॉडेल के घर जो रवीन्द्रनाथ के निर्देशन में ही बनाए गए हैं, अपने मौलिक सौंदर्य से भरपूर है। मज़ेदार है सोचना कि रवीन्द्रनाथ तीन महीने से ज़्यादा किसी घर में रहना पसंद नहीं करते थे। वे घर परिवर्तित करते रहते थे और घर बनाने वाला सुरेन था।विभिन्न ऋतुओं के हिसाब से कविगुरु अपने घर का खुद मॉडेल बनाया करते थे। उनके सबसे पहले घर का नाम है ‘कोनार्क’। कोनार्क बेहद सुंदर घर है। कोनार्क से बाहर निकल कर एक शिमुल का पेड़ है जिसके पास कभी ‘माधवी-लता’ उग आया था और कविगुरु इसे ही देखकर एक असाधारण कविता लिखे थे।वो माधवी-लता अभी भी मौजूद है। इसी तरह ‘उदयन’, ‘उदीची’, ‘विचित्रा’, ‘पुनश्च’, ‘श्यामली’ नाम से घर हैं। सबसे अंतिम घर है ‘उदीची’। ‘पुनश्च’ की बनावट बौद्ध स्थापत्य पर आधारित है। सफेद रंग का यह घर आधे खुले आधे बंद तरीके से बना है।यह अद्भूत घर बेहद खींचता है।हर एक घर अपनी मौलिक विशेषता लिए दिखाई देता है।

घरों को देखने के बाद रिक्शा लेकर गेस्ट हाउस लौटते समय एक रिक्शेवाले को सुमधुर बांसुरी बजाते देख और सुन लिया। सुना था कि बीरभुम की भूमि में जगह-जगह प्रतिभाएं फैली हुई है, उस समय वह साक्षात हो गया। यहां लोगों का साधारण स्वभाव है लेकिन आसाधारण प्रतिभा। काश यह साधारण स्वभाव शहरी लोगों के पास भी हुआ होता।

शांतिनिकेतन के पाठ-भवन में पीले पोशाक में घेर कर बैठे छात्र-छात्राएं कितने सुंदर लगते हैं।पेड़ के नीचे सूर्य की स्थिति के अनुसार शिक्षकों की कुर्सियां(पत्थर) बनाई गईं हैं और बिना पंखे के,डेक्स के मिट्टी में बच्चे बैठे हुए हैं। उन्हें कोई शिकायत नहीं, उनमें कोई झल्लाहट नहीं, कोई विरक्ति नहीं। उन्हें शांतिनिकेतन से प्यार है,प्रकृति से आत्मीयता का रागात्मक संबंध है। कितना अच्छा लगता है सोचना कि अभी तक रवीन्द्रनाथ द्वारा बनाए गए नियम यानि मुक्त प्रकृति में पढ़ाई करना, को यहां माना जा रहा है। इसी समय एक दिलचस्प घटना घटी। जब मैं और अनुमिता पेड़ की छांव के नीचे से शांतिनिकेतन को देखते हुए जा रहे थे तो छात्राओं का एक दल जो हमारे साथ ही चल रहा था, अचानक छांव वाला रास्ता छोड़कर हरे मैदान में कड़ी धूप में टहलते हुए चलने लग गए। पहुंचे भी हमारे बाद। मैं हतवाक् देखती रही, समझ नहीं पाई इसका रहस्य कि छांव को छोड़कर कड़ी धूप में कोई टहलते-टहलते कैसे चल सकता है। शायद शांतिनिकेतन की छात्र-छात्राएं प्रकृति को उपभोग करना जानते हैं।

इसके अतिरिक्त शांतिनिकेतन में रामकिंकर बेज के स्थापत्य देखने लायक है। कला-भवन के भीतर ‘कालोबाड़ी’ है जो पूरा काला है लेकिन खूबसूरत स्थापत्य से भरा है। ‘तालभाज’ नाम से एक घर है जिसके बीच में ताड़ का पेड़ खड़ा है।यह मिट्टी का बना घर है। म्यूज़ियम है जहां रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बसू की स्मृतियों का संसार है।विभिन्न देशों से रवि ठाकुर को मिले उपहार संग्रहीत हैं। ‘उपासना गृह’ बेहद सुंदर है लेकिन यह हर समय नहीं खुलता। ‘दोल’(होली), पुस के मेले(पौस-मेला) के समय जब शांतिनिकेतन असाधारण सौंदर्य से भर जाता है और अन्य विशेष अवसरों पर उपासना गृह खुलता है।

ज़्यादातर मामलों में मैंने देखा कि अधिकतर लोग शांतिनिकेतन में आकर म्यूज़ियम और रवीन्द्रनाथ के घर देखकर लौट जाते हैं। लेकिन मेरे अनुसार रवीन्द्रनाथ शांतिनिकेतन और बीरभुम की प्रकृति में रचे-बसे हैं और उसे महसूस करने के लिए रवि ठाकुर के घर के अलावा खोआई ,कोपाई नदी और पूरे इलाके में फैली प्रकृति को देखना ज़रुरी है।बीरभुम की भूमि में फैले वनस्पतियों के संसार से अनुभूत होना ज़रुरी है। बिना प्रकृति के रवीन्द्रनाथ शून्य हैं, इसीलिए रवीन्द्रनाथ को फ़ील करने के लिए प्रकृति में हमें बार-बार लौटना होगा, प्रकृति में जीना होगा। पेड़ों में, लताओं में, नदियों में, बालू में, मिट्टी में, हवा में रवीन्द्रनाथ मिलेंगे। जिस बीरभुम से मोहित होकर वे ज़िंदगी भर के लिए यहां बस गए थे, उसे देखना और देखकर समझना ज़रुरी है। इसलिए मेरे अनुसार प्रकृति के साथ रवीन्द्रनाथ के निविड़तम संपर्क को अनुभव करना ही शांतिनिकेतन को देखना है।

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