शर्म उनको आती नहीं

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हिमकर श्याम

राजनीति जब नकारों के हाथों में चली जाती है तो व्यवस्था का विघटन शुरू हो जाता है। गैरजवाबदेह और निरंकुश व्यवस्था स्थापित हो जाती है। राजनीति की मौजूदा शैली से देश का आर्थिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक ढ़ाँचा चरमराने लगा है और अनिश्चितताएँ बढ़ने लगी हैं। आजादी के छह दशक बाद भी हमारी संस्थाएं और व्यवस्थाएं जनता का कल्याण कर सकने में असफल रहीं हैं। इससे ज्यादा शर्मनाक इस देश के लिए और कुछ नहीं हो सकता है कि इतने दशकों के बाद भी भूख और गरीबी कायम है और देश के संसद के लिए यह बहस का मुद्दा नहीं बन पाया है। लोहिया ने कहा था – लोक-राज लोक-लाज से चलता है। देश की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभालने वाले लोग समय-समय पर जिस तरह बेशर्मी की हदें पार करते नजर आते हैं, उससे लगता है की राजनीतिज्ञों को इन बातों से फर्क नहीं पड़ता है। हमारे नेता लोक-लाज सब छोड़ चुके हैं।

हमारे संविधान ने संसद को सर्वोच्च स्थान दिया है। जनप्रतिनिधि के क्रियाकलापों से ही संसद की गरिमा गौरवान्वित होती है। जनप्रतिनिधियों का काम जनहित से जुड़े मुद्दों पर सदन में चर्चा करना है। जनकल्याण और विकास के लिए जनप्रतिनिधियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है लेकिन विसंगति है कि हमारे जनप्रतिनिधि अपने दायित्वों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। कुछ दशकों से भारतीय संसद में ऐसे दृश्य देखने को मिले हैं जिनसे संसद की गरिमा को ठेस पहुंची है। संसद की कार्यवाही को बाधा पहुँचाने की एक परंपरा सी चल पड़ी है। यही हाल विधानसभाओं का है।

देश की राजनीति ऐसे अनपेक्षित मोड़ पर जा पहुंची है, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। राजनीतिज्ञ घृणा और प्रहसन के पात्र बनते जा रहे हैं। राजनीति और राजनीतिज्ञों से जनता का भरोसा उठ चुका है इसीलिए वह अन्ना हजारे में आस्था जता रही है। सरकार और राजनीतिज्ञों के प्रति गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है। नेताओं पर हो रहे हमले और कृषि मंत्री शरद पवार को सरेआम थप्पड़ जड़ देना इसी गुस्से के इजहार का प्रतीक है। राजनीतिज्ञों को इस पर मंथन करने की आवश्यकता है कि ऐसी स्थिति क्यूं उत्पन्न हुई है। महज अविश्वास प्रस्ताव से इसका हल नहीं निकाला जा सकता है। राजनीति से नफरत और राजनीतिज्ञों पर बढ़ता अविश्वास लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।

ऐसे मौके बहुत कम आते हैं जब संसद में किसी विषय पर शांतिपूर्ण बहस होती हो। अति आवश्यक विधायी कार्य इस शोर के भेंट चढ़ जाते हैं। महत्वपूर्ण मुद्दे धरे के धरे रह जाते हैं। कई महत्वपूर्ण विधेयक या तो लटका दिये जाते हैं या बिना बहस के पारित हो जाते हैं। पिछले कई सत्रों का यही हश्र हुआ। हाल के वर्षों में इस हंगामे और शोर की वजह से आम जनता की आवाज दब कर रह गयी है। हमारे सांसदों का एकमात्र लक्ष्य यही रह गया है कि अब किसी भी मुद्दे पर बहस नहीं होगा, सिर्फ शोर और हंगामा होगा। संसदीय सत्र के दौरान हो हल्ला होना, उठा-पटक, सत्र का बहिष्कार, अध्यक्ष के पास खड़े होकर अशोभनीय शब्दों का प्रयोग आज आम बात हो चुकी है। अध्यक्ष के द्वारा बार-बार किये जानेवाले अनुरोध को भी सहज ढंग से अस्वीकार कर देना संसदीय परम्परा बन गई है।

संसद में शोरगुल और आरोप-प्रत्यारोपों के सिवा कुछ सुनाई नहीं देता। मंहगाई और भ्रष्टाचार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों के प्रति कोई गंभीरता दिखायी नहीं देती। संसद की कार्यवाही न होने से विधायी कार्य बाधित होते ही हैं, देश को करोड़ों रुपये का नुकसान भी होता है। संसद लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करती है। लोगों के कल्याण तथा प्रगति सुनिश्चित करना सांसदों की ही जिम्मेदारी है। सदन चलेगा तो ही ये सब काम हो सकेंगे। हंगामे से लगातार बाधित हो रहे संसद सत्र के बीच लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने सांसदों को आगाह किया है। पूरी दुनिया में संसद या संसदीय संस्थाओं के प्रति कम हो रही लोगों की आस्था का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि फिर से संस्थाओं की प्रतिष्ठा बहाल करना सांसदों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।

मौजूदा सत्र में भी वही हो रहा है जो होता रहा है। शीतकालीन सत्र के शुरूआती दिन हंगामें के भेंट चढ़ गये। इस सत्र में कुछ अति महत्वपूर्ण लोकपाल बिल, माइंस एंड मिनरल बिल, खाद्य सुरक्षा बिल, न्यायिक जवाबदेही बिल, महिला आरक्षण बिल, न्यूक्लियर रेगुलेटरी अथारिटी बिल, उपभोक्ता संरक्षण संशोधन बिल सहित 31 महत्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा होनी है। सांसदों और पार्टियों के रूख से लगता है कि इसमें से एकाध विधेयक भी पारित हो गये तो सरकार के लिए यह बड़ी उपलब्धि होगी। सरकारी एजेंडे में 31 विधेयकों के अलावा 24 नये विधेयक पेश किया जाना है। मौजूदा सत्र के पहले हफ्ते कोई काम नहीं हो सका। संसद में शरद पवार को मारे गये थप्पड़ की गूंज के अलावा बाकी समय शोरगुल ही सुनायी देती रही है। अन्ना के आंदोलन के समय भी अपने सम्मान को लेकर सांसद एकजुट दिखे थे। मानसून सत्र एक अगस्त से आठ सितंबर तक चला था। इसमें 13 विधेयक पेश किये गये] जिनमें 10 पारित हो गये। सांसदों और पार्टियों के रूख से लगता है कि शीतकालीन सत्र भी हंगामें की भेंट चढ़नेवाला है। आम आदमी से जुड़ी समस्याओं और मुद्दों पर सार्थक चर्चा की उम्मीद नहीं है।

विपक्ष ने सत्र शुरू होते ही मंहगाई पर काम रोको प्रस्ताव देकर सरकार की बेचैनी बढ़ा दी है। वामपंथियों के तेवर भी तल्ख हैं। जिन मुद्दों पर विपक्षी शोर मचा रहे हैं, उनमें भ्रष्टाचार, महंगाई प्रमुख हैं। शुरू में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती द्वारा राज्य का विभाजन करने के फैसले पर संसद नहीं चल पाई। वामदल और भाजपा द्वारा संसद में एक बार फिर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को उठाने का प्रयास किया जा रहा है। इस मामले में गृह मंत्री पी. चिदंबरम के इस्तीफे की मांग की जा रही है। कैश फॉर वोट पर भी भाजपा यूपीए सरकार को घेरने के मूड में है । इस बीच खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के खिलाफ संसद से लेकर सड़क तक लामबंदी शुरू हो गई है।

अगले साल पांच राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर मौजूदा सत्र महत्वपूर्ण है। संभवतः चुनाव के पहले यह आखिरी सत्र है। चुनाव में लाभ उठाने की मंशा से कोई भी दल इस मौके गंवाना नहीं चाहता। आमलोगों की निगाहें लोकपाल बिल पर टिकी है। सरकार लोकपाल विधेयक पारित कर टीम अन्ना के विरोध की मुहिम को शांत करने की कोशिश करेगी। इसपर कोई निर्णायक रवैया नहीं अपनाया गया तो टीम अन्ना एक बार फिर सरकार को घेरेगी। ऐसा लगता है कि सत्तापक्ष और विपक्ष अपने राजनीतिक हितों के आगे राष्ट्रीय हितों की परवाह करने से इंकार कर रहे हैं।

संसद की गरिमा को स्थापित करने की जिम्मेवारी हर राजनीतिक दल की है। संसद एक-दूसरे को अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने का नहीं, बल्कि बहस का मंच है। संसद में जारी गतिरोध दूर करने का जितना दायित्व विपक्ष का है उतना ही सत्तापक्ष का भी। शोर शराबे से हल नहीं निकलेगा। लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष की आवश्यकता होती है ताकि सत्ता में बैठा दल या गठबंधन निरंकुश न हो जाए। प्रतिपक्ष को जनहित के मुद्दों की रक्षा के लिए प्रभावशाली ढंग से आवाज उठाने का हक ही नहीं कर्त्तव्य भी है। इस हंगामें में राजनीतिज्ञों को फौरी फायदा जरूर दिख रहा है, पर कल के दिन यह स्थायी नुकसान में भी बदल सकता है।

 

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