केंद्र पर दबाव की सियासत कर रहीं ममता

प्रकाश चण्डालिया

पेट्रोल की कीमतों में हालिया बढ़ोतरी पर ममता बनर्जी की प्रतिक्रिया मीडिया, खासकर पं. बंगाल के मीडिया में सुर्खियों में स्थान पा गयीं, लेकिन जमीनी हकीकत से वास्ता रखने वालों को मालूम है कि उनकी तथाकथित कड़े शब्दों वाली प्रतिक्रिया महज शब्दों की जुगाली है।

ममता बनर्जी यूपीए की सबसे शक्तिशाली साझेदार हैं। उनकी पार्टी के सांसदों की संख्या यूपीए की मजबूती का आधार हैं। दूसरी ओर, पंबंगाल में उनकी पार्टी का शासन पहली बार सत्ता में आया है, और इसमें विधायकों की बौनी संख्या के बावजूद एक सत्य तो है ही कि कांग्रेस उसमें साझेदार है। आंकड़े गवाह हैं कि यदि ममता बनर्जी केंद्र से समर्थन वापस ले ले, तो कांग्रेस हिल जाएगी, लेकिन बंगाल का आलम यह है कि कांग्रेस ममता से समर्थन ले ले तो उनका बाल भी बांका न होगा।

ममता बनर्जी के तेवरों में हालिया बदलाव के मद्देनजर यह सहज ही समझा जा सकता है कि जिस ममता बनर्जी ने एक दौर में लोकसभा स्पीकर पर अपना काला शॉल फेंक मारा था, या अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को हमेशा दबाए रखा था, वे अब थोड़ी समझदारी से राजनीति करती हैं। बंगाल में शासन में आने के बाद ममता बनर्जी में यह बदलाव उऩकी सकारात्मक और मजबूत सोच का परिचायक है। ऐसे में लगता नहीं कि तेल के दाम बढ़ाने पर जो प्रतिक्रिया सामने आयी है, उसमें कोई सचाई है। ममता ने लोक-लिहाज से महंगाई से त्रस्त जनता को खुश करने के लिहाज से बयान दिया है कि इस मसले पर वे दिल्ली जाकर बात करेंगी। जबकि इसके पहले उन्हीं की पार्टी के सांसदों ने कोलकाता में एक बैठक कर पार्टी के निर्णय का अधिकार ममता बनर्जी को दे दिया। चर्चा यहां तक रही कि तृणमूल के सभी प्रतिनिधि केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देंगे।

ममता बनर्जी को मालूम है कि इस्तीफे या केंद्र से हाथ खींचने से उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला। वैसे भी कांग्रेस के संकटमोचक प्रणव मुखर्जी के साथ उनकी केमिस्ट्री खूब जम रही है। वामपंथियों के शासनकाल में बेतरह कंगाल हो चुके राज्य में कर्मचारियों की तनख्वाह का टोटा है। कोलकाता नगर निगम की हालत खस्ता है। ठेकेदारों का समय से भुगतान नहीं हो रहा है। कई विशेष प्रकल्पों का काम इसीलिए बाधित भी हो रहा है।

राजनैतिक धझरातल पर ममता बनर्जी ने गोरखा समस्या को हालिया तौर पर शान्त कर दिया है। जंगलमहल में नक्सली आन्दोलन के खिलाफ वे आक्रामक अभियान का मूड बना रही हैं। लेकिन, सबसे पहली बात है कि आर्थिक रूप से बदहाल राज्य को चलाने के लिए अभी जितने धन की आवस्यकता है, वह ममता को सहोदर विचारों वाला दल ही दे सकता है। वैसे भी अभी लोकसभा का कार्यकाल लम्बा है, ममता बनर्जी का पूरा ध्यान राज्य की राजनीति पर केंद्रित है। उन्हें मालूम है कि केंद्र पर दबाव की राजनीति से ही धन हासिल किया जा सकता है। फकत इसी सोच के चलते उन्होंने केंद्र पर तेल के दाम बढ़ाने को लेकर कड़ी प्रतिक्रिया दी है,लेकिन अन्दरूनी सचाई यह है कि वे केंद्र से पूरी तरह समर्थन वापस लेने जैसा कोई निर्णय नहीं लेंगी। सिंगुर मसले पर जिस तरह उन्होंने टाटा के खिलाफ मोरचा खोला, उससे गरीब जनता ने तालियां जरूर बजायीं, पर इससे औद्योगिक हलकों में ममता की साख घटी ही है।

वामपंथियों के 34 वर्षों के शासन में हड़ताल का पर्याय बन चुके राज्य में अभी औद्योगिक स्तर पर ममता कोई ठोस कदम नहीं उठा सकी हैं। अल्पसंख्यक मतदाताओं को लुभाने के लिए जगह-जगह खातूनी लिबास में दुआ करतीं ममता की तस्वीरें मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित कर सकती हैं, पर ऐसी नौटंकी से राज्य के खजाने में धन नहीं आने वाला।

बंगाल को अभी हजारों करोड़ के धन की आवश्यकता है। दार्जिलिंग को स्विट्जरलैण्ड और कोलकाता को लंदन बनाने का सपना देखने वाली ममता बनर्जी आने वाले दिनों में केंद्र से अधिकाधिक धन प्राप्त करने की योजनाएं बना रही हैं, और तेल के दाम बढ़ाने पर चेतावनी के लहजे में दी गयी धमकी उसी का नतीजा है।

सोनिया गांधी के साथ मजबूत सम्बन्ध ममता बनर्जी की अनमोल धरोहर है। यूपीए में सोनिया गांधी के इशारों और फैसलों से ऊपर कोई नहीं होता, यह ममता बखूबी जानती हैं। और सोनिया राजी रहती हैं, तब तक येन-केन दबाव बनाकर राज्य के लिए धन प्राप्त करना ज्यादा आसान है। केंद्र से समर्थन वापस लेने की बात तो ममता बनर्जी के जेहन में दूर-दूर तक नहीं है। हां, मीडिया के सामने ऐसे बयान देकर सूर्खियों में रहना सहज होता है।

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