श्रावणी मेला में साकार होता है शिव का विराट स्वरूप

-कुमार कृष्णन-
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शिवपुराण में भगवान भोले शंकर के महात्म्य की चर्चा करते हुए उल्लखित है कि जैसे नदियों में गंगा, सम्पूर्ण नदी में शोणभद्र, क्षमा में पृथ्वी, गहराई में समुद्र और समस्त ग्रहों में सूर्यदेव का विशिष्ट स्थान है, उसी प्रकार समस्त देवताओं में भगवान शिव श्रेष्ठ माने गये हैं। प्रत्येक वर्ष श्रावण के पावन महीने में लगनेवाले विश्व प्रसिद्ध श्रावणी मेला अवधि में सुलतानगंज की महिमामयी उत्तर वाहिनी गंगा तट पर स्थित अजगैबीनाथ धाम से लेकर देवघर के द्वादश ज्योतिर्लिंग बाबा बैद्यनाथ धाम के करीब 110 किमी के विस्तार में मानों शिव का विराट् लोक मंगलकारी स्वरूप साकार हो उठता है और समस्त वातावरण कावंरियां शिव भक्तों के जयकारे से गूंजायमान रहता है।

भगवान शंकर, जो देवों के देव महादेव कहलाते हैं, के बारे में धार्मिक मान्यता है कि श्रावण मास में जब समस्त देवी-देवतागण विश्राम पर चले जाते हैं, वहीं भगवान भूतनाथ गौरा पार्वती के साथ पृथ्वी-लोक पर विराजमान रहकर अपने भक्तों के कष्ट-कलेश हरते हैं और उनकी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। ऐसी लोक-आस्था है कि श्रावण मास के दिनों में भगवान शंकर बैधनाथ धाम और अजगैबीनाथ धाम में साक्षात् विद्यमान रहते हैं जहां उनकी अर्चना द्वादश ज्योतिर्लिंग और अजगैबीनाथ महादेव के रूप में होती है। यही कारण है कि औघड़दानी शिव के पूजन हेतु लाखों भक्त सुलतानगंज अजगैबीनाथ धाम और देवधर बैद्यनाथ की ओर उमड़ पड़ते हैं। सुलतानगंज में गंगा उत्तरवाहिनी है, जिसका विशेष महात्म्य हैं। भगवान शंकर को गंगा का जल अत्यंत प्रिय है। और, यदि यह जल उत्तरवाहिनी का हुआ तो अति उत्तम। पौराणिक कथा के अनुसार यहां ऋषि जह्नु का आश्रम था। जब भगीरथ गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर ला रहे थे, तो कोलाहल से क्रोधित होकर ऋषि जहनु ने गंगा का आचमन कर पी लिया। किंतु बाद में भगीरथ के अनुनय विनय करने पर अपनी जंघा से गंगा को प्रवाहित किया जिसके कारण पतित पावनी गंगा जाह्ननवी कहलायी। आनंद रामायण में वर्णित है कि भगवान श्रीराम ने सुलतानगंज की उत्तरवाहिनी गंगा के जल से बैद्यनाथ महादेव का जलभिषेक किया था।

फिर भला भक्तगण कैसे चूकते। और, चल पड़ा परिपाटी सुलतानगंज से उत्तरवाहिनी गंगा का जल कांवर में लेकर बाबा बैद्यनाथ पर अर्पित करने की। श्रावण के महीने में सुलतानगंज से देवघर तक करीब 100 कि0 मी0 के विस्तार में कांवरियां तीर्थयात्रियों के कावंरों में लचकती मचलती गंगा मानों बहती-सी जाती हैं- जैसे दो -दो गंगा बहती है श्रावण में- एक कांवरों में सवार होकर देवघर की ओर, और दूसरी अविरल वहती हुई बंगाल की खाड़ी की ओर। ऐसा चमत्कार तो सिर्फ भगवान भोले शंकर ही कर सकते हैं। इतना ही नहीं, श्रावण मास में बारिश की रिम-झिम फुहारो के साथ-साथ बसंत ऋतु की अलौकित छंटा भी अजगैबीनाथ सुलतानगंज और सम्पूर्ण कावंरियां-पथ पर देखने को मिलती है। मेले में लगी दूकानों में सुलतानगंज में कावंरों में लगे प्लास्टिक के लाल, पीले, हरे, गुलाबी खिले-खिले फूल अनुपम दृश्य उपस्थित करते हैं- लगता है मानों सावन में बसंत का आगमन हो गया हैं। ऐसा तो सिर्फ शिव की कृपा से ही संभव है। श्रावण मास में सुलतानगंज से बैद्यानाथ की कांवर-यात्रा मात्र एक धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं, वरन् इसके पीछे हमारी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक मान्यताएं भी छिपी हुई हैं। यदि हम पौराणिक संदर्भ लें तो वह कावंड़-यात्रा आर्य और अनार्य संस्कृतियों के मेल और संगम को दर्शाता है। कहां आर्य मान्यताओं की देवी गंगा और कहां अनार्यो के देव महादेव पर गंगा-जल का पर अर्पण आर्य और अनार्य संस्कृतियों के काल क्रम में हुए समागम को दर्शाता है। इसी तरह आर्यो के देव श्रीराम के द्वारा सुलतानगंज की उत्तरवाहिनी गंगा को कांवर में लेकर बैद्यनाथ महादेव का पूजन इसी भाव को इंगित करता हैं।

सुलतानगंज से देवघर की कांवर-यात्रा मात्र एक धार्मिक यात्रा ही नहीं वरन् शिव और प्रकृति के साहचर्य की यात्रा है। कांवर-मार्ग में हरे-भरे खेत, पर्वत, पहाड़, घने जंगल, नदी, झरना, विस्तृत मैदान-सभी कुछ पड़ते हैं। रास्ते में जब वारिश की बौछारें चलती हैं तो बोल बम का निनाद करते हुए कावंरिया भक्तगण मानों भगवान शंकर के साथ एकाकार हो उठते हैं। देवघर में जल अर्पण करके लौटते समय न सिर्फ धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से अपने को परिपूर्ण पाता है, वरन् प्रकृति के सीधे साहचर्य में रहने के कारण वह अपने अंदर एक नयी उर्जा और उत्फूल्लता महसूस करता है। आज के प्रदूषण के युग में अभी भी प्रकृति के पास मनुष्य को देने के लिये बहुत कुछ है- यह संदेश श्रावणी मेला की कावंर यात्रा देता है जो इसमें शामिल होकर ही महसूस किया जा सकता है। जल शांति, स्वच्छता और जीवन का प्रतीक है-शीतलता से भरा हुआ। भगवान शंकर पर जल का अर्पण हमें शांति और शीतलता का ही तो संदेश देता प्रतीत होता है। इस धार्मिक उन्माद के युग में आज निहित स्वार्थी तत्वों ने आडंबर और वृहत् अनुष्ठानों की आड़ लेकर धर्म को धन-बल प्रदर्शन का साधन बना लिया है। वहीं श्रावण में शिव यह संदेश देते हैं कि मुझपर सिर्फ गंगा जल और बेलपत्र चढ़ाओ, और वरदान में मुझसे जीवन की सारी खुशियां ले जाओ। आज के मार-काट के दौर में भी बैद्यनाथ-धाम मंदिर से सटी दूकानों में हमारे मुसलमान भाई सुहाग की चूड़िया बेचते हैं बाबा के रंग में रंगकर। आज के इस अपहरण-अपराध के दौर में भी देवघर के कैदी प्रतिदिन बाबा बैद्यनाथ पर अर्पित होनेवाले फूलों के श्रृगांर बनाते हैं और जेल से बाबा मंदिर तक बम भोले का जयकारा करते हुए प्रतिदिन आते हैं। कांवर-मार्ग पर कोई छोटा-बड़ा नहीं-सिर्फ बम है-बड़ा बम, छोटा बम, मोटा बम, माता बम,! न अमीर-न गरीब, न उच-न नीच! बस बम शंकर के भक्त बम! बोल बम। शिव का स्वरूप विराट् है दृ इसका कोई आर-पार नहीं । और उनका यह विराट् स्वरूप मानों श्रावणी मेला में साकार हो जाता है।

महाकुंभ से कम नहीं देवधर का श्रावणी मेला

श्रावणी मेले के दिन करीब आते ही शिवभक्तों के मन में बाबा के दर्शन की उमंगें हिलोरे लेने लगी हैं। आषाढ़ पूर्णिमा के अगले दिन से ही यह मेला प्रारंभ हो जाता है। जलाभिषेक के लिए देशभर से शिवभक्तों की भीड़ उमड़ती है।वैसे कुछ वर्ष पहले तक सोमवार को जल चढ़ाने की जो होड़ रहती थी, वह अब उतनी नहीं है। सवा महीने तक चलने वाले इस मेले में अब हर रोज कांबडियों की भीड़ लाख की संख्या पार कर जाती है। इस अर्थ में यह किसी महाकुंभ से कम नहीं है। झारखंड के देवघर में लगने वाले इस मेले का सीधा सरोकार बिहार के सुलतानगंज से है। यहीं गंगा नदी से जल लेने के बाद बोल बम के जयकारे के साथ कांवड़िये नंगे पांव देवघर की यात्रा आरंभ करते हैं।

आज के बदले परिवेश में संतोषम परम सुखम जैसी अवधारणा ध्वस्त हो गई है। सुख-सुविधा के प्रति सबकी लालसा बढ़ी है। इसे हासिल करने के उपायों में देवी-देवताओं की पूर्जा-अर्चना को भी महत्व प्राप्त हुआ है। आस्थावान लोगों की संख्या में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी के पीछे मनोकामनापूर्ति की यही लिप्सा काम कर रही है। ऐसे में देवघर स्थित शिवलिंग का अपना खास महत्व है क्योंकि शास्त्रों में इसे मनोकामना लिंग कहा गया है। यह देश के 12 अतिविशिष्ट ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। यह वैद्यनाथ धाम के नाम से भी जाना जाता है। दरभंगा कमतौल के मूल निवासी अनिल ठाकुर पिछले 25 वर्षों से कांवड़ लेकर देवघर जाते हैं और इस बार भी वह अभी से तैयारी में जुट गए हैं और ऐसे शिवभक्तों की संख्या हजारों में है जो बीस-पचीस वर्षों से हर वर्ष कांवड़ लेकर बाबा के दरबार पहुँचते हैं। ऐसे शिवभक्त अपनी तमाम कामयाबी का श्रेय शिव को देते हैं।

देवघर के इस श्रावणी मेले के साथ बाजार का अर्थशास्त्र भी जुड़ा है। ऐसे कई उद्योग हैं जिन्हें जीवित रखने के लिए अकेले यह मेला काफी है। कांवड़ियों के लिए कुछ वस्तुएँ साथ ले जाना आवश्यक होता है। इसमें टॉर्च, नया कपड़ा मसलन गंजी और बनियान, तौलिया, चादर, दो जल पात्र, अगरबत्ती के आठ-दस पैकेट, मोमबत्ती, माचिस आदि। एक कांवड़िया कम से कम डेढ़ हजार रुपए की खरीदारी करता है। श्रावणी मेले में सुल्तानगंज से गंगा जल लेकर प्रस्थान करने वाले कांवडि़यों की संख्या सवा महीने में पचास लाख के करीब पहुंच जाती है। इसमें लगातार वृद्धि हो रही है। इस तरह सिर्फ श्रावणी मेले में सात सौ करोड़ की खरीदारी इन वस्तुओं की होती है। इसके अलावा रास्ते में चाय, ठंडे पेय, खाद्य आदि पर भी प्रति कांवड़िया चार से पांच दिन में पांच सौ रुपए खर्च आता है। देवघर में जलाभिषेक के बाद पेड़ा, चूड़ी, सिंदूर और अन्य सामग्री की कम से कम इतने की ही खरीदारी की जाती है यानी श्रावणी मेले का अर्थशास्त्र कुल मिलाकर करीब ग्यारह हजार करोड़ का है। सुलतानगंज से देवघर की दूरी 98 किलोमीटर है। इसमें सुइया पहाड़ जैसे दुर्गम रास्ते भी शामिल हैं, जहां से नंगे पांव गुजरने पर नुकीले पत्थर पांव में चुभते हैं मगर मतवाले शिवभक्तों को इसकी परवाह कहां रहती है। धर्मशास्त्रों में शिव के जिस अलमस्त व्यक्तित्व का वर्णन है, कमोवेश उनके भक्त कांवड़ियों में भी श्रावणी मेले में यह नजर आता है। वैसे हठयोगी शिवभक्तों की भी कमी नहीं है।

इतनी लंबी दूरी तक दंड प्रणाम करते पहुंचने वाले शिवभक्तों की कमी नहीं है। वहीं एक ही दिन में इस यात्रा को पूर्ण करने वाले भी हजारों में हैं। देवघर के धार्मिक पर्यटन के लिए उमड़ रहे सैलाब पर बिहार सरकार का रवैया भी खानापुरी का है।वैसे यह विडंबना ही है कि जिस धार्मिक मेले से करोड़ों की आमदनी विभिन्न औद्योगिक घराने करते हैं, वे कांवरिया पथ में सुविधाएँ मुहैया कराने पर पाँच पैसे भी खर्च नहीं करते।

श्रावणी मेले में इधर के कुछ वर्षों में बड़ी तब्दीलियाँ आई हैं। बीस वर्ष पहले तक कांवड़ लेकर पदयात्रा करने वालों में मध्य आयु वर्ग के पुरुषों की संख्या ज्यादा होती थी लेकिन अब ऐसी बात नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं और नौजवानों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। धार्मिक आस्था और गहरी होने के अलावा इसमें एक अलग तरह के पर्यटन का आनंद भी है। घर-परिवार और इलाके से इतर प्राकृतिक सुंदरता से लैस रास्तों में चार-पाँच दिन पैदल चलने पर नौजवानों को पिकनिक का मजा भी मिल जाता है तो कुछ साहसपूर्ण करने की अनुभूति भी मिलती है। महिलाएं जिस तरह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं, उसी अनुपात में उनमें धर्म-कर्म के प्रति भी चेतना पैदा हुई है। अगर पुरुष शिव के दरबार में अपनी मन्नतें मांगने पहुंच सकते हैं तो औरतें क्यों नहीं? वैसे भक्तों की भीड़ में मनचले युवकों के शामिल होने से अराजकता की स्थिति भी पैदा होने लगी है। इसके अलावा सुलतानगंज से देवघर तक भीड़ बढ़ने के कारण उसके संचालन की चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। देवघर में श्रावणी मेले के दौरान कांवडि़यों की सात से आठ किलोमीटर लंबी कतार लग जाती है। घंटों खड़ा रहने के बाद कुछ पल के लिए मंदिर में प्रवेश मिलता है।

आस्था का प्रतीक बन चुकी है कृष्णा बम

वैसे तो सावन में लाखों लोग बिहार के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल भरकर 105 किलोमीटर की पदयात्रा कर झारखंड के देवघर स्थित बाबा वैद्यनाथ का जलाभिषेक करने पहुंचते हैं, लेकिन 60 वर्षीय एक महिला पिछले 35 वर्षों से सावन में प्रत्येक रविवार को सुल्तानगंज से पदयात्रा कर सोमवार को शिव के दरबार में पहुंचती हैं। बिहार की मुजफ्फरपुर की रहने वाली कृष्णा रानी जो एक शिक्षिका हैं, अब मां कृष्णा बम बन गई हैं। उन्हें देखने और उनसे आर्शीवाद लेने के लिए रास्ते में हजारों लोग पंक्तिबद्ध खड़े रहते हैं। सावन के प्रत्येक सोमवार को कृष्णा डाक बम के रूप में देवघर पहुंचती हैं और बाबा वैद्यनाथ का जलाभिषेक करती हैं।

डाक बम उसे कहा जाता है जो गंगाजल भरकर लगातार चलते हुए 24 घंटे के अंदर शिव के दरबार में पहुंचता है। यह संकल्प सुल्तानगंज में ही जल भरते समय लिया जाता है। डाक बम कृष्णा बताती हैं कि वह सावन के प्रत्येक रविवार को दोपहर ढ़ाई से तीन बजे के बीच सुल्तानगंज की उत्तरवाहिनी गंगा से जल उठाती हैं और देवघर तक का सफर 12 से 14 घंटे में पूरा कर बाबा के दरबार में पहुंच जाती हैं। इस दौरान पूरा रास्ता बोल बम और कृष्णा बम के नारे से गुंजायमान होता रहता है।

इस क्रम में बाबा के भक्त कृष्णा बम के दर्शन के लिए लालायित रहते हैं. सुल्तानगंज, तारापुर, रामपुर नहर, कटोरिया और सुइया पहाड़ क्षेत्र में कृष्णा बम को देखने के लिए भक्तों की लंबी कतार लगी रहती है. रास्ते में सुरक्षा के लिए पुलिस की व्यवस्था भी रहती है। कृष्णा बम ने बताया कि वह लगातार 35 वर्षों से हर सावन में देवघर आ रही हैं। वैशाली के प्रतापगढ़ में जन्मी कृष्णा रानी इस समय मुजफ्फरपुर के एक विद्यालय में शिक्षिका हैं। वह कहती हैं कि विवाह के बाद उनके पति नंदकिशोर पांडेय कालाजार से पीडि़त हो गए थे। दिनोंदिन उनकी हालत खराब होती जा रही थी। तब उन्होंने संकल्प लिया कि पति के ठीक होने पर वह कांवड़ लेकर हर साल सावन में बाबा वैद्यनाथ का जलाभिषेक करेंगी. भगवान शिव ने उनकी प्रार्थना सुन ली। कृष्णा को सुल्तानगंज से देवघर के बीच सावन में लगने वाले श्रावणी मेले को राष्ट्रीय मेला घोषित नहीं किए जाने का मलाल है। बकौल कृष्णा, वह साइकिल से 1900 किलोमीटर तक की वैष्णो देवी की यात्रा भी कर चुकी हैं। इसके अलावा हरिद्वार से बाबाधाम, गंगोत्री से रामेश्वरम और कामरूप कामख्या की भी यात्रा साइकिल से कर चुकी हैं। वह कहती हैं, अगर भगवान के प्रति समर्पण की भावना हो तो खुद भक्त में शक्ति आ जाती है। इसके लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती। मैं खुद को भगवान शिव के हवाले कर चुकी हूं और आज जो भी कर रही हूं, वह भगवान की कृपा से। मुझे मेरे पति और पूरे परिवार का सहयोग मिलता है।

बाबा बासुकीनाथ जहां लगती है फौजदारी अदालत

तीर्थ नगरी देवधर स्थित द्वादश ज्योर्तिलिंग बाबा बैधनाथ और सुलतानगंज की उत्तर वाहिनी गंगा तट पर स्थित बाबा अजगैबीनाथ के साथ दुमका जिला में सुरभ्य वातावरण में स्थित बाबा बासुकीनाथ धाम की गणना बिहार और झारखंड ही नहीं, वरन् राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुख शैव-स्थल के रूप में होती है। देवघर-दुमका मुख्य मार्ग पर स्थित इस पावन धाम में श्रावणी- मेला के दौरान केसरिया वस्त्रधारी कांवरिया तीर्थयात्रियों की खास चहल-पहल रहती हैं। ऐसी मान्यता है कि बासुकीनाथ की पूजा के बिना बाबा बैद्यनाथ की पूजा अधुरी है। यही कारण है कि भक्तगण बाबा बैद्यनाथ की पूजा के साथ साथ यहां आकर नागेश ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात बाबा बासुकीनाथ की अराधना करते हैं। सावन के महीने में तो हजारों दृ लाखों भक्तगण सुलतानगंज-अजगैबीनाथ से उत्तरवाहिनी गंगा का पवित्र जल अपने कांवरों में भरते हैं। फिर एक सौ किलोमीटर से भी अधिक पहाड़ी जंगली रास्ते पैदल पारकर इसे देवघर में बैधनाथ ज्योतिर्लिंग पर चढ़ाते हैं। इसके बाद वे बासुकीनाथ आकर नागेश ज्योतिर्लिंग पर जल-अर्पण करते हैं। भगवान शिव औघड़दानी कहलाते हैं। भक्तों की भक्ति से प्रसन्न होकर तुरंत वरदान देनेवाले। तभी तो शिवभक्तों की नजरों में यहां भगवान शंकर की अदालत लगती है। शिव-भक्त मानते हैं कि जहां (बैद्यनाथ धाम) भगवान शंकर की दीवानी अदालत है, वही बासुकीनाथ धाम उनकी फौजदारी अदालत है। बाबा बासुकीनाथ के दरबार में मांगी गयी मुरादों की तुरंत सुनवाई होती है। यही कारण है कि साल के बारहों महीने यहां देश के कोने-कोने से भक्तों का आवागमन जारी रहता है।

प्राचीन काल में बासुकीनाथ घने जंगलों से घिरा था। उन दिनों यह क्षेत्र दारूक-वन कहलाता था। पौराणिक कथा के अनुसार इसी दास्क-बन में द्वादश ज्योतिर्लिंग स्वरूप नागेश्वर ज्योतिर्लिंग का निवास था। शिव पुराण में वर्णित है कि दारूक-बन दारूक नाम के असुर के अधीन था। कहते हैं, इसी दारूक-बन के नाम पर संताल परगना प्रमंडल के मुख्यालय दुमका का नाम पड़ा है। बासुकीनाथ शिवर्लिंग के आविर्भाव की कथा अत्यंत निराली है। एक बार की बात है- बासु नाम का एक व्यक्ति कंद की खोज में भूमि खोद रहा था। उसके शस्त्र से शिवलिंग पर चोट पड़ी। बस क्या था- उससे रक्त की धार बह चली। बासु यह दृश्य देखकर भयभीत हो गया। उसी क्षण भगवान शंकर ने उसे आकाशवाणी के द्वारा धीरज दिया दृ डरो मत, यहां मेरा निवास है। भगवान भोलेनाथ की वाणी सुन बासु श्रद्धा-भक्ति से अभिभूत हो गया और उसी समय से उस लिंग की मूर्ति्त-पूजन करने लगा। बासु द्वारा पूजित होने के कारण उनका नाम बासुकीनाथ पड़ गया। उसी समय से यहां शिव-पूजन की जो परम्परा शुरू हुई, वो आज तक विद्यमान है। आज यहां भगवान भोले शंकर और माता पार्वती का विशाल मंदिर है। मुख्य मंदिर के बगल में शिव गंगा है जहां भक्तगण स्नान कर अपने आराध्य को बेल-पत्र, पुष्प और गंगाजल समर्पित करते हैं तथा अपने कष्ट क्लेशों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं।

भगवान भोले शंकर की महिमा अपरंमपार है। वे देवों के देव महादेव कहलाते हैं। वे व्याघ्र चर्म धारण करते हैं, नंदी की सवारी करते हैं, शरीर में भूत-भभूत लगाते हैं, श्माशान में वास करते हैं, फिर भी औघड़दानी कहलाते हैं। दिल से जो कुछ भी मांगों, बाबा जरूर देगे। जैसे भगवान भोले शंकर, वैसे उनके भक्तगण! बाबा हैं कि उन्हें किसी प्रकार के साज-बाज से कोई मतलब नहीं, और भक्त हैं कि दुनिया के सारे आभूषण और अलंकार उनपर न्यौछावर करने के लिये तत्पर! अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिये! भक्त और भगवान की यह ठिठोली ही तो भारतीय धर्म और संस्कृति का वैशिष्ट्य है। श्रावण मास में शिव पूजन के अलावा यहां की महाश्रृगांरी भी अनुपम है। कहते हैं कि कलियुग में वसुधैव कुटुम्बकम तथा सर्वे भवंतु सुखिनः जैसी उक्तियों को प्रतिपादित करने के लिये शिव की उपासना से बढ़कर अन्य कोई मार्ग नहीं हैं! और, शिव की उपासना की सर्वोत्तम विधि है – महाश्रृगांर का आयोजन! गंगाजल घी, दूध दही, बेलपत्र आदि शिव की प्रिय वस्तुओं को अर्पित कर उन्हें प्रसन्न करने का सबसे उत्तम उपाय। तभी तो साल के मांगलिक अवसरों पर भक्तगण बाबा बासुकीनाथ की महाश्रृगांरी और महामस्तकाभिषेक का आयोजन करते हैं। महाश्रृंगार के दिन बासुकीनाथ की शिव-नगरी नयी-नवेली दुलहन की तरह सज उठती है-मानों स्वर्ग पृथ्वी पर उतर आया हो। लगता है दृदेव -लोक के सभी देवी दृ देवता पृथ्वी-लोक पर अवतरित हो गये हैं- भगवान भूतनाथ की रूप-सज्जा देखने के लिये। आये भी क्यों नहीं। देवों के देव महादेव की महाश्रृगांरी जो है।

शिव का स्वरूप विराट् है। किंतु इनकी आराधना अत्यंत सरल भी है और कठिन भी। इनकी महाश्रृंगारी तो और भी कठिन। आखिर जगत के स्वामी के महाश्रृगांर की जो बात है। इस हेतु साधन जुटायें भी तो कैसे। पर, भगवान की लीला की तरह भक्तों की भक्ति भी न्यारी होती है। शिव की आराधना में उनके श्रृंगार हेतु भक्त मानों अपनी सारी निष्ठा ही लगा देते हैं। और, शिव की स्रष्टि की श्रेष्टतम् सामग्रियां लाकर शिव को ही समर्पित करतें हैं।
बासुकीनाथ धाम के निकट ही एक अन्य महत्त्वपूर्ण शैव-स्थल स्थित है। त्रिकुटेश्वर महादेव! श्रावण में देवघर और बासुकीनाथ की तरह यहां भी बड़ी संख्या में भक्त दर्शन को आते हैं। देवघर-बासुकीनाथ पथ पर देवघर से 17-18 किलोमीटर पूरब यह एक ऐसा शैव-स्थल है जो न सिर्फ धार्मिक दृष्टि से वरन् आध्यात्मिक एवं अकूत प्राकृतिक सम्पदा तथा पर्यटन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। यह स्थल है भगवान शंकर के शीश पर शोभित होने वाले चन्द्रमा के आकर वाला त्रिकुटी पर्वत जिसके ब्रहमा, विष्णु और महेश नामक शिखर की गुफा में विराजते हैं त्रिकुटेश्वर महादेव जो कि लंकापति रावण के द्वारा स्थापित बताये जाते हैं और इस कारण रावणेश्वर बैद्यनाथ की तरह पूज्य और कल्याणकारी हैं। जिस तरह देवाधिदेव महादेव की जटाओं से गंगा की अविरल धारा बहती है, ठीक उसी तरह शिव की जटाजूट की तरह हरे-भरे वृक्षों और लता-पादपों से आच्छादित त्रिकुट-पर्वत की गोद से मयूर की ऑखो की तरह सुन्दर और झिलमिल संताल परगना की प्रमुख नदियों में से एक मयूराक्षी की उदगम होता है।

त्रिकुटेश्वर महादेव की महिमा निराली है। द्वादश ज्योतिर्लिग बैद्यनाथ धाम और शिव भक्तों की मनोकामना पूर्ति्त की दीवानी अदालत बाबा बासुकीनाथ के मध्य स्थल पर विराजनेवाल त्रिकुटेश्वर महादेव कल्याणकारी हैं। द्वादश ज्योतिर्लिंग बाबा बैद्यनाथ और नागेश्वर ज्योतिर्लिंग बाबा बासुकीनाथ के साथ त्रिकुटेश्वर महादेव का दर्शन और पूजन-अर्चन अत्यंत फलदायी है तथा ह्दय को तृप्त करनेवाला है।

देवधर के पेड़े का अंदाज ही निराला

श्रावणी मेला शुरू हो और देवघर के पेड़े की चर्चा न हो, ऐसा हो नहीं सकता। मेले में मुख्य रूप से बिकने वाली वस्तुओं में बाबा धाम का प्रसाद पेड़ा, चूड़ा, इलायची दाना, सिंदूर, चूड़ी के साथ-साथ लोहे के बर्तन एवं खिलौने काफी प्रसिद्ध हैं।बाबा धाम के पेड़े का क्या कहना! इसका स्वाद बिल्कुल अलग होता है। इसका नाम सुनते ही लोगों के मुंह में पानी आने लगता है. पेड़ खाते ही लोग समझ जाते हैं कि यह देवघर का पेड़ा है। बाबा धाम आने वाले श्रद्धालु निश्चित रूप से पेड़े की खरीदारी करते हैं. प्रमुख दुकानदारों के अनुसार, पिछले वर्ष श्रावणी मेले के दौरान 20 से 22 करोड़ रुपये का पेड़ा बिका। दुकानदार पेड़ा बनाने के लिए उत्तर प्रदेश एवं बिहार से लाखों क्विंटल खोया मंगवाते हैं। इससे रेलवे को काफी आमदनी होती है। इसके अलावा इलायची दाना एवं पतला चूड़ा भी श्रद्धालु अवश्य खरीदते हैं। इलायची दाना एवं चूड़ा की कुल अनुमानित बिक्री आठ से नौ करोड़ रुपये आंकी गई है। इसका उत्पादन स्थानीय लघु एवं कुटीर उद्योगों में होता है, जहां सैकड़ों मजदूर दिन-रात काम में लगे रहते हैं। पूजा-अर्चना के बाद श्रद्धालु चूड़ी, लहठी एवं बाबा धाम का सिंदूर भी खरीदते हैं। चूड़ी, लहठी एवं सिंदूर की कुल अनुमानित बिक्री लगभग 20 करोड़ रुपये की है। चूड़ी व्यापारी महीनों पूर्व राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों से चूड़ी खरीद कर लाते हैं. सिंदूर का उत्पादन भी स्थानीय कुटीर उद्योगों में होता है। व्यापारी सिंदूर के लिए कच्चा माल निकटवर्ती राज्य बिहार के लखीसराय से मंगाते हैं। सिंदूर उत्पादन में सैकड़ों मजदूर तीन महीने तक दिन-रात लगे रहते हैं। वंदना, शिवम, बेलपत्र, शिव-पार्वती एवं घूंघट आदि सिंदूर के प्रमुख ब्रांड हैं। बाबा वैद्यनाथ धाम का नजारा इन दिनों देखते ही बनता है। रेलमपेल भीड़, कतारबद्ध दुकानें, आवाज लगाते दुकानदार और मोलभाव करते लोग। सब कुछ इतना अच्छा लगता है, मानो समय कुछ पल के लिए रुक गया हो।मेले के दौरान करोड़ों रुपये का कारोबार होता है. इस एक महीने की कमाई से व्यापारी साल भर बैठकर खाते हैं।

परंपरानुसार काफी संख्या में श्रद्धालु बाबा धाम से लोहे के बर्तन भी खरीदते हैं, जिनमें कड़ाही, खल-मूसल एवं छलनी आदि शामिल हैं। व्यापारियों के अनुसार, मेले में लगभग दस करोड़ रुपये से अधिक के लोहे के बर्तन बिक जाते हैं। इसके अलावा खिलौने, सौंदर्य प्रसाधन की सामग्री एवं बच्चों के कपड़ों की भी अनुमानित बिक्री दो से तीन करोड़ रुपये है। हजारों स्थायी एवं अस्थायी दुकानें 24 घंटे श्रद्धालुओं के लिए खुली रहती हैं, जहां हजारों कर्मचारी एवं दुकान मालिक उनकी सेवा में लगे रहते हैं।

मेले में भोजनालय एवं विश्रामालय से भी 20 से 30 करोड़ रुपये की आमदनी होती है। इसके अलावा निजी बसों, छोटे चार पहिया-तिपहिया वाहनों का परिचालन भी 24 घंटे होता है। इनसे लगभग दस करोड़ रुपये की आमदनी होती है। राज्य पथ परिवहन को भी लाखों की कमाई होती है। व्यापार जगत से जुड़े लोगों के मुताबिक, व्यापारी सिर्फ श्रावणी मेले की कमाई से साल भर आराम से जीवनयापन करते हैं। श्रावणी मेले से जुड़ी आमदनी में बाबा के मंदिर से जुड़े पंडों को यजमानों से मिलने वाली दक्षिणा को नजरअंदाज करना बेमानी होगी, क्योंकि पंडों को दक्षिणा स्वरूप करोड़ो रुपये की आमदनी होती है। श्रावणी मेले में अधिकांश व्यापारी स्थानीय होते हैं। कुछ बाहरी दुकानदार भी यहां अस्थायी दुकानें लगाते हैं. लगभग एक हजार रिक्शा एवं ठेला चालक भी मेले के दौरान सक्रिय रहते हैं।

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