जेएनयू से देशद्रोह का जो संदेश निकलकर आया उसके पीछे कौन है और इसने देश का क्या नुकसान किया ये जानना और उस पर क्रिया व प्रतिक्रिया सामने आना लाजमी है, पर देश इसके बाद जो तमाशा देख रहा है यकीन जानिए उससे पूरा देश आहत है। पर हैरत की बात यह है कि सिर्फ राजनीति ही कुछ लोगों के लिए महत्वपूर्ण है और वो देश के सम्मान से जुड़े इस मसले पर भी राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे हैं इससे ज्यादा शर्मनाक और कुछ नहीं हो सकता। सवाल उठ रहा है कि देश के खिलाफ नारे लगाने वाले जेएनयू के छात्र नहीं है यह एबीपी का षडयंत्र है या कुछ और पर जो मुख्य सवाल है वह कहीं पीछे छूट रहा है और वह यह है कि आखिर ऐसा हुआ तो कैसे? कौन थे वो जो देशद्रोही नारे लगाकर भारत को बर्बाद करने की कामना कर रहे हैं। यह किसी भी संगठन से ताल्लुक रखते हो, इनका मंसूबा कोई भी हो लेकिन इनके ऊपर कार्रवाई न करने की हिमायत किसी भी ओर से नहीं की जा सकती। यह जो नारे थे उसमें कुछ लोग केरल को आजाद कराना चाहते थे, कश्मीर की आजादी की बात कर रहे थे और भारत की बर्बादी की कामना कर रहे थे। इस सब ने एक प्रश्र हमारे सामने लाकर खड़ा कर दिया है और वह प्रश्र यह है कि राजनीति चाहे इस पक्ष से हो रही हो चाहे उस पक्ष से हो रही हो, लेकिन क्या कोई राजनेता यह बता पाएगा, कि गर इनकी कामनाएं सफल हो गईं और भगवान न करे भारत बर्बाद हो गया तो आप राजनेता भला राजनीति कहां करेंगे। कुछ लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि जेएनयू एक आतंकी गतिविधियों का केंद्र बन गया है वहां देश विरोधी ताकतें पैर पसार रही हैं तो क्या वहां पूरी तफ्तीश होनी जरुरी नहीं है। एक सवाल इन नारों ने यह भी सामने लाकर खड़ा कर दिया है कि हमें हमारे दुश्मनों से कम देश में अपनों से ज्यादा खतरा दिखाई पडऩे लगा है। क्या यह बाकई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, क्या कोई राष्ट्र अपने अपमान को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता करार देकर माफ कर सकता है, शायद इसका जबाव जहां से भी पूछोगे उत्तर नहीं ही आएगा। देश की राजधानी में सरेआम देशविरोधी नारे लगते हैं, लोकतंत्र का मजाक बनता है, देश के न्यायिक फैसले पर सवाल उठता है, देश का कानून जिसे आतंकी मानता है, देश की राजधानी में उसका शहीदी दिवस मनता है और हमारा देश नेताओं के इस मसले पर राजनीति देखता है, उनकी बड़ी-बड़ी दलीलें सुनता है और पूरा देश उस समय स्तब्ध रह जाता है जब सबकुछ आंखों से देख चुके नेतागण देश के सरेआम अपमान को अपने-अपने शब्दों में परिभाषित करते हैं, कौन सही, कौन गलत का आरोप एक-दूसरे पर लगाते हैं और देश चोरी और सीना जोरी भी देखता है। जेएनयू कैंपस में वो होता है जो देश को शर्मसार करता है और दलीलें तमाम पक्ष और विपक्षों की ऐसी सुनकर लगने लगता है कि ये कहां आ गए हम। अचानक देश का एक शिक्षा परिसर राजनीतिक अखाड़ा बन जाता है और मुद्दे को अपने-अपने नफे-नुकसान के लिहाज से राजनीतिक दल भरपूर भुनाने की कोशिश करते हैं। देश के हृदय पर इस सबसे कितनी कटारें चल रहीं हैं, इसका अहसास किसी को नहीं होता। इस मसले पर देशद्रोहियों के खिलाफ एकजुट आवाज जो पूरी ताकत के साथ सामने आनी चाहिए थी वो कहीं दूर काफूर हो जाती हैं और आतंकियों के मंसूबे जैसे कामयाब होते दिखाई देने लगते हैं। वो हमें बांटना चाहते हैं और बटा हुआ देखकर आपस में लड़ता हुआ देखकर खूब अपनी पीठ थपथपाई करते हैं। देश विरोधी नारे किसने लगाए, किसने नहीं लगाए यह सवाल हमारे लिए बड़ा हो जाता है। भारत मां का अपमान बहुत छोटा दिखाई देता है। ये क्या हो गया हमारे देश को, क्या हमने कभी रुककर, ठहरकर अपने जमीर से पूछा है। देश में कानून है, स्वतंत्र न्याय पालिका है, लेकिन फिर भी हर वो दलील देने वाला शख्स, पैरवी करने वाला वकील और फैसला सुना देने वाला जज दिखाई देता है, इससे बड़ी विडंबना देश के सामने और भला क्या होगी। कानून है यह सब मानते हैं, पर उस पर विश्वास कितने लोग करते हैं? क्या यह दिखाकर हमारी न्याय पालिका का मखौल तो नहीं उड़ा रहे हैं और अगर ऐसा है तो क्या हम खुद को कमजोर नहीं बना रहे हैं, लेकिन सिक्के के दो पहलू होते हैं और हर नकारात्मकता के पीछे सकारात्मक तथ्य होते हैं। यह महसूस करने वाले कहते हैं कि यह भी अच्छा ही है। कम से कम देश के सामने चेहरे तो आ रहे हैं और देश खुद तय करेगा कि कौन सही है और कौन गलत, लेकिन यहां देश को यह भी समझना होगा कि वास्तविक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाले लोग क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आढ़ में मर्जी जो आए कह देने का रिवाज चला लेने की वकालत करते हैं, कोई किसी भी राजनीतिक पार्टी का अंग हो, कोई कितना भी किसी भी मुद्दे को राजनीतिक लाभ के दृष्टिगत जनता के बीच परोसना चाहता हो, लेकिन देश के अपमान की बात करके राजनीति करने वालों ये देश तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा। देश वो है जिसे शहीदों ने यह कहकर हमे सौंपा है कि कर चले हम वतन अब तुम्हारे हवाले साथियों, क्या हम उस वतन की शान में गुस्ताखी नहीं कर रहे हैं। कश्मीर में यह सब जब भी सुनाई देता है तो हमारे शरीर का खून खौल जाता है, लेकिन वहां तो हम यह कहकर सब्र कर लेते हैं, कि अभी देश को बहुत कुछ करना बाकी है,लेकिन जब देश की राजधानी से भारत मां को कोई कोसता दिखाई देता है तो तकलीफ कितनी ज्यादा बढ़ जाती है इसका अंदाजा शब्दों से तो नहीं लगाया जा सकता। किसी ने यूं ही कह दिया कि शहीद हनुमंत थप्पा जीना चाहते थे तभी तो 6 दिन बर्फ के नीचे भी सांसे लेते रहे। गर बाकई मर जाना होता तो जिंदा न मिलते, हमको। अस्पताल में जेरे इलाज जो कान में हिन्दुस्तान विरोधी नारे सुने इस जाबांज ने तो जीने की ख्वाहिश न रह गई। क्यूं भूल जाते हैं हम और आप कि इस देश ने हमें पहचान दी है। इस देश पर राजनीति का मायना क्या है। ये देश है तो तुम और तुम्हारी राजनीति बाकी है जो देश नहीं तो तुम कहां और कहां होगी तुम्हारी राजनीति कभी सोचा है। दुश्मन कोई मारे पीठ में खंजर तो सुकुन होता है, अपना कोई लहू, लुहान कर दे तो मरकर भी चैन नहीं होता है। हालात अब कितने बदल जाने दोगे, अपने नाम को कितना बदनाम कर देश को गुमराह कर लोगे, कहां तक गिरोगे अपनी झूठी राजनीति चमकाने में यह देश शहीदों का देश है, खून के कतरे-कतरे से सींचा है उन शहीदों ने इसको कम से कम उस खून की लाज रखने की तो बात करो। यह वो देश है जहां शहीद मरकर भी सरहदों की चौकसी करते हैं। क्या बदल गया है देश के पानी में ऐसा कि तुम जिंदा होकर भी हर रोज देश का गला घोंटते हो। शर्म आती है यह देखकर कि तुम देश द्रोहियों की पैरवी सीधे-सीधे न सही, घुमा-फिरा कर करते हो। भारत के लाल हो, भारत पर मरना-मिटना सीखो। इस देश की शान हो तुम खुद पर इतराना सीखो, ये देश किस्से कहानियों का देश है उनसे सबक सीखना सीखो। #जेएनयू विवाद #जेएनयू
– अतुल गौड़