डॉ. मधुसूदन
*जब भारत स्वयं ही अपने आप को बौनी विचारधाराओं के बराबर मानता है, तो परदेशियों को भारत की विशेषताओं का पता कैसे चलें?
मारिया वर्थ:
जब जर्मनी इसाई होने पर लजाता नहीं है, तो भारत क्यों, अपनी हिंदू विरासत (पर लजाता है) नकारता है?
जर्मन महिला, मारिया वर्थ कहती है, उनके शब्दो में :====> When Germany is Christian, is India Hindu? (Why India is Denying Her Own Roots)
(एक)
मारिया वर्थ
मारिया वर्थ नामक एक जर्मन महिला है, जो भारत की प्रशंसक है, और (भारतीय) हिंदू संस्कृति से उन्हें प्रेम होने के कारण वे भारत आकर ही, कई बरसों से, बसी हुयी हैं।
वे कहती हैं, कि, “मैं भारत में कई वर्षों से रहती हूँ, पर आज तक, मुझे कुछ भारतीय बाते समझ में नहीं आती, उनमें से एक बात विशेष रूपसे खटकती है: कि क्यों बहुत सारे पढे लिखे भारतीय अस्वस्थ हो जाते हैं, जब भारत को हिंदु राष्ट्र (उनका शब्द Hindu Country) माना जाता है।
(दो)
बहुसंख्य भारतीय हिंदु ही है।
जब बहुसंख्य भारतीय हिंदु ही हैं। और भारत का विश्व में, विशेष सम्मान, इसी लिए है,क्यों कि, भारत प्राचीन हिंदु परम्पराओं का देश है। पश्चिमी देशवासियों का भारत के प्रति आकर्षण इसी विशेषता के कारण हैं।
फिर क्यों, हिंदु मूल्यों को स्वीकार करने में भारत में ही विरोध है? आगे वें कहती है, कि, उन्हें यह वृत्ति दो कारणों से, बडी अचरज-भरी लगती है।
(१)पहले, इन पढे लिखे भारतीयों को केवल “हिंदु-भारत” इस पहचान से ही समस्या है,
(२) पर अन्य देश जो, अपने आप को मुस्लिम या इसाई कहलाते हैं, उन देशों से कोई समस्या नहीं है।
बडा अचरज है।
(तीन)
जर्मनी इसाई देश
एक ओर, पढे लिखे भारतीय अस्वस्थ हो जाते हैं, जब भारत को हिंदु राष्ट्र (उनका शब्द Hindu Country) माना जाता है; पर जब जर्मनी को इसाई देश कहा जाता है तो जर्मन नागरिक अस्वस्थ नहीं होता।
वैसे, जर्मनी में केवल ५९ % -(59%)जनसंख्या ही कॅथोलिक और प्रोटेस्टंट चर्चों की सदस्य है, पर जर्मनी फिर भी “क्रिश्चियन देश” माना जाता है।
समाचार पत्रों में छपा है, कि, जर्मन चान्सलर ( जो,प्रधान मन्त्री जैसा, सर्वोपरि पद है) ऍन्जेला मर्केल ने, जर्मनी के ईसाइयत मूल्यों पर भार देकर, जर्मन प्रजा को अपने ईसाइयत के मूल्यों पर टिके रहने के लिए ही, प्रोत्साहित किया था।
यहाँ तक, कि, २०१२ में उसने अपना G-8 की शिखर बैठक पर जाने का प्रवास भी विलम्बित कर दिया था।कारण था, जर्मन कॅथोलिक दिनपर उनका आयोजित भाषण। ऐसे, जर्मन कॅथोलिक दिन के उनके भाषण के कारण उन्हें प्रवास भी विलम्बित करना पडा था।
(चार)
राजनैतिक पक्षों के नाम में भी, “क्रिश्चियन” संज्ञा
जर्मनी के, दोनो प्रमुख विरोधी राजनैतिक पक्षों के नाम में भी, “क्रिश्चियन” शब्द का समावेश किया गया है। ऐसे नाम से, भी, और, जर्मनी को जब इसाई देश कहा जाता है उससे भी, जर्मन नागरिक अस्वस्थ नहीं होता।
(पाँच)
इसाइयत का जर्मन इतिहास रक्तरंजित, आतंकग्रस्त
वास्तव में यदि जर्मन नागरिक ” क्रिश्चियनिटी” के नाम से अस्वस्थ होता, तो बात समझ में अवश्य आती।
क्यों कि जर्मनी का इसाइयत का, इतिहास रक्तरंजित घटनाओं से, और आतंक से भरा पडा है।और बहुत भय फैलानेवाला रहा है।
इसाइयत की तथाकथित विजय-गाथा, निरंकुशता और भयंकर क्रूरता से भरी पडी है।
(छः)
जर्मन सम्राट, कार्ल
१२०० वर्ष पूर्व, महान(?)जर्मन सम्राट, कार्ल ने कडी आज्ञा दी थी, कि या तो इसाइयत स्वीकारो, या, मरने के लिए तैय्यार रहो।
(सात)
आज पश्चिम में बडी संख्यामें चर्च त्याग
दूसरी ओर,जाना जा सकता है।
कि, आज पश्चिमी जनता बडी संख्या में, चर्च छोड रही हैं; कारण है, चर्च-पुरोहितों का चारित्रिक पतन।
वें इस “चर्च -पुरोहितों के चारित्र्यिक पतन” से श्रद्धाहीन होकर ही, चर्च छोड रहें हैं।
साथ में, “इशु के सिवा आपको कोई बचा नहीं सकता,” इस पर भी उनका विश्वास नहीं है।
उसी भाँति, “इसु का अस्वीकार करने पर, “गॉड आप को नर्क में भेजेगा।” इस पर से भी उनका विश्वास हट रहा है।
(आँठ)
“हिंदु धर्म” अब्राहामिक धर्मों से अलग
आगे कहती है, “पर आपका हिंदु धर्म ऐसे अब्राहमिक धर्मों से बिलकुल अलग है।”
हिंदू धर्म का इतिहास, इसाइयत और इस्लाम से निःसन्देह बिलकुल अलग है। वह निम्नतम हिंसक है। उसका प्रसार और प्रचार तर्क के आधार पर हुआ है।छल, बल, कपट और रक्तरंजित अत्याचारों के प्रयोग से नहीं।
वह अंध-श्रद्धा की माँग, और अपनी बुद्धि को गिरवी रखने की माँग भी नहीं करता।
उलटे हिंदु-मत आप की बुद्धि के अधिकतम उपयोग को प्रोत्साहित करता है।
इसलिए, “उपनिषदों को जब मैं ने खोजा, तो मेरे आश्चर्य का पार न था।”
सामान्य भारतीय को पता ही नहीं है, कि, “भारत का लाभ ही होगा, घाटा तो बिलकुल नहीं, यदि, वह अपनी अतल सर्वसमन्वयी हिंदू परम्परा को अपनाता है।” इसी लिए, श्री दलाई लामा नें कुछ समय पहले,ल्हासा मे युवाओं के सामने भाषण में कहा था, कि वें भारतीय विचार प्रणाली से गहरे पभावित हैं।
उन्हों ने ने कहा था कि, “भारत के पास संसार को दिशा देने की भी क्षमता है।”
“India has great potential to help the world,” he had added.
–कब पश्चिम प्रभावित भ्रांत भारतीय इसे समझ पाएगा?
(नौ)
विश्वगुरू त्यागपत्र नहीं दे सकता।
सारे संसार में यह विशेषता है केवल भारतकी है।पर साम्प्रत उस भारत का भी र्हास हो रहा है। उसीका र्हास है पाकिस्तान। उसीका र्हास है बंगलादेश। उसी परम्परा का र्हास है, पण्डितों का कश्मिर से खदेडे जाना। उसीका र्हास है, सारे बृहत्तर भारत की शासन द्वारा उपेक्षा।
(दस)
विवेकानंद जी कहते हैं, “सारा विश्व हमारी मातृभूमि भारत का अत्यंत ऋणी है। और आगे कहते हैं, कि, विश्व के देशों के विषय में यदि आप सोचें, और एक के बाद एक प्रत्येक देश के इतिहास को देखते चलें,तो पाएंगे, कि, ऐसा कोई देश या संस्कृति नहीं है, जिस पर भारत नें उपकार न किए हो, और जो भारत का ऋणी न हो।”
आज भी संसार भर में प्रयोजे जाते अंक हिंदू अंक है।जिनके बिना अब माना जाता है, कि, साम्प्रत विज्ञान का अस्तित्व भी न होता—-लेखक।
उसी प्रकार सर्व विश्रुत संगणकों के मूलमें भी भारतीय पाणिनि का व्याकरण है। एक हज़ार वर्ष की दासता के उपरांत भी, यदि ऐसा योगदान हम कर पाए, तो त्रैराशिकी चिंतन से बताइए, कि, यदि हमारे गत हज़ार वर्ष के इतिहास पर काली कराल छाया ना फैली होती, तो हम क्या क्या अनहोना योगदान दे पातें? परतंत्रता में इतना योगदान हो पाया, तो यदि हम स्वतंत्र होते, तो कैसा गगन चुम्बी योगदान दे पाते?
आप के ही आतिथ्य से और आपसे ही भीख माँगकर जो, तलवार खरीदता है, और आप के ही, धन से खरीदी हुयी उ्सी तलवार से आप का ही माथा धड से अलग करता है, उस को आप किस नाम से पुकारोगे? शब्द कोश में इस गुण के लिए अभी तक शब्द नहीं है। उसे कृतघ्न कहना भी कृतघ्न शब्दका अपमान होगा।
पर हिंदू सौम्य है, शालीन है, सज्जन है। एक ही आशा से कि इस तलवारबाज़ को भी कभी उसीका अपना इतिहास जानने पर समझ आ आएगी।
इसी आशासे उस तलवारबाज को भी वह समानता का चोला पहना देता है। यह सोचकर कि सामान्य बुद्धि सज्जनों को भी सूर्य प्रकाश जैसा यह सत्य कभी तो समझ आ ही जाएगा।
(ग्यारह)
भारत प्रसृत भ्रांति
पर परदेशियों में ऐसा स्वयं फैलाया हुआ, झूठ भ्रांति फैला देता है, और वे उलझ जाते है।
जब भारत स्वयं ही अपने आप को बौनी विचारधाराओं के बराबर मानता है, तो परदेशियों को भारत की विशेषताओं का पता कैसे चलें?
इसी लिए, भारत को जानने का प्रयास करने वालों को भी, बडी से बडी कठिनाई का सामना करना पडता है। जब अन्य सारे देश कुछ ना होते हुए अपनी बडाई हाँकते है। तब, भारत, अपने आप को बौना घोषित करता है। दूतावास भी प्रायः मौन ही है।
और फिर कुछ अधकचरे परदेशी विद्वान भी है, जो, भारत ने ही, अपने विषय में,फैलाई हुयी, बौनेपन की घोषणा को ही प्रमाण मान लेते हैं।इस लिए कठिन हो जाता है।
तो ऐसे, भारतने ही, स्वयं के बारे में, स्वयं ही, फैलाए हुए, इस बौने पन के दुष्प्रचार के जंगल को पार कर, भारत का सही सही आकलन बहुत कठिन हो पाया है।
बहुत कडा परिश्रम करने के पश्चात ही कुछ इने गिने परदेशी विद्वान भारत की सही प्रतिभा समझ पाए हैं।
(बारह)
प्रवासी भारतीय
बहुत सारे, प्रवासी भारतीय भी भ्रांत है, वे भ्रांति ही फैला रहे हैं; इनमें कुछ बडे पद-धारी प्रवासी भारतीय भी है, और इसीसे प्रभावित भ्रांत परदेशी भी है। जो भारत को कचरा कूडा समझते हैं।
पर, कुछ परदेशी विद्वान अभिभूत है। कठिनाइयों के उपरांत कुंभ मेलों में जाते हैं, यात्राओं पर जाते हैं, भगीरथ प्रयास करते हुए, भारत समझ पाए हैं। पर ऐसे लोग इने गिने हैं।वे निराशाओं का सामना करते हुए, बार बार आगे बढे हैं, सत्य की खोज में अडिग रहते हुए आगे बढे हैं।
ऐसे कुछ नाम निम्न सूची में है। उनके विचार भी,समय मिलने पर प्रस्तुत किए जाएंगे।
कोई अन्य लेखक भी करे तो स्वागत ही है। उनके कुछ नाम है; डेविड फ्राव्ले, फ्रॅन्क्वा गॉटियेर,जोसेफ वॉरन, डेबरा डेविस, एलॅनोर स्टार्क इत्यादि। अगले ९ दिन प्रवास पर हूँ।
प्रश्नों के उत्तर देने में विलम्ब होगा।
सम्यक ज्ञान, सम्यक मार्गदर्शन के आभाव में पथ विचलित हो गया है …….आज हम हिन्दू भारतीय(कुछ सुपात्रों को छोड़कर बहुसंख्य हिन्दू) उस गधे के रूप में हो गए है जिसे ये पता नहीं है की उनके ऊपर जो लदा हुआ है वो सोना है या मिटटी ……..बस धो रहे हैं
१. यदि मुझे ठीक से याद है तब शायद एक या दो वर्ष के भीतर ही इस विशाल देश के प्रधान मंत्री माननीय मन मोहन सिंह ने केम्ब्रिज में ‘आनररी डाक्टरेट’ स्वीकार करने के बाद धन्यवाद ज्ञापन में कहा था, ‘भारत अंग्रेजों का आभारी है की उन्होंने भारत पर राज्य किया और भारत को सभ्य बनाया, वरना भारत तो असभ्य और बर्बर था….” जब माननीय मन मोहन सिंह सरीखे विद्वान ऐसा सोचते हैं, तब समझ में आता है कि सत्य का दर्पण दिखलाना कितना कठिन कार्य है..
२. जब सारा विश्व मान रहा है कि आर्य बाहर से नहीं आए थे और यही के मूल निवासी हैं तब भी बच्चों को शालाओं में पढ़ाया जा रहा है कि आर्य बाहर से आए थे, तब हम किस मुंह से दर्पण दिखाएं !
३. जब बच्चों को यह सिखाया जा रहा है कि सब धर्मं बराबर हैं तब हम कैसे उन्हें अपने धर्म की श्रेष्ठता समझाएं ..
४. जब सभी बच्चे और बड़े अपने अवकाश के समय टीवी ही देखते हैं और उन्हें अच्छी बातें लिखना, पढ़ना और सुनना छोड़ दिया है, तब हम कैसे उन्हें सत्य समझाएं !
५. जब सबी बच्चों के माता पिता उन्हें कहते हैं कि उसे अच्छी पढाई कर के बीस लाख का पैकेज लेना है अर्थात शिक्षा का अर्थ मात्र अर्थार्जन हो गया है और अर्थ का अर्जन केवल अपने भोग के लिए ही करना है, तब इन भोगवादियों को त्यागमय भोग कैसे समझाएं ?
६. आप जिसको दर्पण दिखलाना चाहते हैं उसकी आंखों पर पहले से ही गुलामी का चश्मा चढ़ा हुआ है, तब ?
७. कहने का तात्पर्य है कि यह समस्या बहुत कठिन है, किन्तु हमें हार मानकर बैठना नहीं है वरन सोच समझ कर संगठित होकर एक रणनीति के तहत कार्य करना है ..
८. मेरा अनुभव् है कि बड़ों को तो हम छोड़ दें क्योंकि पक्के घड़े पर कार्य करने में बहुत कठिनाईयां हैं और सफलता मिलाने की आशा कम है…. बच्चों – ५ वर्षों से लेकर २० वर्षों तक – में भारतीय संस्कार के बीज डालें , उन्हें सशक्त मानव अर्थात हिन्दू बनाएं – मात्र जन्म से नहीं – मन और आत्मा से हिन्दू बनाएं ..
९. ऐसा सत्कार्य करने की अनेक विधि हो सकती हैं.. मेरे अनुभव में सबसे अच्छी विधि है उन्हें अच्छी कहानियां सुनाना .और साथ ही उन्हें कहानियों की पुस्तकें पढ़ने देना ताकि उन में पढ़ने की आदत पड़ जाए .. १०. मैं पिछले ९ वर्षों से यह कार्य कर रहा हूं, सारे भारत में इस समय लगभग ११० शाखाएं कार्य कर रही हैं; और इतने बाल पुस्तकालय भी चल रहे हैं.. और मुझे सफलता मिल रहीहै किन्तु मुझे यह कार्य प्रभावी रूप से करने के लिए सारे भारत में लाखों कहानी सुनाने वाले चाहिए, जब की मुझे बहुत मुश्किल से इन नौ वर्षों में लगभग ५०० स्वयं सेवक ही मिले हैं..
११. और दूसरी सीमा पुस्तकालयों के लिए धन की आवश्यकता की है..
१२. कहने का तात्पर्य है की ठोस कार्य करना है .जो भी आप उचित समझें
अधिक समय ले लिया, क्षमा चाहता हूं..
शुभम मंगलम
इस तेजस्वी लेख के लिए आभार व बधाई. आगामी लेखों की व्यग्रता से प्रतीक्षा रहेगी.
# नकारात्मक बोलने वालों की परवाह करने का कोई मतलब नहीं रह गया है, सकारात्मक इतना अधिक और इतना जबरदस्त है कि उसके आगे कोई टिक नहीं पायेगा. आवश्यकता है उसे जानने और समझने वाले आप सरीखे विद्वानों की जो सरल भाषा में उसे प्रस्तुत करते रहें. भारत और भारतीयों की महानता व श्रेष्ठता पर अस्सीमित सामग्री उपलब्ध तो है पर उसे जान कर प्रस्तुत करने वाले कम हैं. अतः प्रो. मधूसूदन जी जैसे महानुभाव भारत के लिए अमूल्य थाती हैं. आपको नमन. कृपया इस क्रम को जारी रखें.
समय लेकर टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद।
सुविधानुसार आलेख डालता रहूंगा।
यह विषय यद्यपि गूढ़ है तथापि नितांत आवश्यक एवं चिंतनीय है. बहिर्शक्तियों की दांव पेंच का विश्लेषण जो कि यहाँ पर बहुतया प्रस्तुत किया गया है वह उपयोगी है, परन्तु आतंरिक विघटन एवं जर्जरता का उल्लेख सीमित है. जबतक हमें अपनी कमजोरियों का आभास तथा उनके मूल कारणों का पूर्णतया ज्ञान नहीं हो पायेगा, इस विवशता का निदान पाना कठिन ही नहीं असम्भव भी हो सकता है. क्या कारन है कि इतनीं सारी बौद्धिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक विचार वैभव का बाद भी भारत कि सभ्यता, संस्कृति पिछले डेढ़ हजार सालों कराह रही है? मुझे जो आजतक अनुभव हुआ है उसके आधार पर प्रतीत होता है कि हमारे किसी एक अन्दर भी द्रिस्तांत बनने कि छमता किसी को द्रिस्तिगोचार नहीं हो पारही है. जबतक हममे से हर एक व्यक्ति हमारी परम्पराओं को अपने जीवन में पूर्णतया सन्निहित न करें तबतक इसका अस्तित्व खतरे में बना रहेगा.
आन्तरिक विघटन….? आलेख की सीमा में एक पहलु लेकर उसे न्याय करना उचित मानता हूँ।
पर, जानकारी देना/होना पहली सीढी है।परदेशियो में भी ऐसी जानकारी फैलाना दूसरी। बलशाली विचार ही फैलते जाएगा।
दूसरी ओर, जब चर्च ही समस्या ग्रस्त है, तब विज्ञान शुद्ध हिंदुत्व सहायक सिद्ध होगा। पर हमें छद्म बौनापन त्यागना होगा। लहर खडी करनी होगी।
जैसे मारिया वर्थ, एलेनॉर स्टार्क, डेविड फ्राव्ले, फ्रंन्क्वा ग्वाटियर इत्यादि भी यही बात कह रहे है। ऐसे और लोग बढते जाएं।
कुछ घटनाएं अकस्मात होती है, जैसे बर्लिन की दिवाल गिरी, रूस के टुकडे हुए। हमें अपना कर्तव्य करना है। कर्तव्य ही हमारा योगदान सही पक्षमें हो। यही हमारी परीक्षा है। धन्यवाद।
धन्य २ बहुत २ साधू वाद
यह सच बहुत लोगों को नही पचेगा और वे बिना बात वमन करेंगे पर उन का विरेचन भी जरूरी है ताकि उन्हें स्वस्थ्य विचार मिल सके
पुन : साधुवाद
श्रद्धेय डा० साहब,
सादर नमस्कार
“विश्वगुरुत्व” के भीतर का भाव जगाने के लिए एक उत्तम आलेख। नमनीय प्रयास. वंदनीय पुरुषार्थ।
“उगता भारत” के 22-28 अगस्त के अंक में संपादकीय कौलम में अतिथि संपादकीय के रूप में आपके नाम से प्रकासित ।
सादर।
धन्यवाद। जब चाहे तब आप आलेख छाप सकते हैं।
कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। धीरे धीरे विरोध कम होता जा रहा है। सत्य अपने आपमें एक शक्ति ही होता है।
टिप्पणी के लिए धन्यवाद।