संसार के मार्गदर्षक हैं श्रीकृष्ण

2
210

krishna-arjunअरविंद जयतिलक

वैदिक साहित्य में उदघृत है कि बह्रा या परम सत्य वह है जिससे प्रत्येक वस्तु उदभूत है। श्रीकृष्ण साक्षात परब्रह्रा हैं। ईश्वर हैं। समस्त पदार्थों के बीज हैं। नित्यों के नित्य हैं और जगत के नियंता हैं। शास्त्रों में ब्रह्रा को निर्विषेश कहा गया है। किंतु श्रीकृष्ण साकार हैं। कुरुक्षेत्र में उन्होंने मोहग्रस्त अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया। कर्म का वह महामंत्र प्रदान किया जो मानव जाति के लिए पथ-प्रदर्षक है। श्रीकृष्ण ने गीता में नश्वर भौतिक शरीर और नित्य आत्मा के मूलभूत के अंतर को समझाया है। कहा है कि आत्मा अजर और अमर है। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, उसी प्रकार आत्मा जीर्ण शरीर को त्यागकर नए शरीर में प्रवेष करती है। अत: मनुष्य को फल की चिंता किए बिना कर्तव्य का पालन करना चाहिए। सफलता और असफलता के प्रति समान भाव रखकर कार्य करना ही श्रेयस्कर है। यही कर्मयोग है। श्रीकृष्ण के उपदेश गीता के अमृत वचन हैं। उनके उपदेश से ही अर्जुन का संकल्प जाग्रत हुआ। कुरुक्षेत्र में खड़े बंधु-बांधवों से मोह दूर हुआ। तदोपरांत ही वे अधर्मी और दुर्बल हृदय वाले कौरवों को पराजित करने में सफल हुए। कौरवों की हार महज पांडवों की विजय भर नहीं है। धर्म की अधर्म पर, न्याय की अन्याय पर और सत्य की असत्य पर जीत है। श्रीकृष्ण ने गीता में धर्म-अधर्म, पाप-पुन्य और न्याय-अन्याय को सुस्पश्ट किया है। उन्होंने धृतराष्ट्र पुत्रों को अधर्मी, पापी और अन्यायी तथा पाडुं पुत्रों को पुण्यात्मा कहा है। उन्होंने संसार के लिए क्या ग्राहय और क्या त्याज्य है उसे भलीभांति समझाया है। श्रीकृष्ण के उपदेश ज्ञान, भकित और कर्म का सागर है। भारतीय चिंतन और धर्म का निचोड़ है। सारे संसार और मानव जाति के कल्याण का मार्ग है। विश्व के महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा भी है कि श्रीकृष्ण के उपदेश अद्वितीय है। उसे पढ़कर मुझे ज्ञान हुआ कि इस दुनिया का निर्माण कैसे हुआ। महापुरुष महात्मा गांधी ने भी कहा है कि जब मुझे कोर्इ परेशानी घेर लेती है, मैं गीता के पन्नों को पलटता हूं। महान दार्षनिक श्री अरविंदों ने कहा कि भगवदगीता एक धर्मग्रंथ व एक किताब न होकर एक जीवन शैली है, जो हर उम्र को अलग संदेश और हर सभ्यता को अलग अर्थ समझाती है। श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश मानव इतिहास की सबसे महान सामाजिक, धार्मिक, दार्षनिक और राजनीतिक वार्ता है। संसार की समस्त शुभता इसी में विधमान है। उनके उपदेश जगत कल्याण का सातिवक मार्ग है। श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में खड़े अर्जुन रुपी जीव को धर्म, समाज, राष्ट्र, राजनीति और कुटनीति की शिक्षा दी है। प्रजा के प्रति शासक के आचरण-व्यवहार और कर्म के ज्ञान को उदघाटित किया है। श्रीकृष्ण के उपदेश कालजयी और संसार के लिए कल्याणकारी हैं। युद्ध और विनाश के मुहाने पर खड़े संसार को संभलने का संबल है। अत्याचार और राजनीतिक कुचक्र को किस तरह सातिवक बुद्धि से हराया जाता है महाभारत उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। श्रीकृष्ण अर्जुन का सारथि बनकर सत्य का पक्ष लिया। अन्याय के खिलाफ लड़ा। श्रीकृष्ण का संपूर्ण जीवन अत्याचार और अहंकार के खिलाफ एक संघर्ष है। बाल्यावस्था से ही वे अलौकिक थे। किंतु उनकी अलौकिकता में जगतकल्याण की भावना निहित है। कभी वह अपनी बांसुरी के मधुर स्वर से सभी को आतिमक सुख प्रदान करते दिखते तो कभी कंस के अत्याचारों से गोकुलवासियों की रक्षा करते हुए लोकहित में प्रवृत्त दिखायी पड़ते। कभी वह गोवर्धन पर्वत को ऊंगली पर उठा इंद्र के दर्प को चकनाचूर करते दिखते तो कभी मित्र सुदामा के आगे असहाय नजर आते दिखते। कभी वह समाज की रक्षा के लिए कालिया दमन करते तो कभी कंस, जरासंध और शिशुपाल जैसे अहंकारी शासकों का विनाश कर मानवता का कल्याण करते दिखते। कभी ग्वाल-बालों के साथ प्रेम लड़ाते दिखते तो कभी गोपियों के संग रास रचाते दिखते। श्रीकृष्ण का जीवन त्याग और प्रेम का अनुकरणीय उदाहरण है। अत्याचार और अहंकार के खिलाफ जनजागरण है। कर्म, सृजन और संकल्प का संदर्भ है। श्रीकृष्ण बंधी-बधार्इ धारणाओं और परंपराओं को जो राष्ट्र-समाज के लिए अहितकर है उसे तोड़ने में हिचक नहीं दिखाते हैं। वे तत्कालीन निरंकुश शासकों की भोगवादी और वर्चस्ववादी जीवनशैलियों के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं। जनता को अत्याचार से लड़ने का संदेश देते हैं। बावजूद इसके सभी मनुष्यों और प्राणियों के प्रति उनका एकात्मभाव देखते ही बनता है। उनकी हर क्रिया में जगत का कल्याण निहित है। श्रीकृष्ण ध्वंस और निर्माण, क्रोध और करुणा, पार्थिकता और आध्यामिकता, सगुण और निर्गुण, राजनीति, साहित्य और कला सबके समग्र रुप हैं। नारियों के प्रति उनका सम्मान आधुनिक संसार के लिए सुंदर उदाहरण है। कौरवों की सभा में द्रौपदी का चीर खींचा गया। कभी द्रौपदी अपने वस्त्र को हाथों से तो कभी दांतों से पकड़ अपने शरीर को उघड़ने से बचाती। लेकिन दु:शासन रुपी राक्षस सम्मान का हरण करना चाहता था। लेकिन श्रीकृष्ण ने इस अबला की रक्षा की। उन्होंने संसार को संदेश दिया है कि दुर्योधन, कर्ण, विकर्ण, जयद्रथ, कृतवर्मा, शल्य, अश्वथामा जैसे अहंकारी और अत्याचारी जीव राष्ट्र-राज्य के लिए शुभ नहीं होते। वे सत्ता और ऐश्वर्य के लोभी होते हैं। धृतराष्ट्र सिर्फ जन्म से ही अंधा नहीं था बल्कि वह आध्यातिमक और नैतिक दृष्टि से भी अंधा था। उसका सत्तामोह और पुत्र के प्रति आसक्ति का परिणाम रहा कि हसितानापुर विनाष को प्राप्त हुआ। धृतराष्ट्र तथा उसके स्वार्थी-अभिमानी पुत्रों में ये सभी अवगुण विधमान थे। श्रीकृष्ण ने विष देने वाला, घर में अगिन लगाने वाला, घातक हथियार से आक्रमण करने वाला, धन लूटने वाला, दूसरों की भूमि हड़पने वाला और परार्इ स्त्री का अपहरण करने वाले राजाओं को अधम और आतातायी कहा है। धृतराष्ट्र के पुत्र ऐसे ही थे। सत्ता में बने रहने के लिए वे सदैव पांडु पुत्रों के विरुद्ध शड़यंत्र रचा करते थे। अनेकों बार उनकी हत्या के प्रयत्न किए। श्रीकृष्ण ने ऐसे पापात्माओं और नराधमों को वध के योग्य बताया है। समाज को प्रजावत्सल शासक चुनने का संदेश दिया है। अहंकारी, आतातायी, भोगी और संपतित संचय में लीन रहने वाले आसुरी प्रवतित के शासकों को राष्ट्र के लिए अशुभ और आघातकारी माना है। कहा है कि ऐसे शासक प्रजावत्सल नहीं सिर्फ प्रजाहंता होते हैं। युद्ध और विनाष के मुहाने पर खड़ा आधुनिक संसार श्रीकृष्ण के उपदेषों पर अमल करके ही समाज और राष्ट्र की अक्षुण्ण्ता को बनाए रख सकता है।

2 COMMENTS

  1. This is an excellent article covering the essence of teachings of Bhagwan Shrikrisjna
    so beautifully written in a few words is remarkable on Janmasthami, the 5125 th. birth day of Shrikrishna . Jaya Shrikrishna

  2. लेख अच्छा है। श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व पर भली-भांति प्रकाश डाला गया है। बधाई! परंतु कहीं-कहीं वर्तनी का ध्यान रखना आवश्यक है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here