श्रीमद्भगवद्गीता और भारतीय सामाजिक दर्शन

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1823

-बी एन गोयल-  geeta

गीता गंगा च गायत्री सीता सत्य सरस्वती।

ब्रह्मवल्ली ब्रह्मविद्या त्रिसंध्या मुक्तिगेहिनी। ।

अर्धमात्रा चिदानंदा भवध्नी भयनाशिनी।

वेदत्रयी परानन्ता तत्वार्था ज्ञानमंजरी।।

ये गीता के 18 नाम हैं।  ऐसा माना जाता है कि यदि शांत एवं निश्चिन्त भाव से इन नामों का जाप किया जाये तो ज्ञान सिद्धि तो होगी ही – अंत में मोक्ष प्राप्ति भी होगी। एक दिन कुछ मित्रों के साथ बैठे थे तो एक मित्र ने प्रश्न किया कि क्या कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान् कृष्ण के पास कोई स्टेनो था जो उन के उपदेश अथवा उनके और अर्जुन के बीच हुए संवाद को लिखता जा रहा था। इस तरह का प्रश्न काफी लोगों के मस्तिष्क में घूमता रहता है। इस लिए इस प्रश्न से कोई आश्चर्य नहीं होता  यह प्रश्न कोई पहली बार सुनने को  नहीं मिला। प्रायः सुना ही जाता है।

श्रीमद्भगवद्गीता जिसे हम  संक्षेप में गीता कहते हैं कि वास्तव में एक अनूठा ग्रन्थ है।यह युद्ध भूमि या किसी घटना की रनिंग कमेंट्री नहीं है वरन अर्जुन के माध्यम से भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा भारतीय समाज को दिया गया वेदों, शास्त्रों और उपनिषदों का सार है।यह एक सन्देश था जो किसी वर्ग विशेष अथवा किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं था वरन पूरे मानव समाज के लिए था। महर्षि वेदव्यास ने इस का निरूपण किया क्योंकि महर्षि व्यास ने ही संजय को दिव्य दृष्टि दी थी जिससे वह युद्ध का पूरा वृत्तांत धृतराष्ट्र को सुना सके। महर्षि वेदव्यास ही अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अर्जुन और श्रीकृष्ण के इस पूरे संवाद को निस्पृह और तटस्थ भाव से देखा और सुना था। यह पूरा प्रस्तुतिकरण उन्हीं का है।

गीता शब्द का अर्थ है गीत के रूप में अर्थात छंदोबद्ध। भगवत अर्थात भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीमुख से इस का उच्चारण हुआ इस लिए इसे भगवद्गीता कहते हैं और इस के प्रारम्भ में श्रीमद् लगाकर आदर भाव प्रकट करते हैं। गीता ध्यानम्  में हम कहते हैं –

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।

पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत।।

स्वामी मधुसूदन सरस्वती इस की व्याख्या करते समय कहते हैं “समस्त उपनिषद गौओं के समान  हैं, उन्हें दुहने वाला ग्वाला कृष्ण हैं। उस दुग्ध का प्रथम आस्वादन करने वाला अर्जुन उस का बछड़ा हैं और बछड़े से बचे दूध को पान करने वाले अन्य शुद्ध बुद्धि वाले जन हैं।” गॄता होने आप में एक उपनिषद ही है – ‘गीता उपनिषत्सु बृह्मविद्यां योगशास्त्रे।

गीता का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ जब समाज में एक अलग तरह की उथल पुथल हो रही थी। यह युग परिवर्त्तन का समय था – त्रेता युग समाप्ति पर था और द्वापर के आगमन की पद चाप सुनायी दे रही थी।  कहते हैं वैज्ञानिक प्रगति अपनी पराकाष्ठा पर थी जिस का उपयोग महाभारत युद्ध में देखने को मिला। लेकिन वैदिक साहित्य के आध्यात्मिक पक्ष से लोग विमुख हो रहे थे। यज्ञ और अनुष्ठान से जुड़े कर्मकाण्ड का प्रचलन हो रहा था। कर्मकाण्ड और कर्म करना – इन दोनों अवधारणाओं का अंतर मिट रहा था। कर्म-अनुष्ठान कराने वाले पुरोहित जनमानस के सामने स्वर्ग का प्रलोभन दे रहे थे। परिणामस्वरूप लोग पलायनवादी होते जा रहे थे। इस पलायनवाद से अर्जुन भी ग्रसित था जब वह कहता है – मैं भिक्षा मांग कर गुज़ारा कर लूंगा लेकिन युद्ध नहीं करूंगा। वैदिक साहित्य पढ़ने पढ़ाने का अधिकार भी वर्ग विशेष तक सीमित था। ऐसे समय में भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से ज्ञान, कर्म और भक्ति का अंतर बताया। समाज के हर व्यक्ति के सामने उस की क्षमता, ग्राह्यता और  योग्यता के अनुसार मोक्ष का मार्ग दिखाया।  मोक्ष और स्वर्ग का अंतर समझाया। यह भगवान् कृष्ण ने गीता के माध्यम से  भारतीय समाज के दर्शन की पुनर्स्थापना की।

गीता की एक विशेषता यह है कि इसे जिस भाव से, जिस भी मनःस्थिति से और जिस भी समय पढ़ा जायेगा, वह वैसा ही प्रभाव देगी। आनंद और विषाद दो विरोधी परिस्थिति हैं और दोनों ही में गीता का पाठ किया जाता है।  भारतीय मनीषा अथवा भारतीय वैचारिकता का अर्थ है भारतीय समाज की समन्वयता और सहिष्णुता की भावना, विभिन्नता में एकता के दर्शन, संयम और उदारता के  गुण आदि। ऐतिहासिक रूप से भारतीय समाज अत्यंत प्राचीन है। इसे संसार की विभिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं को प्रश्रय देने का अवसर मिला। जहां उन सब को इस ने अपने में समाहित किया वहीँ उन से प्रभावित भी हुआ। भारतीय समाज की कुछ संरचनात्मक विशेषताएं जैसे जातिप्रथा, वर्ण व्यवस्था, धार्मिक आचार विचार आदि वाह्य रूप में अलग अलग लगती हैं लेकिन इस की समानता में भी इन का योगदान रहा है। अलग-अलग संस्कृति और भाषाएं होते हुए भी हम सभी एक सूत्र में बंधे हुए हैं।

प्रायः हम अपने दैनिक जीवन में भारतीय संस्कृति की चर्चा करते हैं कि ‘ऐसा करना हमारी संस्कृति के प्रतिकूल है’, अथवा ‘यह काम हमें शोभा नहीं देता, समाज में कोई क्या कहेगा’ आदि आदि।  इस का सीधा अर्थ यह है की हम अपने साथ साथ दूसरे अपने सगे सम्बन्धियों, मित्रों आदि की भावनाओं का भी ख्याल रखते हैं। यही हमारा सामाजिक दर्शन हैं। यही हमारी सहिष्णुता है। इसी दर्शन के महान स्तम्भों में एक नाम भगवान् श्रीकृष्ण का हैं। इन का पूरा जीवन अत्यंत संघर्षपूर्ण रहा। बचपन एक नटखट बालक के रूप में था और बालक रूप में ही अनेक लीलाएं करते हुए अंत में कूटनीतिज्ञ  बन कर महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ के सारथी बने, पांडव की और से युद्ध का सञ्चालन किया।  अर्जुन के सखा बन कर उसे सलाह भी दी और गीता का दिव्य सन्देश दिया।  इस में भारतीय मनीषा के दर्शन होते हैं और यहीं हम प्राचीन विचारधाराओं का समन्वय देखते हैं। अनेक मत मतान्तरों के व्यक्तियों के लिए यह ग्रन्थ पूजनीय है। आज कल यह प्रबंधन (Management) के पाठ्यक्रम में भी शामिल कर ली गयी है। कितने ही युग बीत गए और आगामी कितने ही युगों तक गीता जनमानस का मार्ग दर्शन करती रहेगी।

आदि शंकरचार्य से लेकर मधुसूदन सरस्वती, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, विनोबा भावे, स्वामी शिवानंद, स्वामी चिन्मयानदं, स्वामी रामसुखदास और आज श्री दयानंद वर्मा तक अनेक संतों, महात्माओं, विद्वानों तथा गीता प्रेस और इस्कॉन आदि अनेक संस्थाओं ने गीता की व्याख्या की हैं लेकिन फिर भी नेति नेति का भाव बना रहता है।गीता कि महत्ता की चर्चा करते हुए महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में गीता के वर्णन के उपरान्त कहा –

गीता सुगीता कर्तव्याःकिमन्ये:शास्त्रविस्तरे: .

या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता ।।

श्री गीताजी को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अंतःकरण में धारण कर लेना ही मुख्य कर्त्तव्य है जो कि स्वयं पद्मनाभ भगवान् श्री विष्णु के मुखारविंद से निकली हुई है, इस के बाद अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है।

 

स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के अंतिम अध्याय के श्लोक संख्या ६६ में निष्कर्ष के तौर पर अपने पूरे वेदांत के रूप में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज।

अहम् त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।(६६)

अर्थात हे अर्जुन, तू सभी धर्मों अर्थात सभी भेदभावों को छोड़कर मेरी शरण में आजा मैं तुझे सभी प्रकार के पापों से मुक्त कर दूंगा – तू किसी तरह की  चिंता मत कर।

इस के बाद इसी अध्याय के चार श्लोकों में (६८ से ७१ तक) मुक्त भाव से भगवान् श्री कृष्ण गीता कि महिमा की चर्चा करते हैं –

श्रद्धावाननसूयश्च   श्रणुयादपि  यो   नरः।

सोsपिमुक्तःशुभानल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम।। (७१)

जो व्यक्ति श्रद्धायुक्त होकर इस ज्ञान में दोष देखने की अपेक्षा इस ज्ञान का श्रवण मात्र करेगा  वह भी सभी पापों से मुक्त हुआ उत्तम कर्म करने वालों के समान ही शुभ लोकों को प्राप्त करेगा।

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बी एन गोयल
लगभग 40 वर्ष भारत सरकार के विभिन्न पदों पर रक्षा मंत्रालय, सूचना प्रसारण मंत्रालय तथा विदेश मंत्रालय में कार्य कर चुके हैं। सन् 2001 में आकाशवाणी महानिदेशालय के कार्यक्रम निदेशक पद से सेवा निवृत्त हुए। भारत में और विदेश में विस्तृत यात्राएं की हैं। भारतीय दूतावास में शिक्षा और सांस्कृतिक सचिव के पद पर कार्य कर चुके हैं। शैक्षणिक तौर पर विभिन्न विश्व विद्यालयों से पांच विभिन्न विषयों में स्नातकोत्तर किए। प्राइवेट प्रकाशनों के अतिरिक्त भारत सरकार के प्रकाशन संस्थान, नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए पुस्तकें लिखीं। पढ़ने की बहुत अधिक रूचि है और हर विषय पर पढ़ते हैं। अपने निजी पुस्तकालय में विभिन्न विषयों की पुस्तकें मिलेंगी। कला और संस्कृति पर स्वतंत्र लेख लिखने के साथ राजनीतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक विषयों पर नियमित रूप से भारत और कनाडा के समाचार पत्रों में विश्लेषणात्मक टिप्पणियां लिखते रहे हैं।

3 COMMENTS

  1. “अर्जुन, तू सभी धर्मों अर्थात सभी भेदभावों को छोड़कर मेरी शरण में आजा मैं तुझे सभी प्रकार के पापों से मुक्त कर दूंगा – तू किसी तरह की चिंता मत कर”

    यह वाक्य पूर्णतया अवैज्ञानिक है, इसलिये न मानने लायक और न ही जानने लायक है

    • श्रीमान जी, इस वाक्य की वैज्ञानिकता और अवैज्ञानिकता की आपकी परिभाषा क्या है? कृपया बताएं.

      हे अर्जुन – तो अर्जुन कौन?
      तू सभी धर्मों को छोड़ – तो धर्म कौन से?
      तू मेरी शरण में आ जा – तो शरण कौन सी?
      तुझे सभी प्रकार के पापों से मुक्त कर दूंगा – तो कौन से और किस प्रकार के पाप?
      तू चिंता मत कर – तो किस प्रकार की चिंता ?

      आपके द्वारा उल्लिखित वाक्य को उपरोक्त ढंग से तोड़ा जा सकता है और उसकी व्याख्या विभिन्न प्रकार से की जा सकती है. ये वाक्य अपने आप में बहुरूपी अर्थ लिए बैठा है. वैज्ञानिकता और अवैज्ञानिकता हमारी अपनी समझ की बात है, ना की भगवान द्वारा उच्चारित इस महावाक्य की. “मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना” की बात हो सकती है. इति शुभम्

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