सियाचिन बने शांति का प्रतीक

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तनवीर जाफ़री

भारत-पाकिस्तान नियंत्रण रेखा के क्षेत्र में हिमालय पर्वत के कराकोरम रेंज में समुद्र की सीमा से लगभग 19000 फीट की ऊंचाई पर स्थित सियाचिन क्षेत्र इन दिनों एक बार फिर सुर्खियों siachenमें छाया हुआ है। इस दुर्गम,बर्फीले क्षेत्र में शीत ऋतु में तापमान -50 डिग्री से लेकर माईनस -60 डिग्री तक पहुंच जाता है। शीत ऋतु में यहां सामान्य बर्फबारी एक हज़ार सेंटीमीटर तक यानी लगभग 35 फ़ीट  तक का हिमपात रिकॉर्ड किया जाता है। भारतीय सेना ने यहां एक बार फिर देश की सीमा की रक्षा में लगे अपने 10 होनहार एवं बहादुर जवानों से हाथ धो लिया है। सेना के लगभग डेढ़ सौ जवानों तथा दो प्रशिक्षित कुत्तों की सहायता से बर्फ काटने वाली आधुनिक मशीनों के साथ लगभग 19500 िफट की ऊंचाई पर किए गए एक दुर्गम ऑप्रेशन में जहां सेना ने हज़ारों टन बर्फ के नीचे दबे पड़े अपने साथी जवानों की लाशों को निकाला वहीं हनुमनथप्पा को जीवित परंतु अत्यंत गंभीर अवस्था में बाहर निकाला गया। आज देश अपने सियाचिन में शहीद हुए जवानों की शहादत पर जहां आंसू बहा रहा है। देश को दु:ख इस बात का भी है कि इस दुर्घटना में बचे हुए एकमात्र सैनिक हनुमनथप्पा को भी बर्फ की तह से जीवित निकालने के बावजूद बचाया नहीं जा सका।

विश्व के सबसे ऊंचे सैन्य रणक्षेत्र पर हिमस्ख्लन या बर्फीले तूफान के कारण होने वाला यह कोई पहला हादसा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाएं केवल भारतीय सीमा क्षेत्र में ही होती हों। सियाचिन के क्षेत्र में नियंत्रण रेखा के उस पार यानी पाकिस्तान के कब्ज़े वाले क्षेत्र में भी ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। उदाहरण के तौर पर 7 अप्रैल 2012 को पाकिस्तान के कब्ज़े वाले इसी क्षेत्र में सियचिन ग्लेशिरयर टर्मिनस से तीस किलोमीटर पश्चिम में हुए हिमस्खलन में 129 पाकिस्तानी सैनिक बर्फ में जि़ंदा दफन हो गए थे तथा इनके अतिरिक्त 11 नागरिक भी मारे गए थे। गोया अपने-अपने देशों की सीमा की रक्षा के नाम पर दोनों ही देशों के सैनिकों को ऐसी दुर्गम एवं विपरीत परिस्थितियों में 24 घंटे डटे रहकर अपनी-अपनी सीमाओं की रक्षा करनी पड़ती है। यह वह इलाका है जहां आसानी से कोई व्यक्ति सांस भी नहीं ले सकता क्योंकि इतनी ऊंचाई पर ऑक्सीजन की भी कमी होती है। सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण समझे जाने वाले सियाचिन ग्लेशियर क्षेत्र पर 13 अप्रैल 1984 को भारतीय सेना ने  कब्ज़ा कर लिया था। उसी समय से लगभग 76 किलोमीटर लंबे इस ग्लेशियर क्षेत्र पर अपना कब्ज़ा बरकरार रखने के लिए भारतीय सेना को खासतौर पर कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इस इलाके में आए दिन बर्फीले तूफान तथा हिमस्खलन होते ही रहते हैं। परंतु देश की सीमा की रक्षा के नाम पर तथा विश्व के सबसे ़ऊंचे रणक्षेत्र होने के नाते सामरिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण समझे जाने वाली इन बर्फीली चोटियों पर निगरानी करना दोनों ही देशों की एक मजबूरी बन चुकी है।

आज भारत व पाकिस्तान के मध्य जहां कई विवादित मुद्दे हैं उनमें सियाचिन भी इन्हीं विवादित मुद्दों में से एक प्रमुख है। परंतु पाकिस्तान सियाचिन जैसे मुद्दों का समाधान प्राथमिकता के आधार पर निकालने के बजाए कश्मीर जैसे मुद्दे को आगे रखकर सियाचिन मामले को उलझाए रखने की कोशिश करता है। परिणामस्वरूप दोनों ही देशों के सैनिक आए दिन इस प्रकार के हादसों का शिकार होते रहते हैं। भारत व पाकिस्तान सहित विश्व के कई देश व पर्यावरणवादी संगठन सियाचिन क्षेत्र को अमन का क्षेत्र घोषित किए जाने की कोशिशों में लगे रहते हैं। भारतीय प्रधानमंत्री डा० मनमोहन सिंह ने पहले भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में इस दुर्गम क्षेत्र का दौरा किया था। राष्ट्रपति के रूप में डा०एपीजे कलाम भी इस क्षेत्र में जाने वाले प्रथम भारतीय राष्ट्रपति रहे हैं। 2012 में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी तथा उस समय के पाक सेनाध्यक्ष जनरल अशफाक परवेज़ कयानी दोनों ही ने सामूहिक रूप से इस बात की प्रतिबद्धता दोहराई थी कि यथाशीघ्र संभव सियाचिन क्षेत्र के विवाद का समाधान ढूंढ लिया जाएगा। पर्यावरणविद् भी ऐसा महसूस करते हैं कि प्राकृतिक सौंदर्य से भरे इस दुर्गम बफीले क्षेत्र में दोनों देशों की सेनाओं की उपस्थिति तथा सैन्य मौजूदगी के कारण होने वाली ज़रूरी हलचल,आवाजाही,गश्त,फायरिंग आदि ऐसी बातें हैं जिससे इस क्षेत्र का पर्यावरण भी बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। 2003 में डर्बन में हुई पांचवीं वल्र्र्ड पार्कस कांग्रेस में भी भारत व पाकिस्तान को सियाचिन मुद्दे के समाधान की दिशा में आगे बढऩे के लिए पर्यावरणविदें द्वारा प्रेरित किया गया। इसे यथाशीघ्र संभव पीस पार्क अथवा सियाचिन पीस पार्क का नाम दिए जाने की बातें भी की गईं। इसके बाद जिनेवा में भी इस दिशा में कुछ सकारात्म प्रयास किए गए। सियाचिन क्षेत्र के पूर्वी क्षेत्र को पहले ही कराकोरम वाईल्ड लाईफ सेंक्चुरी का नाम दिया जा चुका है जोकि भारतीय क्षेत्र में स्थित है। जबकि पश्चिम में पाकिस्तानी क्षेत्र में पडऩे वाले एक बड़े क्षेत्र को सेंट्रल कराकोरम नेशनल पार्क का नाम दिया जा चुका है।

परंतु इन सब प्रयासों के बावजूद भारत व पाकिस्तन के मध्य संयुक्त रूप से पडऩे वाले इस दुर्गम क्षेत्र में दोनों ही देशों के बीच विश्वास की कमी होने के चलते सैन्य जमावड़े में कोई कमी नहीं आ पा रही है। भारत व पाकिस्तान परस्पर विश्वास बहाली के संबंध में बातचीत भी करते रहते हैं। परंतु बीच-बीच में पाकिस्तान की ओर से भारत में प्रायोजित होने वाली आतंकवादी घटनाएं,सीमापार से पाकिस्तान द्वारा कराई जाने वाली घुसपैठ,कारगिल जैसा सैन्य घुसपैठ,मुंबई का 26/11 तथा भारतीय संसद पर होने वाला हमला,ताज़ातरीन पठानकोट हादसा व इस तरह की अनेक घटनाएं बार-बार भारत को यह सोचने के लिए मजबूर कर देती हैं कि वास्तव में पाकिस्तान विश्वास करने योग्य देश है भी अथवा नहीं? परमाणु शक्ति संपन देश बन चुके भारत व पाकिस्तान दोनों ही देशों के दस हज़ार से लेकर बीस हज़ार तक सैनिक इस क्षेत्र में तैनात हैं। लगभग 160 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से बर्फीली हवाएं इस क्षेत्र में चलती रहती हैं और कभी भी अचानक बर्फीला तूफान भी इन्हीं तेज़ हवाओं के साथ आता है। ऐसे ही वातावरण में हिमस्खलन की घटनाएं भी होती हैं। इन्हीं बर्फीले तूफान व हिमस्खलन के चलते इस इलाके में मौजूद सैनिकों को अपनी जानें गंवानी पड़ती हैं। कई जवान दर्रों या बर्फ में आई दरारों के बीच भी िफसल कर गिर जाते हैं और बर्फ में ढक जाने की वजह से शहीद हो जाते हैं। कुछ क्षेत्र तो इतनी ऊंचाई पर स्थित हैं तथा वहां का तापमान इतना कम है कि वहां हेैलीकॉप्टर भी उड़ान नहीं भर पाते। नतीजतन इस क्षेत्र में तैनात जवानों को आपातकाल की स्थिति में समय पर मदद भी नहीं पहुंचाई जा सकती। यहां तैनात जवानों के लिए पूरे वर्ष का राशन मौसम ठीक होने के दौरान कुछ ही दिनों के भीतर इक_ा कर लिया जाता है। तीन किलो भारी वज़न के जूते पहने जवान कई महीनों तक टुथपेस्ट का प्रयोग सिर्फ इसलिए नहीं कर पाते क्योंकि यहां पेस्ट पत्थर की तरह जम जाती है। जवानों को पीने का पानी अपने बंकरों में बर्फ को गर्म करके गलाना पड़ता है। यहां संतरे व सेब जैसे फल भी पत्थर की तरह सख्त हो जाते हैं। गोया इस क्षेत्र में केवल हमारे जवानों को ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के क्षेत्र की रक्षा करने वाले जवानों को भी बड़ी दिक्कत भरी परिस्थितियों में रहना पड़ता है। बावजूद इसके कि पिछले 12 वर्षों में इस इलाके में भारत व पाकिस्तान के मध्य कोई सीधी मुठभेड़ नहीं हुई है फिर भी इस दौरान लगभग आठ सौ भारतीय जवान देश की सीमाओं की रक्षा करते हुए प्राकृतिक आपदाओं के चलते शहीद हो चुके हैं।

लिहाज़ा दोनों ही देशों को इस क्षेत्र के विसैन्यीकरण पर जितना जल्दी हो सके ध्यान देना चाहिए तथा इस इलाके में सैन्य तैनाती पर होने वाले प्रत्येक वर्ष के हज़ारों करोड़ रुपये के खर्च तथा अपने सैनिकों की जान से खेलने जैसी परिस्थितियों से निजात पाने की कोशिश करनी चाहिए। हालांकि यह बात भी सच है कि इस क्षेत्र में खासतौर पर भारतीय सेना की मौजूदगी चीन व पाकिस्तान के मध्य गठजोड़ को मद्देनज़र रखते हुए बेहद ज़रूरी भी है। यदि भारतीय सेना सियाचिन से हटती है तो चीन व पाकिस्तान के मध्य गठबंधन और मज़बूत हो सकता है। लिहाज़ा जब तक भारत पाकिस्तान को पूरी तरह अपने विश्वास में न ले ले और चीन की नीयत भी इस क्षेत्र में शांति बहाली को लेकर साफ दिखाई दे तभी इस इलाके में शांति की कल्पना की जा सकती है और सैनिकों के बेवजह देश पर कुर्बान होने की सिलसिला रुक सकता है। वैसे इतिहास तो यही बताता है कि 1986 में पहली बार सियाचिन मुद्दे पर शुरु हुई भारत-पाक वार्ता अब तक एक दर्जन से भी अधिक बार हो चुकी है। पंरतु चूंकि पाकिस्तान इस क्षेत्र पर भारत के एकाधिकार को स्वीकार नहीं करता इसलिए हर बार यह वार्ता बिना किसी समाधान पर पहुंचे ही टल जाती है। और जवानों की मौत का सिलसिला यू  ही बरकरार रहता है।

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