राजनीतिक, राजनीतिकों पर नाजायज दबाव के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआर्इ) का इस्तेमाल करते हैं, यह अब कोर्इ दबी-छिपी बात नहीं रह गर्इ है। सत्ता पक्ष और विपक्ष के जितने भी राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय दल हैं, लगभग सभी परोक्ष-अपरोक्ष रुप से सत्ता में हिस्सेदारी कर चुके हैं और सत्ता से बाहर होने के बाद सत्ता पक्ष पर सीबीआर्इ का दुरुपयोग करने का आरोप लगाते रहते है। मसलन अपरोक्ष रुप से वे अपने ही अनुभव प्रकट करते हैंं। हाल ही में संसद में एफडीआर्इ पर महाबहस के दौरान सपा और बसपा के मतदान में हिस्सा नहीं लेने पर सुषमा स्वराज ने संसद में बयान देते हुए कहा भी था कि यह स्थिति एफडीआर्इ बनाम सीबीआर्इ की लड़ार्इ बना देने के कारण उत्पन्न हुर्इ है। इसके बाद अब सीबीआर्इ के पूर्व निदेशक उमाशंकर मिश्रा के बयान ने आग में घी डालने का काम किया है। उनके मुताबिक 2003 से 2005 के बीच जब वे सीबीआर्इ प्रमुख थे, तब उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और उनसे जुड़ा ताज कारीडोर मामले की जांच का प्रकरण उनके पास था। इस सिलसिले में मायावती के खिलाफ आय से अधिक संपतित मामले की जांच चल रही थी। जांच में हमने पाया कि मायावती के माता-पिता के बैंक खातों में इतनी ज्यादा रकम जमा थी, कि आय के स्त्रोत की पड़ताल जरुरी थी, लेकिन केंद्र के दबाव के सामने वे निष्पक्ष जांच नहीं कर पाए। मसलन जांच लटका दी गर्इ। यहां गौरतलब है कि मार्च 1998 से 2004 तक केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार थी और 22 मर्इ 2004 को प्रधानमंत्री मनमोहन की सरकार वजूद में आर्इ, जो अभी भी वर्तमान है। मसलन संप्रग और राजग दोनों ने ही अपने हितों के लिए सीबीआर्इ का दुरुपयोग किया। अब ताजा मामला मुलायमसिंह को ब्लैकमेल किए जाने का आया है।
मिश्रा ने आगे यह भी कहा कि ‘यह सच है और इसे मैं नहीं छिपाउंगा। जब हम बड़े राजनेताओं के खिलाफ जांच करते हैं, तो प्रगति प्रतिवेदन लटकाने या जांच पूरी हो चुकने के बावजूद संपूर्ण जांच प्रतिवेदन न देने अथवा उसे किसी खास तरीके से प्रस्तुत कराने का पर्याप्त दबाव बनाया जाता है। इसीलिए इसकी साख बरकरार रखने के लिए अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी और सेवा निवृत्त सीबीआर्इ निदेशक जोगिंदर सिंह लगातार मांग कर रहे हैं कि इस संगठन को पूरी तरह स्वतंत्र एवं स्वायत्त बनाया जाए। जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय, निर्वाचन आयोग और निंयत्रक एवं महालेखा निरीक्षक जैसे संगठन हैं। लेकिन सरकार केंद्र में किसी भी दल की आ जाए, वह सीबीआर्इ को स्वायत्त बना देने का आदर्श प्रस्तुत करने वाली नहीं है। क्योंकि लगभग सात साल केंद्र में राजग सत्ता में रह चुकी है। लेकिन उसने भी सीबीआर्इ की मुष्कें केंद्रीय सत्ता से जोड़कर रखीं। यही वजह रही कि सीबीआर्इ बोफोर्स तोप सौदे, लालू यादव के चारा घोटाले, मुलायम सिंह यादव की अनुपातहीन संपतित और मायावती के ताज कारीडोर से जुड़े मामलों में कोर्इ अंतिम निर्णय नहीं ले पार्इ। सीबीआर्इ को स्वतंत्र बना देने की दिशा में भी उसने कोर्इ कानूनी पहल नहीं की। साफ है कि सभी राजनीतिक दल एक ही थाली के चटटे-बटटे हैं।
कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी कह चुके हैं कि सीबीआर्इ राजनीतिक दबाव में काम करती है। इन सब बयानों से साफ होता है कि सीबीआर्इ को सुपुर्द कर देने के बाद गंभीर से गंभीर मामला भी गंभीर नहीं रह जाता। बलिक अपरोक्ष रुप से सीबीआर्इ सुरक्षा-कवच का ही काम करती है। इसीलिए बीते दो-तीन सालों में 2जी स्पेक्टम, राष्ट्रमण्डल खेल, आदर्ष सोसायटी और कोयला घोटाले से जुड़े जो भी मामले सामने आए है, वे शीर्ष न्यायालय, कैग और आरटीआर्इ के माध्यमों से ही सामने आए। 2जी स्पेक्टम मामले में तो सीबीआर्इ को निष्पक्ष जांच के लिए कर्इ मर्तबा न्यायालय की फटकार भी खानी पड़ी।
मुलायम सिंह के आय से अधिक संपतित के मामले में भी न्यायालय ने उल्लेखनीय पहल करते हुए, इन आशंकाओं की अपरोक्ष रुप से पुषिट की है कि सीबीआर्इ राजनीतिक दबाव में काम करती है। 2007 में सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करते हुए आरोप लगाया गया था कि मुलायम व उनके परिजनों ने आय से अधिक संपतित हासिल की है। इस याचिका को मंजूर करते हुए अदालत ने सीबीआर्इ को जांच सौंप दी थी। जांच से बचने के लिए मुलायम सिंह ने यह कहते हुए कि उनके पास कोर्इ अनुपातहीन संपतित नहीं है, पुनर्विचार याचिका दाखिल कर दी। अब अदालत ने इसे खारिज करते हुए सीबीआर्इ को हिदायत दी है कि जांच रिपोर्ट सरकार को नहीं सौंपी जाए, अदालत में ही पेश की जाए। यह दिशा-निर्देष इस तथ्य को पुष्ठ करता हे कि अदालत को आशंका है कि इस मामले में सरकार और सीबीआर्इ के बीच कोर्इ सांठगांठ है। दरअसल गठबंधन सरकारों के दौर में इस तरह की आशंकायें प्रबल होना गठबंधन राजनीति की मजबूरी भी है। इसलिए सीबीआर्इ को अधिकतम स्वायत्तता प्रदान करने के साथ निर्देशक की नियुकित की प्रकि्रया भी बदलने की जरूरत है। संसद की स्थायी समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की है कि सीबीआर्इ निदेशक के चयन की प्रकि्रया में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता व सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भी शामिल किया जाये।
मुलायम प्रकरण में सीबीआर्इ केंद्र सरकार के दबाव में है, यह आशंका तब भी मुखर हुर्इ थी, जब परमाणु सौदें के मामले में सपा ने सरकार को संसद में समर्थन दिया था और इस घटनाक्रम के तत्काल बाद सीबीआर्इ ने अदालत में एक षपथ-पत्र पेश करते हुए दावा किया था कि मुलायम सिंह और उनके बेटों अखिलेश व प्रतीक यादव के विरुद्ध आय से अधिक संपतित का प्रकरण नहीं बनता है, इसलिए इसे यहीं समाप्त किया जाए। अदालत ने शायद इसी हलफनामे की बिना पर सीबीआर्इ को यह निर्देश दिया है कि वह प्रगति और अंतिम जांच प्रतिवेदन सरकार के बजाए अदालत को सौंपे ? जाहिर है, मुलायम के बचाव की दलीलें खारिज हो चुकी हैं और अब उन पर जांच का शिकंजा कसने जा रहा है। एक कददावर नेता होने के कारण मुलायम का भी नैतिक तकाजा बनता है कि वे जांच प्रकि्रया को झुठलाने की बजाए उसका सामना करें। हालांकि अभी भी यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि सीबीआर्इ दबाव मुक्त होकर काम करेगी।
हालांकि उमाशंकर मिश्रा का बयान यहां यह भी सवाल खड़ा करता है कि आखिर सीबीआर्इ जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं के नौकरशाह सत्ता के दबाव में आते क्यों हैं ? जब उन पर नाजायत दबाव बनाया जाता है, तभी इस दबाव का खुलासा क्यों नहीं करते ? सेवानिवृत्त होने के बाद ही क्यों करते हैं। उमाशंकर मिश्रा के पहले कैग के निदेशक आरपी सिंह का भी बयान आया था कि 2 जी स्पेक्टम में घाटे से जुड़े आंकड़ों की रिपोर्ट पर उनके जबरन हस्ताक्षर कराए गए। जबकि जेपीसी के समक्ष बयान देने सिंह कर्इ बार पेश हुए थे, तब उन्होंने इस कृत्य का खुलासा नहीं किया था। यहां, आला अधिकारियों को भी नहीं भूलना चाहिए कि वे भी सत्य, निष्ठा और बिना किसी दबाव के काम करने की शपथ लेकर अपने काम में सलंग्न होते हैं। इसलिए यदि वे किसी दबाव में काम करते हैं तो यह कर्मचारी आचरण संहिता का उल्लंघन है। बलिक कैग तो एक संवैधानिक संस्था है और जेपीसी संसदीय समिति, इस नाते सिंह ने दबाव में काम करके और फिर उसकी सार्वजनिक आलोचना करके, संविधान और संसद दोनों की ही अवमानना की है। ऐसे में यह मामला दण्डीय अपराध की श्रेणी में आता है।
लेकिन हमारे यहां यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि अपराध को सार्वजनिक रुप से स्वीकार लिए जाने के बावजूद नौकरशाहों पर दण्ड का शिकंजा नहीं कसता। इसलिए सेवानिवृतित के बाद अधिकारी शोहरत अथवा नया पद पा लेने की लालसा में कुछ तो भी बयान देते रहते हैं। हाल ही में खबर आर्इ है कि सीबीआर्इ के पूर्व निदेशक एपी सिंह को राष्टीय मानवाधिकार आयोग का सदस्य बनाया जा रहा है। यदि वे मनोनीत होते हैं, तो इन शकाओं को बल मिलेगा कि उनके पद पर रहते हुए सीबीआर्इ ने जरुर राजनीतिक दबाव में काम किया होगा ? जाहिर है, देश के लोकसेवकों को भी प्रसिद्धी और लालच की भावना से उपर उठकर कत्र्तव्य का पालन करने की जरुरत है। यदि ऐसा होता है, तो सालों जांच से जुड़े मामले लंबित नहीं रहेंगे। और सीबीआर्इ जिन 9,964 मामलों की जो जांच कर रही है, उनमें भी तेजी से कमी आएगी। मालूम हो, इनमें से करीब 7000 मामले राजनीतिक एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार से जुड़े हैं और लटकाने के दबाव की प्रवृतित के चलते इनकी संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है।