विजय निकोर
तुम्हारी याद के मन्द्र – स्वर
धीरे से बिंध गए मुझे
कहीं सपने में खो गए
और मैं किंकर्तव्यविमूढ़
अपने विस्मरण से खीजता
बटोरता रहा रात को
और उस में खो गए
सपने के टुकड़ों को |
कोई गूढ़ समस्या का समाधान करते
विचारमग्न रात अँधेरे में डूबी
कुछ और रहस्यमय हो गयी |
यूँ तो कितनी रातें कटी थीं
तुमको सोचते-सोचते
पर इस रात की अन्यमनस्कता
कुछ और ही थी |
मुझे विस्मरण में अनमना देख
रात भी संबद्ध हो गयी
मेरे ख्यालों के बगूलों से
और अँधेरे में निखर आया तुम्हारा
धूमिल अमूर्त-चित्र |
मै भी तल्लीन रहा कलाकार-सा
भावनायों के रंगों से रंजित
इस सौम्य आकृति को संवारता रहा
तुमको संवारता रहा |
अचानक मुझे लगा तुम्हारा हाथ
बड़ी देर तक मेरे हाथ में था
और फिर पौ फटे तक जगा
मै देखता ही रहा
तुम्हारे अधखुले ओंठों को
कि इतने वर्षों की नीरवता के उपरान्त
इस नि:शब्द रात की निस्तब्धता में
शायद वह मुझसे कुछ कहें …
शायद वह मुझसे
मौन की अभिव्यक्ति सुन्दर है।
अतिशय धन्यवाद, बीनू जी।
विजय निकोर