चुनाव आयोग के साठ साल

चुनाव आयोग ने इस साल 61वें गणतंत्र दिवस के एक दिन पहले अपना हीरक जयंती मनाया। इन साठ सालों में इसने अपनी संरचना और स्वतंत्रता के दृष्टिकोण से बहुत उतार-चढ़ाव देखे। इन वर्षों में इसके कार्य उल्लेखनीय रहे जैसे मतदाताओं की संख्या को बढ़ाना, मतदान प्रक्रिया में तकनीक इत्यादि का प्रयोग करना। लेकिन इसे अपनी साख और क्षमता से सम्बंधित बहुत सी शिकायतों को दूर करना अभी बाकी है।

चुनाव आयोग लोकतंत्र का एक तरह से आधारस्तंभ है। निष्पक्ष और स्वच्छ चुनाव के बलबूते स्वस्थ लोकतंत्र का निर्माण होता है। सार्वभौमिक मानवाधिकार उद्धोषणा के अनुच्छेद 21 में लोकतंत्र की परिभाषा सन्निहित है। इसके अनुसार लोगों की इच्छा सरकार की शक्ति का आधार रहेगा। यह इच्छा एक निश्चित समय पर उचित ढंग से सार्वभौमिक और समान मतदान के आधार पर गुप्त मतदान या समान रूप से स्वतंत्र मतदान प्रक्रिया द्वारा व्यक्त किया जाएगा।

अनुच्छेद 21 के अनुसार ‘मत’ (लोगों की इच्छा) लोकतंत्र की अनिवार्य अवधारणा है। लोगों को अपनी इच्छा से और नियमित अंतराल पर अपना प्रतिनिधि चुनने का अवसर ही लोकतंत्र की महत्वपूर्ण विशेषता है।

निष्पक्ष तरीके से भारतीय लोकतंत्र में चुनाव कराने की जिम्मेवारी चुनाव आयोग को सौंपा गया है। चुनाव आयोग की महत्ताा को देखते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने चुनाव आयोग का उल्लेख संविधान में ही कर दिया है।

संविधान के अनुच्छेद 24 में लोकसभा, विधानसभा, राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति के चुनाव का निरीक्षण, निर्देश और नियंत्रण का अधिकार चुनाव आयोग को दिया गया है। चुनाव आयोग राज्यों और केन्द्र दोनों के चुनाव कराने की सम्पूर्ण भारतीय संस्था है।

जहां तक स्वतंत्र निष्पक्ष चुनाव की बात है तो वह तीन चीजों पर निर्भर है- पहला स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव मशीनरी, दूसरा राजनीतिक पार्टी और तीसरा उम्मीदवार। इन सभी को अपनी जिम्मेवारी ईमानदारी से निर्वाह करनी चाहिए। चुनाव आयोग का यह प्रयास रहता है कि उम्मीदवारों के बीच स्वच्छ और समान प्रतियोगिता हो सके। इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए इस आयोग का कार्य सराहनीय रहा है। आयोग ने चुनाव को निष्पक्ष कराने के लिए बहुत से कदम उठाए हैं। जैसे कम्प्यूटरीकृत मतदाता सूची, मतदाता पहचान पत्र आदि की शुरूआत। इस तरह के सुधार में भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

आज चुनाव आयोग का कार्य कई गुना बढ़ गया है क्योंकि पहले आम चुनाव में हमारे यहां 176 मिलियन मतदाता थे। और पन्द्रहवें आम चुनाव में इनकी संख्या बढ़कर 716 मिलियन तक पहुंच गई है। मतदाताओं की संख्या यूरोपीयन यूनियन और अमेरिका के जनसंख्या के बराबर है। मतदाताओं की इतनी बड़ी संख्या के लिए मतदान का असाधारण प्रबंधन और समन्वय चाहिए। यह असाधारण प्रबंधन और समन्वय चुनाव आयोग ने दिखाया है। इसने भारतीय लोकतंत्र को ही मजबूत नहीं किया है। अपितु भारत के संस्थागत तकनीकी को विश्व में उचित स्थान दिलाया है। इन्हीं कारणों से भारतीय चुनाव आयोग को अपना अनुभव बांटने के लिए दूसरे देशों से भी बुलावा आता है।

यह अपनी स्थापना (1950) के समय से 1989 तक एकल सदस्ययी रहा। लेकिन 16 अक्टूबर 1989 को ठीक 9वें आम चुनाव के एक सप्ताह पहले कांग्रेस आई ने दो और चुनाव आयुक्तों को पदस्थापन करके इसको त्रिसदस्यीय बना दिया। उस समय दो और सदस्यों की नियुक्ति चुनाव आयोग की स्वतंत्रता से समझौते के रूप में देखा गया। इसलिए जनवरी 1990 में राष्ट्रीय मोर्चा द्वारा सत्ताा संभालते दो बढ़ाए गए आयुक्तों के पदों को समाप्त कर दिया गया। लेकिन 1993 में राष्ट्रपति ने दो आयुक्तों की संख्या बढ़ा दी तब से यह बहुसदस्यीय निकाय के रूप में कार्य कर रहा है।

कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं ने समय-समय पर इसकी साख को कमजोर किया है। गत वर्ष एन गोपालास्वामी द्वारा अपने सहयोगी नवीन चावला पर लगाए गए आरोपों ने चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया। उन आरोपों में एन. गोपालास्वामी ने राष्ट्रपति से नवीन चावला को पद से मुक्त करने की अनुशंषा की थी। उन्होंने अपने नब्बे पृष्ठों के अनुशंसा में नवीन चावला द्वारा किए गए गलत कार्यों का उदाहरण दिया था। इन अनुशंसा में चावला पर चुनाव की तारीख लीक करने का और कांग्रेस पार्टी के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैये के बारे में जिक्र किया गया था। जहां तक चावला की छवि की बात है तो चावला के शुरूआती दौर के चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्ति को ही सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। पता नहीं किन वजहों से सर्वोच्च न्यायालय ने अभी तक इस मामले पर कोई सुनवाई नहीं की है।

इन सब आरोपों और पहले से ही चावला की विवादास्पद छवि होने के बावजूद अपने पद पर सत्तारूढ़ दल से नजदीकी के कारण बने रहे। और वरिष्ठता के आधार पर उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त भी बना दिया गया। यह घटना चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त के चयन सम्बंधी खामियों को उजागर करती है। इस चयन पक्रिया में अनिवार्य सुधार की आवश्यकता है। यहां द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग द्वारा दिए गए रिपोर्टों का जिक्र करना उचित होगा। वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में गठित इस आयोग ने सुझाव दिया कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति एक कॉलोजियम द्वारा की जाएगी। उस कॉलोजियम के सदस्य लोकसभा अध्यक्ष प्रतिपक्ष का नेता कानून मंत्री और राज्यसभा का उपाध्यक्ष होगा। इस कॉलोजियम के अध्यक्ष प्रधानमंत्री होंगे। लेकिन इस सुझाव को अब तक लागू नहीं किया गया। वर्तमान में मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति मंत्रीपरिषद की सलाह पर राष्ट्रपति करता है। इस तरह की नियुक्ति पक्षपातपूर्ण होने की पूरी सम्भावना होती है। यह नियुक्ति प्रणाली की एक मुख्य कमजोरी है। प्रतिपक्ष के नेता का चयन समिति में शामिल होने से इस कमी को बहुत हद तक दूर किया जा सकता है। और बहुत हद तक एक निष्पक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त की कल्पना की जा सकती है।

दूसरी महत्वपूर्ण चीज जो कि चुनाव आयुक्तों को निष्पक्ष बनाने में योगदान कर सकती है। वह मुख्य चुनाव आयुक्त को अपने पद से सेवा समाप्ति के बाद भविष्य में किसी भी लाभ के पद पर न बैठाया जाए। इसके लिए वर्तमान संविधान में संशोधन करके इस पाबंदी को बाध्यकारी बनाया जाए। भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एम.एस. गिल का राज्य सभा में मनोनयन और बाद में केन्द्र सरकार में मंत्री का पद दे देना, एक गलत परम्परा की शुरूआत है। सत्ताारूढ़ दल के प्रति पक्षपातपूर्णता को बढ़ावा देता है इस तरह की नियुक्ति संस्था की विश्वसनीयता को कम करती है। चुनाव आयोग लोकतंत्र की आत्मा है। इसके निष्पक्षतापूर्ण बर्ताव एक स्वस्थ लोकतंत्र का निर्माण करती है।

दूसरी मुख्य चिंता का विषय है मतदान में अधिक से अधिक लोगों की भागीदारी सुनिश्चित हो। जिस तरह से चुनाव आयोग ने पोलिंग बूथ का प्रबंधन किया था, वह प्रशंसनीय है। पिछले लोकसभा के चुनाव में आठ लाख पोलिंग बूथ बने। लगभग 5 मिलियन लोगों को चुनाव प्रक्रिया में लगाया गया यहां तक कि केवल एक वोट के लिए एक बूथ का निर्माण किया गया था। और एक पोलिंग बूथ तो 15,300 फीट की ऊंचाई पर था। यह एक-एक मत के महत्ता को दर्शाता है। इस तरह के अच्छे प्रबंधन के बावजूद वोट प्रतिशत बढ़ाने में उतनी सफलता नहीं मिली है। इंटरनेट वोटिंग मतदान को सुविधाजनक बना सकता है। इसलिए इस पर गम्भीरता से विचार और इसकी तकनीकी पर शोध की जरूरत है। अमेरिकी कांग्रेस ने अपने देश में आनलाईन वोटिंग पर विचार करना शुरू कर दिया है। हमारे यहां भी इस पर विचार किया जा सकता है। भागीदारी लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अनिवार्य मतदान (स्थानीय निकाय) करने की पहल गुजरात सरकार द्वारा प्रशंसनीय है। लेकिन साथ ही साथ मतदान को सुविधाजनक बनाया जाना चाहिए। इसके लिए अधिक से अधिक सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल होना चाहिए।

ऊपर उठाए गए प्रश्नों पर यथासम्भव विचार करने की जरूरत है।

-विकास आनंद

(लेखक ने जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय से अंतरराष्‍ट्रीय राजनीति में एमए किया है)

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