डॉ. आशीष वशिष्ठ
आजादी मिले 65 वर्ष हो चुका है लेकिन देश की आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी गुलामों सी जिन्दगी बसर करने को मजबूर है। यह वो कड़वी हकीकत है जिसे पचा पाना शायद थोड़ा मुशकिल है लेकिन इससे सच्चाई बदलने वाली नहीं है। आजादी के बाद आम आदमी के जीवन में मामूली सुधार ही आया है। किसान, मजदूर, आदिवासी, कलाकार, कारीगर और तमाम मेहनतकश पहले की भांति आज भी दुशवारियों और परेशानियों में जिन्दगी बिता रहे हैं। महिलाओं के प्रति समाज का नजरियां थोड़ा बदला जरूर है लेकिन आज भी खाप और फतवे उसके पांवों में बेडिय़ां डालने से बाज नहीं आ रहे हैं।
भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, मंहगाई, बेरोजगारी और गरीबी ने देशवासियों को बेदम कर रखा है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और लोकतंत्र का चौथा खंभा प्रेस अपनी राह से भटक चुके हैं। जिनके कंधों पर देश चलाने की भारी-भरकम जिम्मेदारी है वो आम आदमी को आश्वासनों की चाकलेट और चासनी चटाकर जात-पात, क्षेत्रवाद और बोली-भाषा के भेद में उलझाकर फाइव स्टार जिंदगी बिता रहे हैं। भूख, गरीबी और अभाव आबादी के बड़े हिस्से की नियति बन चुकी है। सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार इस कदर हावी चुका है कि उसके सफाये के लिए जनआंदोलन चलाए जा रहे हैं। पिछले साढे छह दशकों में हमने अगर कुछ प्रगति की भी है तो वो सीमित लोगों, समूह और घरानों ने। ऐसे विपरित या विषम स्थितियों में यह कहना कि देश आजाद है एक क्रूर मजाक से बढक़र कुछ और नहीं है। असलियत यह है कि देश की आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी गुलामों सी जिंदगी बिता रहा है।
ब्रिटिश हुकूमत में हिंदुस्तानियों को लगता था कि आजाद होकर हम अपने सपनों और कल्पनाओं का नया राष्ट्र बनाएंगे। लेकिन आजादी मिलने के एक दशक के भीतर ही देश में अव्यवस्था का बोलबाला शुरू हो गया। जिनके कंधों पर देश निर्माण की अहम् जिम्मेदारी थी वो राह से भटक गए। नेता देश सेवा, निर्माण और कल्याणकारी कार्यों की अपेक्षा स्व: निर्माण में मेहनत करने लगे। नेताओं और रहनुमाओं के स्वार्थी चरित्र की कोख से भ्रष्टाचार का जन्म हुआ। नेताओं की देखा देखी नौकरशाह और सरकारी अमला भी उसी राह पर चल पड़ा। आजादी के कुछ वर्षों बाद जो व्यवस्था पटरी से उतरी थी वो आज तक पटरी पर नहीं आ पायी है। ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार का ऑक्टोपस अपनी जड़ें जमा चुका है। सरकारी महकमों में बिना कुछ लिए-दिए हो पाना संभव ही नहीं है। भ्रष्ट्रतंत्र और व्यवस्था में ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और अनुशासनप्रिय अधिकारी-कर्मचारी हाशिए पर हैं और भ्रष्टï सिरमौर बने हैं।
भ्रष्टाचार की बीमारी ने देश की अर्थव्यवस्था, सामाजिक तानें-बानें और राजनीतिक माहौल को इस कदर गंदा किया है कि राजनीति और सरकारी महकमों की चौखट से ही बदबू आने है। भ्रष्टाचार ने व्यवस्था के तालाब को इस कदर गंधा दिया है कि मीलों दूर से ही संडाध आने लगी है और दुनिया के भ्रष्ट देशों में हम ऊंचे पायदान पर खड़े हैं। आजादी के बाद से अब तक हुए घोटालों, घपलों और भ्रष्टïचार के इतने मामले अब तक प्रकाश में आ चुके हैं कि उन पर कई ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। सरकारी योजनाएं भ्रष्टाचार और लूट का पर्याय बन गई हैं। नेता, अधिकारी और दलालों को गठजोड़ पूरे सिस्टम पर भारी है। गुण्डे, माफिया और अपराधी संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं और राजनीति सेवा की बजाए धंधे और नौकरी में तब्दील हो गई है। नेताओं के आचरण, व्यवहार और बदले चरित्र का खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है। आजादी से पूर्व जिन नेताओं और कर्णधारों को पूजा जाता था आज उन्हीं पर जूता उछाला जा रहा है। कांडों, घोटालों, अपराधों और दंगों में विधायिकां की हिस्सेदारी सोचने को विवश करती है कि हमने अपनी जिंदगी और तकदीर किन हाथों में सौंप रखी है।
धरतीपुत्र किसान देश में सबसे अधिक तकलीफ में हैं। हर साल किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा ऊपर चढ़ता जा रहा है। सरकार किसानों की भलाई और भले की बातें तो खूब करती है, सरकारी फाइलों में कल्याणकारी योजनाओं का भी कोई टोटा नहीं है लेकिन किसान की मूलभूत जरूरतों और समस्याओं को समझने और उनका स्थायी हल निकालने का समय किसी के पास नहीं है। सरकार का ध्यान भूखे, नंगे और कर्ज में डूबे किसानों को के्रडिट कार्ड देने और जबरदस्ती उसकी उपजाऊ जमीनों को हड़पने में है। किसानों के विरोध और जायज मांगों को लाठी चार्ज और गोली चलाकर दबाने की हर संभव कोशिशें क्या ब्रिटिश हुकूमत के काले दिनों की याद नहीं दिलाती हैं जब किसानों से लगान वसूलने के लिए कोड़े बरसाए जाते थे, किसान तब भी दु:खी था किसान आज भी दु:खी है तो फिर किसान के लिए गुलामी और आजादी में क्या फर्क?
पिछले छह दशकों में अमीर और गरीब में खाई बढ़ी हैं। मजदूरों की हालत बद से बदलतर हुई है। विदेशी ताकतों और कंपनियों के हाथों में सरकार और सरकारी अमला खेल रहा है। श्रम कानून श्रमिक हितों की बजाए कारपोरेट के मददगार साबित हो रहे हैं। सरकारी योजनाओं में लूट के कारण गरीब, किसान, मजदूर, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों को उनके हक हासिल नहीं हो पा रहा है। महिलाएं तब भी दु:खी थी और आज भी दु:खी हैं। चंद क्षेत्रों में कुछ हजार महिलाओं के नौकरी करने का अगर तरक्की मान लेना अर्धसत्य होगा। आज भी महिलाओं के खान-पान, रहन-सहन और ओढऩे-पहनने पर पुरूषों का पहरा बदस्तूर जारी है। आजादी के पूर्व बने कानून और नियम देश में जारी है। देश की जनता घुट-घुटकर मर रही है और सरकार देश की जनता की समस्याओं, परेशानियों और दु:ख-दर्द को जानने समझने की बजाए वोट बैकं की राजनीति में मशगूल है। नीतियां, कानून और व्यवस्था में मामूली सुधार ही आया है, असलियत यह है कि देश आज भी पुराने ढर्रे पर चल रहा है बस हुकूमत स्वदेशी हाथों में आयी है।
देश का आम आदमी नाली, सडक़, पानी और बिजली के फेर में झूल रहा है। बाल श्रम, बाल विवाह और बाल वेश्यावृति का दायरा फैलता जा रहा है। विधवाएं नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। कन्या भ्रूण हत्या पर लगाम नहीं लग पा रही है। जज्चा-बच्चा की मौत का ग्राफ नित नई ऊचांईयां छू रहा है। इलाज के अभाव में मरने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। माफिया, दलाल और गुण्डे व्यवस्था पर हावी हैं। विदेश कंपनियां देसी उधोग-धंधों का नाश कर रही हैं। मजदूर, कारीगर और कलाकार गुमनामी की गलियों में खोते जा रहे हैं। अब इन हालातों में अगर कोई ये कहे कि देश आजाद है और हम आजाद देश के वासी हैं तो सुनकर थोड़ा कष्ट होता है। और दुर्भाग्य यह है कि आम आदमी की आवाज सुनने वाला कोई नहीं है और जनता अभाव, गरीबी और कष्टï के साथ जीने को मजबूर है। इन हालातों में यही एहसास होता है कि हम आजाद देश के गुलाम हैं।
आशीष जी आपने लक्ष्ण बताये हैं जबकि बीमारी पूंजीवाद और भ्रष्टाचार है.
“गुलाम देश के भ्रमित नागरिक” लिखना ज्यादा सटीक होगा . देश आजाद है ऐसा कह कर अब तक जनता को भरमाये रखने में कांग्रेसियों की मदद मत कीजिये . देश गुलाम ही है , यह सच स्वीकारने का साहस दिखाइये और इस गुलामी के विरुद्ध जनता को निर्नायका लड़ाई के लिए भडकाइये .