स्मृति शेष लोक संस्कृति के चितेरे चित्तू टुडू

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13_07_2016-13ban27-c-2कुमार कृष्णन

बिहार के बांका जिले के जंगली पहाड़ी भूगोल पर आबाद साहूपोखर भी अन्य संथाली गांवों जैसा ही है- एक जैसी सामाजिक संरचना, एक जैसी संस्कृति, एक समान दिनचर्या, यानी मवेशी चराना, खेतों में हाड़ तोड़ मेहनत,थकान मिटाने के लिए पोचवई के घूंट या महुआ मद से प्यार और चैपाल में चूंटी में फूंक मार धुंआ उगल कर नई उर्जा पाने के मुगालतों के बीच नृत्य, गीत और संगीत। ऐसे में किसी चित्तू टुडू का कितावों से प्यार करते हुए लीक से हटकर नई मंजिल पाने के सपने बुनना कितना मुश्किल भरा काम हो सकता है, आसानी से समझा जा सकता है। कह सकते हैं कि हर मोर्चे पर पिछड़े और संकीर्ण विचारों में जकड़े समाज की घेराबंदी तोड़कर एक नई राह की ओर अग्रसर होने की जिद्द और जज्बे ने ही चित्तू टुडू की मनमुआफिक मंजिल की जुस्तजू पूरी की। सपनों का सच होना ही इसे कहते हैं। लेकिन संपूर्ण प्रकिया के बीच बहुत कुछ बदल जाता है- हाल और हालात नहीं, संघर्ष के तौर, कल्पना का आकाश और हकीकत की जमीन तक भी। यही वजह है कि लोग जब बहुत आगे बढ़ जाते हैं तो पीछे मुड़कर देखना अपनी तौहीन समझने लगते हैं। लेकिन यह बात चित्तू टुडू के उपर लागू नहीं होती है। यूं कहें कि इन हालात को उन्होंने अपने उपर लागू नहीं होने दिया तो गलत नहीं होगा। आते जाते समय की जरूरी शर्त है परिवर्तन। तभी तो जिन्दगी चुटकी से बीत जाती है। तभी तो उबड़ खाबड़ समय पथ पर हिलकोचे खाता उम्र का सफर क्यों कर बचपन से जबान और बुढ़ापे की दहलीज में जा पहुंचता है, राहेहयात कंे किसी मोड़ पर इसका एहसास तक नहीं हो पाता है। जब तक पता चलता है, धरती रंग बदल चुकी होती है और आसमान पुराना पड़ चुका होता है। यह धरती, यह आसमान उसी का हो पाता है जो मेहनत और संघर्ष के आंचल में समय को बांधने में समर्थ हो पाता है, वरना तो वर्तमान के दरकते ही अतीत भी उसी क्षण उसमें दफने कब्र हो जाता है। शख्सीयत की ऐसी बुलंदी का एहसास कराने का नाम है चित्तू टुडू यानी पद्मश्री चित्तू टुडू अर्थात सत्तासी साल का अतीत का एक जिन्दा दस्तावेज, जिसक हर पन्ने पर दर्ज हरफ शायद ही कभी बासी पड़े। चित्तू टुडू आदिवासी संस्कृति के पहरूआ थे जिन्होंने अपनी सृजन धर्मिता से जनजातीय कला, साहित्य और संस्कृति को समृद्ध किया है। जीवन के अंतिम क्षणों तक लोक संस्कृति के छिपे अध्यायों को प्रकाश में लाने की दिशा में निरंतर कार्य करते रहे।उन्होंने समाज को सदा देने का काम किया। चाहे वह साहित्य का क्षेत्र हो या कला का या फिर समाजी काम का। 87 वर्षीय चित्तू टुडू का जन्म भागलपुर प्रमंडल के बांका जिले के बौसी प्रखंड के साहूपोखर में हुआ, हालांकि इनकी तालीम मैट्रिक तक ही हुई, लेकिन जीवन की पाठशाला में इन्होंने बहुत कुछ हासिल किया, निरंतर संघर्ष के बूते बुलंदियों तक पहुँचे, भौतिकता की दौड़ और चका-चैंध से दूर रहकर हमेशा उस समाज के लिए सोचा, जिस समाज की बदौलत उन्होंने यह मुकाम बनाया, ’’साई इतना दीजिए जामे कुटंब समाय ’’ इसी सिद्धान्त को सोच और सिद्धान्त के तर्ज पर काम करते रहे, आरंभ से ही उनके मन में देश और समाज के लिए कुछ करने का एक जज्वा रहा। देश जब गुलाम था तो स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े-बड़े नेताओं का संदेश जनजातीय समुदाय तक पहुँचना उनका मुख्य काम था। इसके लिए वे संताल परगना कांग्रेस कमेटी से जुड़े तथा इनका सम्पर्क स्वतंत्रता सेनानी लाल बाबा से हुई। विशिष्ट व्यक्तियों के जन सभा में वे दुभाषिये के रूप में काम करने लगे। जगह-जगह जाकर स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में जन सम्पर्क का काम किया। आजादी की लड़ाई के इसी जनसम्पर्क ने उन्हें सरकारी जन सम्पर्क की राह दिखाई। भागलपुर का क्षेत्र साहित्य संस्कृति के दृष्टिकोण से काफी समृद्ध रहा है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के सानिध्य में आए।

उन्होंने सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग में प्रचार संगठनकर्ता की जिम्मेदारी दी। यहां उनकी सृजन धर्मिता को नया आयाम मिलता रहा। स्वअध्याय के बूते इन्होंने अंगे्रजी, हिन्दी संताली, बंगाली, मुंडारी, नागपुरिया आदि भाषाओं में दक्षता हासिल की। साथ ही देवनागरी लिपि में संताली भाषा एवं साहित्य की अभूतपूर्व सेवा की । सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग में गीत नाट्य शाखा के संताली भाषा के संगठनकर्ता, 1958 में अपर जिला जन-सम्पर्क पदाधिकारी, 1959 में जिला जनसम्पर्क पदाधिकारी 1977 में उप जनसम्पर्क निदेशक और 1984 में संयुक्त निदेशक के पद पर प्रोन्नत हुए। अपनी सेवावधि में पाकुड़, चाईबासा, डाल्टनगंज, राँची और भागलपुर में रहकर कार्य किया तथा 1990 में संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए। लोक साहित्य और लोक संस्कृति के क्षेत्र में संताली लोकगीत और कविताओं की रचना के साथ-साथ और अनेक साहित्यक कृतियों की रचना की। संताली भाषा में जवाहरलाल नेहरू की जीवनी पर आधारित पुस्तक प्रकाशित हुई। वहीं रास बिहारी लाल के हिन्दी नाटक ’’नए-नए रास्ते ’’ का संताली भाषा में अनुवाद किया। संताली लोक गीतों का संग्रह ’जंवाय धुति’ उनकी महत्वपूर्ण कृति है। आदिवासी जीवन के सामाजिक सांस्कृतिक पहलू पर रांची से ’’आदिवासी’’ तथा संताल परगना से प्रकाशित सप्ताहिक ’’होड़ संवाद’’ में ढेर सारी रचनाएँ प्रकाशित हुई है जो संताली साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में खास अहमियत रखती है। “आदिवासी” पत्रिका के संपादक राधाकृष्ण एक मंजे हुए साहित्यकार थे। उन्हें जनजातीय मुद्दों पर लिखनेवाले लेखकों के साथ जोड़ा।साहित्य के क्षेत्र में सुरेश सिंह के साथ मिलकर काम किया। सुरेश सिंह ने “ बिरसा का उलगुलान ” सहित कई पुस्तकें लिखी है। वे कभी वर्तमान झारखंड में अनुमंडलाधिकारी थे और चित्तु टुडू सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग में अधिकारी।उस दौर में वे खुद लिखते और उन्हें महत्वपूर्ण संदर्भों से वाकिफ भी करते। संताली विवाह लोक गीत संग्रह ’’ सोने की सिकड़ी रूपा की नथिया’’ संताली भाषा से अनभिज्ञ लोगों को इस संस्कृति से वाकिफ कराने की महत्वपूर्ण कड़ी है, इसका अनुवाद हिन्दी में भी है। और सहयोगी लेखक शिव शंकर सिंह पारिजात हैं, इस पुस्तक के संदर्भ में स्वयं चित्तु टुडू बताते हुए कहा था कि 6 अप्रैल 1992 को राष्ट्रपति भवन में कला के लिए तात्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकट रमण ने ’पद्म पुरस्कार’’ से सम्मानित किया। समारोह में मशहूर फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन, अटल बिहारी वाजपेयी, संगीतकार कल्याणजी, आनंदजी से मुलाकात हुई। बात-चीत के क्रम में संगीतकार कल्याणजी, आनंदजी ने कुछ संताली लोक गीतों को संकलित करने का आग्रह किया । उनके आग्रह पर संताली गीत संकलित करने की बजाय पूरा संग्रह ही प्रकाशित किया। बाद में राजकमल प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया। यह झारखण्ड के सिद्धो कान्हू विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल है। उनका मानना था कि संताली लोक गीत सिर्फ लोक साहित्य के अमूल्य रत्न ही नहीं हैं, वरन् एक समृद्ध परंपरा, सम्पन्न सम्यता और जीवन संस्कृति के इतिवृत है। बिहार सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग ने टुडू द्वारा रचित संताली लोक गीतों का उनके ही कंठ स्वर और संगीत निर्देशन में ग्रामोफोन रिकार्ड तैयार कराकर आदिवासी क्षेत्रों में वितरित कराया। संताली लोक गीतों की संरचना और नृत्य संगीत निर्देशन, कोरियोग्राफी में उनकी दक्षता, प्रवीणता और पांडित्य को देखते हुए बिहार सरकार ने उनके नेत्त्व और निर्देशन में 1976 से 1986 तक नई दिल्ली में प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस के समारोह पर होनेवाले आयोजन में आदिवासी नर्तक दल को भेजा। इनके निर्देशन में प्रस्तुत लोक नृत्यों की सराहना तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, राजीव गांधी, तात्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीय रेड्डी, ज्ञानी जैल सिंह, और आर॰ बेंकट रमण आदि ने खुले कंठ से सराहना की, सम्मानित किया। बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा उनकी प्रकाशित कृति जवाहर लाल नेहरू पर तत्कालीन मुख्यमंत्री बिन्देश्वरी प्रसाद दूबे ने चार हजार रूपये नगद तथा प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया। वे हमेशा कहते थे कि संताल आदिवासी झारखण्ड के संताल परगना, धनवाद, सिंहभूम के अतिरिक्त बिहार के भागलपुर, बांका, मुंगेर, जमुई, कटिहार, तथा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा असम, मेधालय, आदि राज्यों तथा पड़ोसी देश नेपाल और बंगलादेश में बसे हुए हैं। आधुनिकता तथा विकास की दौड़ में इनका पुरातन स्वरूप खत्म होता जा रहा है, लेकिन वर्तमान परिवेश में परंपरा, साहित्य और संस्कृति की बातें ज्यादा आकर्षित करती है। पांच वर्ष पूर्व जब मैं उनसे अपने मित्र शिवशंकर सिंह पारिजात के साथ उनसे मिलने उनके गांव साहूपोखर गया था तो बातचीत के क्रम में उन्होंने कहा था कि आदिवासी रचनाकार की भूमिका चुनौतियों से भरी पड़ी है। इतिहास में आदिवासी की भूमिका तलाशे, विस्थापन की समस्या से जूझे, धर्म के ठेकेदारों से लड़े, भू-मंडलीकरण के सवालों से दो-दो हाथ हो, अपने समाज की बुराईयों से लड़े, वर्ग तथा वर्णभेद की समस्याओं से लड़े।

जमीन माफियाओं से अपनी जमीन बचाए, जंगल कटने से रोके, कला संस्कृति तथा भाषा बचाए, भूख से मरते लोगों को बचाए या उपनिवेशवादी, पूंजीवादी सामाजिक अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्ष करें ! क्या करें वह ? इन सवालों का प्रभाव विस्तार आदिवासी समाज को किस तरफ ले जा रहे हैं या ले जा सकते हैं, इससे अगाह करना आदिवासी रचनाकारों के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती है। जिन सवालों से यह देश जूझ रहा है,उन सभी सवालों से आदिवासियों को लड़ना पड़ रहा है, साथ ही उन्हें अस्तिव के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। चैतरफा संघर्ष में घिरे आदिवासी समाज का मार्गदर्शन करना ही आदिवासी लेखकों और कलाकारों का कर्तव्य है। हासा, भाषा और संस्कृति के समक्ष उत्पन्न संकट से चिंतित रहते थे। उस मुलाकात में अपनी कविता पूरे आत्मविश्वास से लवरेज होकर सुनायी। श्री टुडू ने संताली सांस्कृतिक परिषद् रांची, संताली साहित्य परिषद् दुमका से जुड़कर संताली साहित्य संस्कृति के संवद्धन में अहम् भूमिका अदा की और इन संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित किया। सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में अपने कार्यकाल के दौरान ग्रामीण क्षेत्र के प्रशासन तथा आदिवासियों के बीच तादातभ्य स्थापित करने, आदिवासियों के बीच शिक्षा का प्रसार एवं जन जागरण करने जिला प्रशासन की मदद से विकास योजनाओं को कार्यान्वित कराने में अहम् भूमिका अदा की। भागलपुर एवं संताल परगना के आदिवासियों के बीच सामाजिक चेतना विकसित करने एवं शिक्षा प्रसार हेतु अपनी 5 एकड़ एकड़ निजी जमीन देकर स्कूल भवन का निर्माण कराया। जमीन शिक्षा जिस पर बना सरकारी उच्च विद्यालय उनके गहरे सामाजिक सरोकारों की कहानी कह रहा है। इनकी कार्यक्षमता को देखते हुए बिहार सरकार द्वारा इन्हें पांच वर्षों के लिए नई दिल्ली स्थित नृत्य संगीत नाटक एकेडमी का सदस्य भी मनोनित किया गया। यत्र-तत्र विखरे आदिवासी लोक नर्तकों की खोज, इन्हें संगठित करने, संरक्षण देने और मंच पर लाने की दिशा में अहम् भूमिका निभायी। उम्र के इस पड़ाव में भी वे थके नहीं थे, वन प्रांतरों में छिपे लोक संस्कृति के नए-नए अध्यायों को तलाशते रहे। जन जातीय संस्कृति के विभिन्न पहलुओं के अध्ययन और समस्याओं के संदर्भ में उनका दृष्टिकोण स्पष्ट रहा। जनजातियों के सवाल पर अलग राज्य झारखण्ड का गठन हो गया और इसके पंद्रह साल होने को हैं। चित्तू टुडू अपने आदिवासी बहुल गांव बिहार के साहू पोखर में ही अपना जीवन गुमनामी में विता रहे थे। उम्र के इस पड़ाब में अपनी कविता गढ़ते और मिलनेवाले लोगों को सुनाते। जब हालात की चर्चा होती तो कहते जल जंगल और जमीन को मसला एक महत्वपूर्ण मसला है। विकास में इन्हें सहभागी बनाने की जरूरत है, न कि इन्हें उजाड़ा जाय। वहरहाल चित्तू टुडू का आदिवासी मन स्वांतः सुखाय अपने विचारों की राह में एकला चलों के सिद्धान पर चलायमान रहे। आज जब सरकार तथा जनता के बीच की दूरियाँ निरंतर बढ़ती जा रही है और जन जातीय संस्कृति उपेक्षा भाव से ग्रसित हो रही है तो ऐसी परिस्थति में पद्म श्री चित्तू टुडू के जनोन्मुखी अनुभवों और विचारों की मदद से जन जातीय समुदाय में संवाद की प्रक्रिया को और भी प्रभावी बनाया जा सकता था, पर इसकी जरूरत न तो जन जातीय समुदायों को तथा कथित विकास के पथ पर अग्रसर करने वाले अनुदान भोगी संगठनों को। जब उन्हें पता चला कि झारखंड की झांकी को गणतंत्र दिवस में दूसरा स्थान मिला है तो खुशी से झूम उठे। उनके काम की कीमत न तो अवकाशग्रहण के बाद झारखंड सरकार ने समझी और न ही बिहार सरकार ने। 13 जुलाई को उन्होंने जीवन की अंतिम सांस ली। अपने जीवन के अनुभव की संपदा को साथ लेते वे चले गये और रह गयी हैं सिर्फ उनकी यादें।

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