संस्कर्ती शब्द और शब्दों से जुडी शिक्षा

रामचरित मानस कि एक चोपाइ है “भय बिनु होइ न प्रीति ” इस कथन मे कितनी  सत्यता विध्मान है, यह हम जीवन मे उतार कर देख् सकते है। अगर शिक्षा पर  विचार करे तो आज कि शिक्षा प्रणाली कई खामियो से भरी नजर आती है। शिक्षा

का मूळ उदेष्य जीवन को उन्नत ओर विकसित करने के साथ प्रकर्ती के सूक्षम  रहस्यो को जानना होता है, न कि उन्हे मानवीय काम्जोरियो कि ओर पुनः धकेल देना है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली नैतिक मुल्यो से रहित होती जा रही है। जीवन मुल्यो का शिक्षा मे कोई महत्व नही रह गया है। शिक्षा एक व्यापार बन गया है ।शिक्षक का महत्व नोकर से ज्यादा नही रह गया है, अध्यापक का मान सम्मान मिट्टी मे मिल गया है, विध्यार्थी को अध्यापक से कोई किसी प्रकार  का कोई भय नही रह गया है ओर इस शिक्षा प्रणाली कि सबसे बडी कमी भी यही  है “भय का निंतात अभाव ” । यहा भय का अर्थ खतरनाक खोफ से नही है यह तो विकासशील जीवन के लिये आवश्यक अंग है। अन्य शब्दो मे कहे तो यह भय वरिष्ठ विधार्थियो के सम्मान मे भी अहम भूमिका निभाता है। एक छोटे बच्चे को मां से उतना भय नही होता जितना कि एक पिता से होता है। ओर पिता से उतना भय नही होता है जितना कि गुरुजनो से होता है। मान सम्मान और आदर सूचक शब्दों की गहराइयो में कोई शब्द छिपा है, तो वो है भय यही कारण रहा है हमारी उस उज्ज्वल गुरु शिष्य प्रणाली के कारन यह सनातन संस्क्रती विश्व की सिरमोर संस्क्रती रही, और यह देश विश्वगुरु रहा। परन्तु समय के बदलते प्रवाह के साथ गुरु शिष्य की उस प्राचीन समर्पित शिक्षा प्रणाली के सिद्धांतो को ही नहीं बदला गया बल्कि शब्दों में भी परिवर्तन किया गया। गुरु और शिष्य इन शब्दों की जगह शिक्षक और विद्यार्थी शब्दों की शुरुआत हुई। उसी दिन इस रिश्ते में समर्पण कम होने लगा और खटास बढ़ने लगी। परन्तु बहुत हद तक इस रिश्ते में मान सम्मान समर्पण और सहानुभूति की हलकी छाया विधमान थी।शिक्षक समाज की रूह और विद्यार्थी के भविष्य का आधारस्तंभ होता है सभ्यताओ का रक्षक व् सरंक्षक भी वही होता है सीखने की जिज्ञासा और सिखाने की मनोवर्ती ही इस रिश्ते को बनाये हुए थी। मजबूर कोई नहीं था फिर भी कर्तव्य की डोर से दोनों बंधे हुए थे।

वक्त को यह मंजूर नहीं था वो आगे बढा और इस सनातन संस्कर्ती को पाश्चात्यो की परतंत्रता में जकड दिया और इस परतंत्रता ने दया करुणा और प्रेम जिससे यह संस्कर्ती सरोबार थी उसे मिटाकर इसमें स्वार्थ का एक बिज बो दिया। जिस संस्कर्ती में स्वार्थ

का कोई बिज नहीं था उसी जमी पर इस बिज का अंकुरण ही नहीं फूटा ,बल्कि एक वटवर्क्ष की तरह फ़ैल गया। यहाँ की संस्कर्ती को पेरो तले रोंदा गया, यहाँ के इतिहास को ही नहीं बदला गया बल्कि लोगो की मानसिकताए बदली गयी। इसके लिए मानवीय कमजोरियों को हथियार बनाया गया। शासक, सेठ और साहूकार को वासनाओ का शिकार बनाया गया । उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग बनाकर आम जनता पर कहर थोपा गया। कुछ ने विरोध किया ,कुछ ने सहायता की, विरोधियो को बन्दुक की नोक पर दबा दिया गया और सहायको को उचित सहायता प्रदान की गयी। यही से इस संस्कर्ती के बिखरने का दोर प्रारंभ हुआ। धीरे धीरे इसी कारनामो की बदोलत पश्चिमी संस्कर्ती का प्रचार प्रसार बढा। इस देश का धन दोलत संस्कार संस्कर्ती मिटटी के मोल बिक गए। कमजोर और विवश लोगो ने इस संस्कर्ती को अपना लिया और ये आवश्यकता भी थी। आवश्यकता इसलिए की अविकसित हमेशा विकसित की शरण लेता है शिक्षित शब्दों की शब्दों की शब्दावली में और परिवर्तन किया गया और ये शब्द उस शिक्षा प्रणाली को संस्कर्ती से बहुत दूर ले गए शब्दावली में एक “सर” और दूसरा “स्टुडेंट” शब्दों को जोड़ा गया सर शब्द आंग्ल भाषा का है। इसका हिंदी में अर्थ “श्रीमान” होता है यह शब्द सामान्यता वरिष्ठ जनों के संबोधन के लिए परुक्त होता है। इस शब्द का शिक्षा से बहुत दूर दूर तक कोई जुडाव नहीं है। फिर भी शिक्षा में इस शब्द का पार्दुभाव हुआ गुरु शब्द में उदारता है और शिष्य में समपर्ण शिक्षक। शब्द में शिक्षा की और संकेत है और विद्यार्थी में ग्रहण करने की क्षमता। परन्तु ” सर” में “श्रीमान” बसे है और स्टुडेंट में अश्लीलता। शायद इस  अश्लीलता शब्द से विवाद खड़ा हो जाये। परन्तु मैंने इसकी तह में जाकर देखा है और ये वाजिब ठहरा “सर” का सरोकार था धंधा और हुआ यही की एक निकला शिक्षा बेचने वाला और दूसरा खरीदने वाला और अनेतिक व्यपार बन गया। व्यापार में व्यापारी का एक ही उद्देश्य होता है की जायज या नाजायज तरीके से व्यापार को वाजिब ऊंचाई पर पहुचाया जाये और तरीका यह निकला की शिक्षा को कारोबार से जोड़ा गया और स्टुडेंट के असक्षम पटल पर ये शब्द अंकित हो गए और उसका रुझान कारोबार की और बढा और उसमे सिखने की प्रवर्ति कम हो गई और शिक्षक में सिखाने की क्योंकि जादूगर अगर जादू के रहस्य खोले दे तो उसे देखेगा कोंन इससे जो इस रिश्ते में आदर सूचक भय था वह समाप्त हो गया और एक अनैतिक भय ने जन्म लिया वह भय था भविष्य का क्या होगा अगर में कारोबार में सफल नहीं हो सका ,तो चिंतन की इस मुद्रा में शिखा नहीं जा सकता केवल सोचा जा सकता शिक्षा केवल सिखाने की कल्पना मात्र रह गयी और इस शिक्षा प्रणाली में स्वार्थ का भयंकर रूप पैदा हो गया । स्वार्थ भरी आँखे दूसरो को विकसित नहीं करती बल्कि दूसरो को विकसित देखकर बंद हो जाती है और वो आंखे समाज देश या मानवता को दे सकती है तो केवल आंसू। ये आंसू दर्द से भरे नहीं है ये आंसू है पश्चाताप के पश्चाताप उस समय का जो गँवा दिया बिना सीखे।

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