संतोषहीनता ही लाती है दरिद्रता

डॉ. दीपक आचार्य

 

संतोषहीनता ही लाती है दरिद्रता

 चादर जितने ही पाँव पसारें

संसार में पैदा हुए मनुष्य को थोड़ी-बहुत समझ आते ही वह चाहता है कि पूरा संसार उसका हो जाए और वह खुद भी सारे संसार को पा ले। लेकिन यह संसार और सांसारिकताएं न कभी किसी की हुई हैं न होंगी।

जो लोग संसार को अपना बनाने और मानने के भ्रम में जी रहे हैं उनके भ्रम भी देर-सबेर टूटने वाले हैं। संसार को स्वामी की बजाय ट्रस्टी मानकर उपभोग करने का जितना आनंद है उतना और किसी में नहीं। एक आदमी पांच-सात फीट के बिछौने चाहिए, तीन मुट्ठी अनाज और दो जोड़ी कपड़ों में ही गुजर-बसर कर सकता है लेकिन हम पूरी जीवन यात्रा में इतने संसाधन और सुख-सुविधा तथा भोग-विलासिता के साधनों को जमा कर लेते हैं जैसे अपना घर न होकर संग्रहालय ही हो।

मजे की बात यह है कि इतना सब कुछ होने के बावजूद हम आम लोगों की तरह न खा-पी पा रहे हैं, न मस्त रह पा रहे हैं, न नींद आती है न चैन। एक आम आदमी इन सभी संसाधनों के न होते हुए भी जितनी मस्ती के साथ जीवनयापन कर रहा है, उसकी बजाय हम सब कुछ होते हुए भी आनंद से कोसों दूर चले जा रहे हैं।

ऎसे में उन संसाधनों और सुविधाओं को जुटाने का क्या फायदा जिनके लिए हम वैध-अवैध जतन करते हैं, लोगों के हक छिनते हैं और अन्याय तथा शोषण के जंगल मेंं जंगलियों सा व्यवहार करते-फिरते हैं।

भगवान ने जो उपहार दिए हैं उनका भी हम यदि समय पर और पूरी तरह उपयोग नहीं कर पाएं तो यह हमारा ही नहीं मनुष्य जाति का दुर्भाग्य है जो पूरा जंगल चट कर जाने की तमन्ना लिए तो फिरता है लेकिन एक फीट घास तक नहीं चर पाता। जो जितना ज्यादा असन्तोषी है वह दो चपाती तक नहीं खा सकता, न कोई उसका मुँह मीठा करा सकता है।

जो लोग प्रकृति के जितना करीब रहते हैं उतने स्वस्थ, मस्त और सुखी रहते हैं। इन लोगों को न हाय-हाय होती है न और कुछ। बल्कि प्रकृति जैसा रखती है, वैसे रहते हैं और पंच तत्वों का भरपूर उपयोग करते हुए पूरी जीवनयात्रा को मस्ती के साथ गुजारते हैं।

दूसरी ओर हम हैं कि प्रकृति का तिरस्कार कर कृत्रिम साधनों और संसाधनों को ईश्वर के बराबर दर्जा देकर उनके ऎसे गुलाम हो गए हैं कि पूरी जिन्दगी ही इन पर निर्भर होकर रह गई है।

हमारा पूरा जीवन अपना नहीं रहा, जीवनीशक्ति और स्व आत्मनिर्भरता तो दूर की बातेंं हो गई हैं। बाहरी संसाधन न हों तो हमारी स्थिति अधमरों से भी ज्यादा विचित्र हो जाती है। हर दृष्टि से हम पराश्रित हो चले हैं। मन-मस्तिष्क, तन से और सेवाओं के लिहाज से भी।

हमारा हर क्षण परायेपन का अहसास कराता है जहाँ हमारा अपना कुछ नहीं है। जो कुछ है वह पराया है और परायी शक्ति से चलने वाला है। परायी ऊर्जाएं भी उनकी खुद की नहीं हैं। सब परायों का, परायों से भरोसे है। एक पूरी श्रृंखला हो चुकी है परायेपन की, जहां बीच में कहीं कोई एक कड़ी टूट जाती है तो पूरी श्रृंखला ही नाकारा हो जाती है।

मन की असीमित कल्पनाएं और मस्तिष्क की अनन्त सोच ने मिलकर आदमी के संतोष को छिन लिया है और जहाँ संतोष काफूर हो जाता है वहां सब कुछ होते हुए भी शून्य का अहसास होता है।

आज आम आदमी को अच्छी तरह जीने के लिए जितनी वस्तुओं और संसाधनों की जरूरत होती है उसी में यदि संतोष कर लिया जाए तो कोई कारण नहीं कि हर व्यक्ति आत्मनिर्भर, स्वस्थ एवं मस्त हो। लेकिन सामान्य बुद्धि का आदमी ऎसा नहीं कर पाता क्योंकि वह जिस परिवेश में रहता है वहाँ यथार्थ और सच्चाई को स्वीकार करते हुए जीवनयापन से कहीं ज्यादा दिखावटी जीवननिर्वाह हो गया है।

हम संतोष के साथ सीमित संसाधनों में बेहतर ढंग से जिन्दगी का निर्वाह कर सकते हैं लेकिन दूसरे लोग क्या कहेंगे, इस फेर में हमने अपनी पूरी जिन्दगी ही दूसरों के हवाले कर दी है जहां दूसरे लोग हमारे जीवन के निर्णायक हो गए हैं। जब अपने निर्णायक दूसरे लोग हो जाते हैं तब हम इंसानियत खो देते हैं और पशुता भरे माहौल में प्रवेश कर चुके होते हैं।

हर आदमी फैशनपरस्ती और दूसरों को अच्छा दिखाने, दूसरों की निगाह में अच्छा बने रहने के लिए ऎसे-ऎसे हथकण्डे अपनाने लगा है जहाँ उसका संतोष जवाब दे गया है और उसका स्थान ले लिया है दिखावे ने। लोग कर्ज लेकर भी दूसरों की निगाह में अच्छा दिखने को जीवन का सबसे बड़ा मकसद समझ बैठे हैं।

इसी प्रकार नकल के मामले में हमने बन्दरों को भी पीछे छोड़ दिया है। कोई वस्तु हमारे काम की हो या न हो, लेकिन अपने घर लाना इसलिए जरूरी है कि हमारे पड़ोसी के पास है, रिश्तेदारों के पास है। इस विकृत मनोवृत्ति के चलते हम जीवन का मकसद ही पूरी तरह भुला बैठे हैं और बेवकूफ नकलचियों अंधी दौड़ में शामिल होते चले जा रहे हैं।

रोजमर्रा की जिन्दगी में हम देखें तो पता चलेगा कि हमारे घर में ऎसे ढेरों संसाधनों की भीड़ और कबाड़ा है जिनके बगैर भी हमारा जीवन और अच्छी तरह चल जाता। लेकिन सारे संसार को अपने घर में कैद कर डालने की मानसिकता के चलते हमारे अपने घर कबाड़ बनते जा रहे हैं और इसी कबाड़ ने हमारे पूरे जीवन का कबाड़ा करके रख दिया है। लगता है जैसे घर न होकर मशीनों या कबाड़ी का गोदाम हो।

संसार ध्रुवों तक आक्षितिज पसरा हुआ है और इसमें वस्तुओं की भरमार है और वह सब हमारे लिए नहीं बल्कि पूरे संसार के लिए है। हमारी विवेक दृष्टि जगनी चाहिए कि जीवन निर्वाह के लिए न्यूनतम आवश्यकताओं को सामने रखें और पूर्ण संतोष के साथ जीवन जीएं।

जीवन में संसाधनों की भीड़ जमा करने से कहीं ज्यादा जरूरी काम कई और भी हैं लेकिन हम पूरी जिन्दगी कबाड़ी बनकर रह गए हैं। इन हालातों से उबरने की जरूरत है। जीवन में संतोष रूपी एकमात्र धन के आ जाने पर दुनिया भर की दौलत पा जाने का अहसास करना संभव है। कहा भी गया है – असन्तुष्टा द्विजा नष्टा, संतुष्टा च महीपति।

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