संवेदनाशून्यता में संस्कृति विनाश

– हृदयनारायण दीक्षित

सृष्टि एक है। दो नहीं। यह अद्वैत है। ढेर सारे रूप हैं, जीव और वनस्पतियां हैं लेकिन समूची सृष्टि में परस्परावलम्बन है। अथर्ववेद के ऋषि गौंओं से प्रार्थना करते हैं, आपकी सन्तति बढ़े, आप स्वच्छ चारा खायें। शुध्द जल पियें – प्रजावतीः सूयवसे रूशन्ती शुध्दा अपः। (अथर्व0 4.21.7) कहते हैं, आप अपनी कल्याणकारी ध्वनि से हमारे घरों को पवित्र करें – भद्रं गृहं कृणथु भद्रवाचो। (वही 6) भारत में गाय का बोलना घर को भद्र बनाता था। उन्हें शुध्दजल पीने का निमंत्रण दिया जाता था। लेकिन आज उसी देश में गौओं को पीने का पानी नहीं मिलता। महानगरों-नगरों में पशुओं के पानी का अभाव है। सब तरफ कंक्रीट हैं। परसों मेरे घर के सामने लगे इन्डिया मार्क टू हैंडपंप की टोटी को चांटती, उसे अपने मुंह में भरती प्यासी गाय की आखों में मैंने गहन संत्रास भाव देखा। उसकी सजल आंखें निर्जल महानगर से शोक संतृप्त थीं। गाय-बछड़े को एक साथ देखना भारतीय परम्परा में शगुन है। संस्कृत भाषा का ‘वत्स’ बछड़े के लिए ही आया है। बाद में वत्स का अर्थ पुत्र हो गया। ईश्वर को भक्त वत्सल कहा गया – यानी ईश्वर अपने भक्तों के प्रति गाय द्वारा बछड़े के लिए किया गया जैसा प्यार देता है। लेकिन गौंवें हताश हैं। वे डंडे की मार खाती हैं। कटने के लिए ट्रक में बांधकर रखी जाती हैं। ट्रक में बंधी ऐसी गायों की आंखों के भीतर उमड़ती समुद्र से भी गहरी अथाह जलराशि को मैंने अनुभव किया है। इसलिए हैंडपंप की टोंटी को मुंह में भरने की असफल कोशिश करती गाय ने मुझे भीतर तक बेचैनी दी है।

गाय वैदिक काल में अघन्या है, अबध्य है। समूची आर्य-हिन्दू परम्परा में वे देवता हैं। वे माता हैं, वे आदर योग्य हैं। गोवंश ही कृषि अर्थव्यवस्था की धुरी है। लेकिन गाय को माता माने जाने वाले इसी देश में गोमांस की तस्करी है। गाय की चर्चा करना भी यहां साम्प्रदायिकता है। लेकिन मौलिक विषय दूसरा है। गाय, कुत्ते और अन्य सभी पशु, पक्षी, कीट, पतंग क्या जीने का अधिकार नहीं रखते? धरती, वायु, जल और गगन उनके भी उतने ही हैं जितने हमारे। छिपकली किसी को नहीं काटती लेकिन कहां रहे? गौरैय्या निर्दोष पक्षी है, कहां पानी पाये? पालतू कुत्ते तो माम डैड के दुलारे हैं, बाकी कहां जायें? तितलियां गायब हो रही हैं, कहां उड़े? औद्योगिक सभ्यता प्रकृति की पूरी रसमयता ही निगल रही है। मनुष्य की संवेदना काठ हो गयी है। प्यासी गाय, प्यासे पशु, प्यासी चिड़ियों को हांफते देखकर भी हम विचलित नहीं होते। छोड़िए प्यासे दुखी मनुष्येतर प्राणियों को हमारी संवेदनहीनता दुखी प्यासे, दुर्घटनाग्रस्त मनुष्य को देखकर भी द्रवीभूत नहीं होती। औद्योगिक सभ्यता के ठाठ ने हमारी संवेदनाओं को काठ (लकड़ी) बनाया है। हम सुचालक नहीं रहे। निहायत कुचालक, बोदे और चिरकुट मन से संस्कृतियां परवान नहीं चढ़ती, भले ही हम और बड़े गगनचुम्बी मकान बना ड़ालें लेकिन मन लगातार बौना का बौना ही होता जा रहा है।

ज्येष्ठ मास अब नहीं तपता। आषाढ़ में कजरारे मेघ नहीं आते। सावन में झमाझम वर्षा नहीं होती। हरियाली तीज पर धरती माता हरे परिधान नहीं पहनती। बादल धरती चूमने के लिए नीचे नहीं आते। बादल की कड़क और बिजली की लपालप ध्वनि प्रकाश के खेल नहीं खेलती। आकाशीय बिजली भी नाराज है। सीधे गाज गिराती है और तमाम लोगों के प्राण ले लेती है। प्रकृति की सन्तति कुपुत्र हो गयी है। इंद्रदेव भी कोप में रहते हैं लेकिन कोप के बावजूद भारी वर्षा नहीं लाते। कहते हैं कि श्रीकृष्ण के जमाने में कुपित हुए इंद्र ने कई दिन तक झमाझम वर्षा की थी। लेकिन तब की वजह दूसरी है, अब बिलकुल दूसरी। अब मनुष्य प्रकृति का शोषण कर रहा है। बादल क्यों आये? तब मोर क्यों नाचें? बादल नहीं बरसते तो मेंढक भी टर्र-टर्र की वैदिक ध्वनि नहीं गाते। पपीहा उदास रहता है। कोयल गीत नहीं गाती। आकाश में इन्द्रधनुष नहीं सजते। सब तरफ सूखा ही सूखा। सीमेन्ट ही सीमेन्ट के अराजक जंगल। टैंपो, ट्रकाें और गाड़ियों के धुंवे से बढ़ती दुर्गंध। पृथ्वी माता भी अपनी मौलिक ‘गुण-गंध’ बिखरने का काम छोड़ गयीं। वैज्ञानिक लाए वर्षा। क्या-क्या लाएंगे ये वैज्ञानिक? बेशक विज्ञान बड़ी उन्नति कर चुका है लेकिन क्या वैज्ञानिक पृथ्वी को सुगन्धा बना सकते हैं? क्या वैज्ञानिक आकाश को शब्द गुण संपन्न बना सकते हैं। प्रकृति के पांचों महाभूत क्षिति, जल, पावक और गगन समीर इसी विज्ञानवादी औद्योगिक विकास ने ही चोटहिल किये हैं।

अथर्वा वैदिक काल के महान ऋषि थे। अथर्ववेद का नामकरण उन्हीं के नाम पर हुआ। वनस्पतियों-औषधियों पर अथर्वा रचित एक पूरा सूक्त (8.7) बहुत दिलचस्प है। मन्त्र 12 में कहते हैं इनकी जड़े मीठी हैं, मध्य मीठा है, अग्रभाग मीठा है, पत्ते और फूल-फल भी मीठे हैं – मधुंमूलं मधुमदग्रमासं मधुंमध्यं वीरूधां बभूव। मधुमत् पर्णं मधुमत पुष्पमासां। ऋषि मधु अभीप्सु है। वनस्पतियां मधुमय हैं। लेकिन इनका उपयोग और भी दिलचस्प है कि सम्पूर्ण मधुमय ये वनस्पतियां गौंओं को प्रधानस्थान, घी आदि देने वाली बनायें। अथर्वा का दर्शन संसार व्यापक है लेकिन भावजगत् और भी दिव्य। कहते हैं भूरे, श्वेत, नीले और काले वर्णो वाली सभी औषधियों-वनस्पतियों को हम पुकारते हैं – सर्वा अच्छावदामसि। (मन्त्र 1) यहां औषधियां-वनस्पतियां ऋषि की पुकार भी सुनती हैं। फिर औषधियों-वनस्पतियों का खूबसूरत मानवीकरण भी है इनकी माता पृथ्वी है, आकाश पिता है और जल ही इनका मूल है – द्योष्पिता, पृथ्वीमाता समुद्रों मूलं। (मन्त्र 2) पृथ्वी माता ठीक रहे, आकाश पिता स्वस्थ रहें और इनका मूल जल स्वच्छ रहे, तभी इनका उद्भव विकास और जीवन संभव है। लेकिन आधुनिक मनुष्य निर्मम हो गया है। वह वनस्पति जगत् उजाड़ रहा है। वह गौओं का शोषण कर रहा है। वह प्रकृति के पंच महाभूतों पर आक्रामक है।

प्रकृति में लाखों-करोड़ों जीव, वनस्पति और रूप हैं। सब परस्पर एक दूसरे पर निर्भर हैं। मनुष्य बाकी सभी जीवों और वनस्पतियों के उपभोग के लिए ही नहीं है। वह जल का उपयोग करे, बदले में जल को स्वच्छ करे। वह वायु उपभोग करे बदले में वायु को प्रदूषण से बचाये। वह पृथ्वी का उपभोग करे, पृथ्वी को पोषण भी दे। वैदिक ऋषि इसीलिए वनस्पतियों को देवता कहते हैं। वे गाय, बैल और सभी पशुओं का आदर करते हैं। वे जल को ‘आपः मातरम्’ कहते हैं। वे पृथ्वी को माता और आकाश को पिता कहते हैं। वे प्रकृति की सभी शक्तियों की आराधना करते हैं। इस आराधना से सामाजिक जीवन में जीव-निर्जीव सबके प्रति आदर पैदा होता है। अथर्ववेद के एक सूक्त (3.12) में निवासस्थान-शाला बनाने का खूबसूरत उल्लेख है। कहते हैं हम यहां स्थिर शाला (निवास) बनाते हैं – इहैव धु्रवां मिनोमि शालां। यह शाला घृत आदि का चिंतन करे, हमारा कल्याण करे। यहां निर्जीव घर को चिन्तन का काम सौंपा गया है। कहते हैं हे शाला आप सर्वसंपन्न विशाल छत वाली हैं। आपके अंदर बच्चे, बछड़े रहे और सायंकाल यहां गौएं पधारे। (वही मंत्र 3) अथर्वकाल के घर का प्रीतिकर वर्णन ध्यान देने योग्य है। घर से कहते हैं आप घास वस्त्रधारी है आपका मन बड़ा सुन्दर है – तृणं वसानां सुमना।

भारतीय संस्कृति में ‘घर’ अति महत्वपूर्ण स्थल है। सुन्दर घर प्रत्येक जीवधारी की इच्छा है, सांप, नेवले, केचुए भी घर बनाते हैं। बया पक्षी तिनका-तिनका जोड़कर अद्भुद् तकनीकी से गृहनिर्माण करते हैं लेकिन आधुनिक मनुष्य की गृहनिर्माण इच्छा बड़ी कुरूप है। वैदिक ऋषियों के घर बच्चों-बछड़ों, गायों के लिए खुले हैं। गांव-देहात के घर गाय, गौरैय्या, छिपकली, चींटीं आदि के लिए आज भी वर्जित नहीं हैं। लेकिन नगरों, महानगरों के घर सीलबंद हैं। गौएं कहां जायें? गौरैय्या कहां अंडे दे? इसी सूक्त में कहते हैं यहां बच्चे, तरुण और गौंओं के साथ बछड़े भी आये – एमां कुमारतरुण, आ वत्सो जगता सह। यहां मधुर जल कलश रखे जाएं और दूध-दही से भरे घट भी। वैदिक जीवन की झांकी गांवों में मौजूद है। बेशक मनुष्य अपना घर बनाता है लेकिन अथर्ववेद के ऋषि इस निर्माण का श्रेय सविता, वायुदेव, इंद्र व बृहस्पति को देते हैं। दिलचस्प बात यह है कि घर बनाते है सूर्य, वायु, इंद्र और बृहस्पति लेकिन इसमें रहने वाले देव हैं जल और अग्नि ही। ऋषि कहते हैं हम स्वयं रोग विनाशक जल और अविनाशी अग्निदेव के साथ इस घर में रहते हैं।(वही 9) सुदूर अतीत में घर सबका था, सब घर के थे। पश्चिम की सभ्यता ने क्या से क्या कर दिया, गौएं तो दूर अपने बूढ़े माँ-बाप के लिए भी बहुत बड़े घर में छोटी-सी कोठरी नहीं मिलती। बहुत त्रासद समय में अंतिम सांसें ले रहे हैं हम सब।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

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