मध्यप्रदेश का जलसंकट

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जावेद अनीस

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मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल को झीलों का शहर भी कहा जाता है, वर्षों से यहाँ के तालाब नगरवासियों के लिए पेयजल का प्रमुख स्रोत रहे हैं लेकिन पिछले करीब एक दशक से देश के अन्य शहरों की तरह भोपाल भी गंभीर जल संकट से जूझ रहा है, तेजी से गिरते भूजल स्तर वाले शहर भोपाल को केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने अतिरिक्त भूजल दोहन के क्षेत्र में शामिल किया है, यहां जितना पानी हर साल जमीन में पहुंचता है उसे निकालने के साथ भूगर्भ में मौजूद 37 प्रतिशत अतिरिक्त पानी भी निकाला लिया जाता है। हर साल गर्मी का मौसम आते-आते शहर के भूजल की स्थिति गंभीर हो जाती है, कभी शहर के लिए पेयजल का प्रमुख स्रोत रहा बड़ा तालाब दिनोंदिन अपने प्राकृतिक स्वरूप को खोता जा रहा है, उसका क्षेत्रफल 45 वर्गकि.मी. से घटकर अब 31 वर्गकि.मी. ही रह गया है, अब हालत यह हो गये हैं कि नर्मदा नदी से पाइपलाइन के सहारे भोपाल में जल प्रदाय किया जा रहा है, लेकिन नर्मदा भी शहर का प्यास नहीं बुझा पा रही है। शहर के कोलार क्षेत्र में पूरे साल ही पानी की किल्लत रहती है,लोगों को निजी टैंकर संचालकों से मंहगा पानी खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता है, एक टैंकर के 250 से 500 रुपए तक वसूले जाते हैं, इसी तरह से पुराने शहर के कई इलाकों में भी हर गर्मी आते ही जल संकट का गहराना आम हो गया है ।

अगर पूरे मध्यप्रदेश की बात की जाये तो एक तिहाई आबादी को रोज पानी नहीं मिल पा रहा है, खुद प्रशासन का मानना है कि प्रदेश के 360 नगर निकायों में से 189 में प्रतिदिन पानी सप्लाई नहीं हो पा रही है, ग्रामीण क्षेत्रों की हालत तो और बदतर है,पहाड़ी इलाकों में भी बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय दूषित पानी पीने को मजबूर हैं। उन्हें तो यह दूषित पानी भी मीलों चल कर लाना पड़ रहा है। नदी नालों में पानी सूख जाने के कारण पालतू पशुओं का प्यास बुझाना बहुत मुश्किल साबित हो रहा है। इस गंभीर संकट के वजह से गर्मियों में कई क्षेत्रों में लोगों को हर वर्ष पलायन करने को मजबूर होना पड़ता हैं।
मध्यप्रदेश सरकार के प्रदेशव्यापी जलाभिषेक अभियान के तहत सभी 50 जिलों की लगभग 130 ऐसी नदियों और नालों को चिन्हांकित किया गया है जो अब सूख चुकी हैं। इंदौर-मालव, जबलपुर और ग्वालियर और बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों की स्थिति दिनों दिन भयावह होती जा रही है। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के एक सर्वेक्षण में यह खुलासा हुआ है कि बीते एक साल में मालवा-निमाड़ अंचल में भूमिगत जल स्तर में औसत 0.18 से 10 फीट तक की गिरावट दर्ज की हुई है,सबसे बुरी हालत इंदौर, धार, बडवानी, झाबुआ, देवास, मंदसौर और रतलाम की है। 30 मार्च 14 तक इंदौर में औसत जल स्तर 29.50 फीट था, जो अब 38.35 तक नीचे उतर गया है. इसी तरह धार में 26.20 से बढ़कर 30.27, बडवानी 28.03 से बढ़कर 28.95, झाबुआ में 22.33 से 26.40, देवास में 33 से 38, मंदसौर में 33. 50 से 35 तथा रतलाम में औसत जल स्तर 33 से 43 फीट तक नीचे उतर गया है।

जल संरचनाओं के लगातार कम होते जाने और इनके संरक्षण के अभाव में पानी लगातार हर साल नीचे और नीचे जा रहा है। लेकिन शायद राज्य सरकार के पास इस संकट से उबरने के लिए कोई ठोस और टिकाऊ योजना नहीं है, इसलिये उसे इसका उपाय निजीकरण में नजर आ रहा है, इसी सोच के अनुरूप प्रदेश के खंडवा शहर की जल प्रबंधन व्यवस्था को निजी कंपनी को सौंपने की कोशिश की गयी थी, जिसके तहत नगर निगम खंडवा व मध्य प्रदेश सरकार ने एक निजी कंपनी से 23 वर्ष की अवधि का समझौता होना था। इस समझौते के तहत खंडवा शहर सभी सार्वजनिक जल स्त्रोत निजी हाथ में चले जाते, अमीर या गरीब सभी को पानी खरीदना होता। इसका भारी विरोध हुआ और मामला उच्च न्यायालय तक पहुच गया, हाल ही में माननीय उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने राज्य सरकार और नगर निगम खंडवा को निर्देश दिया है कि खंडवा शहर की वर्तमान जल प्रबंधन प्रणाली में किसी भी तरह की छेड़-छाड़ ना करे और आगामी आदेश तक यथा-स्थिति को बरकरार रखा जाए। इसी तरह की कोशिश भोपाल और इंदौर में भी की जा रही है जहाँ मध्य प्रदेश सरकार ने जल वितरण व्यवस्था को निजी हाथों सौंपा जा रहा है, जाहिर है जल वितरण यह माडल “बिना किसी भेद-भाव के” शुल्क और मुनाफा आधारित है, कंपनियों का असली लक्ष्य जलसंकट दूर करना नहीं मुनाफा कूटना होगा, सरकार को भी हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 में जीने के अधिकार के तहत जनता को पीने का पानी मुहैया कराने के अपने जवाबदेही से बचने का रास्ता तलाशने में आसानी होगी, इन सबका  खामियाजा जनता को भुगतना पड़ेगा।
जलसंकट और पर्यावरण का गहरा सम्बन्ध है, लेकिन प्रदेश सरकार को शायद इसकी कोई चिंता नहीं है, इसकी एक बानगी हाल ही में मध्यप्रदेश विधानसभा परिसर में सदन के सदस्यों के लिए नए विश्राम घर बनाए के लिए 1600 पेड़ों की कटाई के फैसले में देखने को मिलता है। भोपाल खुशनुमा और हरियाली मौसम के लिये मशहूर रहा है लेकिन अब यह बीते कल की बात हो चुकी है, भोपाल की पुरानी तासीर खत्म हो चुकी है, शायद पेड़ों और हरियाली को विकास के रास्ते का अवरोध मान लिया गया है तभी तो विगत कुछ दशकों के दौरान शहर में लगातार पेड़ कांटे गये हैं, हाल ही में गुजरे पूर्व आईएएस अफसर एमएन बुच जिन्हें नए भोपाल का शिल्पकार भी कहा जाता है, भोपाल में इस बदलाव और शहर के अनियंत्रित विकास से बहुत निराश थे, वे मानते थे कि झील और तालाब लोगों के जीवन को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी हैं।

इस संकट से उबरने के उपाय पानी के निजीकरण और पेड़ों को विकास का अवरोध मानने में नहीं है, बल्कि जरूरत इस बात की है कि वाटर हार्वेस्टिंग पद्धिति के द्वारा बारिश के पानी को जमीन के अंदर पहुँचाया जाए, युद्ध स्तर पर नदियों, झीलों और कुँओं व बावड़ियों को पुर्नजीवित करने का काम किया जाए, लोगों और सरकारों की सोच में बदलाव लाया जाए जिससे वे पेड़ों और हरियाली को अवरोध नहीं साथी मानना सीख सकें, लेकिन प्रदेश का प्रशासन इस समस्या को लेकर कितना गंभीर है उसका अंदाजा टीकमगढ़ जिले के एसडीएम के हालिया बयान से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा है कि ग्रामीणों को जलसंकट से बचने के लिए तीन-तीन शादियां करनी चाहिए, एक पत्नी बच्चों को जन्म देने के लिए और बाकी दो पत्नियां पानी लाने के काम आएंगे।

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