समाजवाद के बियावान में अकेले पडे जॉर्ज

george1समाजवाद के बियावान में एक खांटी समाजवादी अकेला पड गया है। एक बार वह फिर चुनाव लड रहा है। इस बार उसकी लडाई किसी विरोधियों से नहीं है अपितु अपनों से है। फिलहाल वह इतना मजबूत भी नहीं है कि चुनाव जीत जाये लेकिन अक्खड़ समाजवादी जो ठहरा। अपनी जिद के सामने उसने किसी की नहीं सुनी। समाजवादी राजनेता समझाते रहे। कहते रहे कि जॉर्ज साहब हमारे समाजवादी खेमा के अभिभावक है। यह भी कहते रहे कि आपके स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर टिकट नहीं दिया जा रहा है लेकिन जॉर्ज को अपनी टिकट की कब चिंता रही। उन्हें तो चिंता उन समाजवादी मूल्यों की है जिसे किसी जमाने में डॉ0 राम मनोहर लोहिया, रामावतार शर्मा, कपिलदेव सिंह, किशन पटनायक, मधु लिमये, राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर, आचार्य कृपलाणी, जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादियों ने स्थापित किया था। जॉर्ज को टिकट और राजसत्ता की चिंता होती तो वे लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, नवीन पटनायक जैसे कथित समाजवादियों की तरह कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिये होते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे लडते रहे, भारतीय राजनीति में सामंतवाद, परिवारवाद, नवपूंजीवाद के प्रतीक कांग्रेस से, वे लडते रहे उन विदेशी कंपनियों के खिलाफ जिसने भारत की ओर कुदृष्टि डालने की कोशिश की।

समाजवाद के बियावान में एक खांटी समाजवादी अकेला पड गया है। एक बार वह फिर चुनाव लड रहा है। इस बार उसकी लडाई किसी विरोधियों से नहीं है अपितु अपनों से है। फिलहाल वह इतना मजबूत भी नहीं है कि चुनाव जीत जाये लेकिन अक्खड़ समाजवादी जो ठहरा। अपनी जिद के सामने उसने किसी की नहीं सुनी।

समाजवादी मूल्यों के लिए जॉर्ज ने कभी समझौता नहीं किया। लगातार अपनों के खिलाफ कई लडाइयां लडी। जब उन्हें लगा कि लालू जैसे छद्म समाजवादी समाजवाद का बंटाधार कर रहे हैं तो जॉर्ज ने लालू के खिलाफ झंडा उठा लिया। बिहार की राजनीति में अपरिहार्य हो गये लालू प्रसाद यादव के खिलाफ सबसे पहला प्रतिरोध जॉर्ज ने ही प्रारंभ किया। जब जॉर्ज को लगा कि विदेशी चिंतनों को संपोषित करने वाली कांग्रेस और साम्यवादी पार्टियों को परास्त करना है तो उन्होंने समाजवाद की मान्यताओं के इतर जाकर राष्ट्रहित में भारतीय जनता पार्टी के साथ समझौता किया। इस समझौते ने जहां एक ओर साम्यवादी जमीन को सिकुड़ने के लिए मजबूर कर दिया वहीं कांग्रेस कमजोर होती चली गयी। बिहार की दुर्दशा से आहत जॉर्ज ने अपने प्रिय शिष्य को भाजपा के साथ चुनावी तालमेल की छूट दी। यह जॉर्ज का बड़प्पन था। राजनीति में नीतीश को आगे किया और न केवल प्रदेश की राजनीति में अपितु देश की राजनीति में भी स्थापित किया। समाजवादी मूल्यों की रक्षा के लिए जॉर्ज ने नितीश को लालू और रामविलास पासवान के समानांतर लाकर खडा कर दिया। जिस नीतीश के कंधों पर उन्होंने समाजवादी मूल्यों के संरक्षण की जिम्मेवारी सौंपी आज वही नीतीश समाजवाद को सामंतों की सभा का विदूषक बना दिया है। जॉर्ज हाशिए पर ढकेल दिये गये और समाजवाद टुकड़ों में बटा कांग्रेस की चाकरी में लगा है। हां, कभी कभी अवधेश कुमार, रामबहादुर राय, सच्चिदानंद सिन्हा आदि कुछ संवेदनशील लेखकों की लेखनी में समाजवाद दिख जाता है लेकिन किसी जमाने में देश को झकझोर कर रख देने वाला भारतीय मूल का लोहियावादी समाजवाद जॉर्ज की तरह नीतीश जैसे मौकापरस्तों के साथ मुठभेड़ के लिए बाध्य हो गया है।

जॉर्ज मुजफ्फरपुर की जनता से यही कह रहे है कि यह लडाई उनकी अंतिम लोकसभा की लडाई है। इस बार हारे या जीतें अगली बार वे खडा नहीं होंगे। मुजफ्फरपुर की जनता उन्हें कितना सहयोग करेगी यह तो वक्त बताएगा लेकिन जिस प्रकार के समीकरण उभरकर सामने आ रहा है वह यही साबित कर रहा है कि जॉर्ज इस बार मुजफ्फरपुर से चुनाव हार भी सकते हैं।

हालांकि शरद यादव ने भी कभी समाजवादी मूल्यों के साथ समझौता नहीं किया लेकिन शरद यादव में एक खास जाति के प्रति सॉफ्ट कारनर होने के कारण शरद कभी जॉर्ज की कद-काठी प्राप्त नहीं कर सके। जॉर्ज का इतिहास बडा रोचक रहा है। जॉर्ज मंगलोर के निकट एक गांव में गरीब कैथोलिक मछुआरा परिवार में जन्म लिये। गरीबी के कारण जॉर्ज को त्रिचुनापल्ली के ईसाई सेमिनरी में डाल दिया गया, जहां उन्हें ईसाई धार्मिक शिक्षा दिया जाने लगा। पांचवीं कक्षा तक पढाई करने के बाद जॉर्ज मुम्बई भाग आए और बंदरगाह पर मजदूरी करने लगे। वहां इनकी मुलाकाल मजदूर नेता राबॉट डीमैलो से हुई। राबॉट से मुलाकात के बाद जॉर्ज के जीवन में परिवर्तन आया। डीमैलो के यहा पहले रसोइया फिर अंगरक्षक, फिर गाडी चालक, उसके बाद राबॉट के निजी सचिव बने। कुछ दिनों के बाद डीमैलो की हत्या हो गयी और जॉर्ज ने मुजफ्फरपुर के समाजवादी विचारक साच्चिदानन्द सिन्हा के साथ मिलकर डॉक मजदूर, ऑटो रिक्शा मजदूर, बंदरगाह मजदूरों के बीच संगठन खडा किया। संगठन का नाम रखा गया हिन्द मजदूर किसान सभा। इसी दौरान पत्रकार हमायु कबीर की बेटी लैला से उन्होंने शादी कर ली। जॉर्ज साहब के नेतृत्व में ही रेलवे में सबसे बडा रेल मजदूर आन्दोलन हुआ। फिर जॉर्ज राजनीति में आए और दक्षिण मुम्बई से कांग्रेस के नेता एस0 के0 पाटिल को हराकर पहली बार संसद पहुंचे। आपालकाल के दौरान बहुचर्चित बडोदा डायनामाईट कांड के अभियुक्त बनाए गये। आपात काल के दौरान ही कोलकात्ता के एक चर्च से उनकी गिरफ्तारी हुई और जेल भेज दिए गये। सन 77 में जॉर्ज फिर मुजफ्फरपुर से चुनाव जीते और मोरारजीभाई देसाई की सरकार में उद्योगमंत्री बनाए गये। उस समय भी जॉर्ज साहब चर्चा में रहे और अमेरिकी शीतल पेय कंपनी को देश से बाहर कर दिया। रेल मंत्रालय के अलावा उन्हें वाजपेयी सरकार में प्रतिरक्षा जैसे अहम मंत्रालय की जिम्मेवारी दी गयी। चीन के खिलाफ बयानबाजी के कारण जॉर्ज फिर चर्चा में आए।

आजादी के बाद लोकतंत्रात्मक राजनीति के आधार पुरूष जॉर्ज आज अपनों के बीच बेगाने हो गये हैं। कालांतर में जॉर्ज साहब ने समाजवाद के कई रूपों को देखा और जब कांग्रेस के मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस से बगावत कर राष्ट्रीय मोर्चा बनाया तो जॉर्ज उनके साथ हो गये। सन 1989 में साम्यवादियों को छोड कर कांग्रेस विरोधी सारे दल एक मंच पर आ गये। राष्ट्रीय मोर्चा का गठन हुआ और जॉर्ज उसमें शामिल हो गये। फिर कांग्रेस हारी और भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से केन्द्र में जनता दल की सरकार बनी। प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह बने और जॉर्ज को प्रतिरक्षा मंत्रालय दिया गया। कई अन्तरविरोधों के कारण यह कांग्रेस विरोधी सरकार भी पांच साल तक नहीं चली और कांग्रेस के सहयोग से पुन: चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बन गये। जॉर्ज ने उस समय भी मूल्यों की राजनीति का परिचय दिया और चन्द्रशेखर की सरकार में शामिल नहीं हुए। मात्र चार महीने में चन्द्रशेखर सरकार गिर गयी और चुनाव कराया गया। चुनाव में फिर जॉर्ज जीत गये। कांग्रेस के नेता राजीव गांधी की हत्या हो गयी और केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी। इस सरकार के मुखिया पामूलापति वेंकटेश नरसिंहराव को भारत का प्रधानमंत्री बनाया गया। सरकार चली और ठीक से चली। फिर सन 1994 के चुनाव में एनडीए को बहुमत मिला और उस सरकार में भी जॉर्ज केन्द्रीय मंत्री बने।

जॉर्ज ने लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव को छोड कमजोर और चिंतनशील युवा नीतीश कुमार को आगे किया। नीतीश कुमार को जॉर्ज ने राष्ट्रीय पहचान दिलाई लेकिन नीतीश आज बिहार के सामंतवादी ताकतों के साथ खेल रहे हैं। लालू प्रसाद यादव की तरह ही नीतीश ने राजनीति को एक व्यक्ति विशेष के इर्दगीर्द घूमने को मजबूर कर दिया है। नीतीश के साथ वे आज की तारीख में एक भी समाजवादी नेता नहीं है। नीतीश कुमार भले अपने आप को कर्पूरी जी का शिष्य कह ले लेकिन नीतीश आज ललन सिंह, मुन्ना शुक्ला, रामाश्रय प्रसाद सिंह, प्रभुनाथ सिंह, रामप्रवेश राय, अनंत सिंह सरीखे खांटी अपराधियों के हाथों खेल रहे हैं।

जॉर्ज साहब का विरोध अपनी टिकट के लिए नहीं है अपितु जॉर्ज का विरोध समाजवाद के नाम पर हो रही गुंडागर्दी से है। जॉर्ज की हार तय मानी जा रही है लेकिन जिसको नीतीश ने टिकट दिया है उसकी कसौटी क्या है। जॉर्ज साहब का टिकट काट कर नीतीश भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय जोड दिया है। नीतीश के जीवन की यह सबसे बडी भूल है। जिस प्रकार लालू पूजनीय होते होते रह गये उसी प्रकार नीतीश ने बिहार में काम भी किया साथ ही उनकी छवि एक विकास पुरूष के रूप में बनी लेकिन जॉर्ज के पंगे ने नितीश के सारे किये कराये पर पानी फेर दिया है। जॉर्ज की हार भारतीय राजनीति में मूल्यों की हार है। जॉर्ज की हार आदर्श की हार होगी। जॉर्ज की हार समाजवाद की हार होगी। शरद यादव ईमानदार नेता हैं लेकिन जॉर्ज की हार उनके सफेद धवल वस्त्र पर भी एक दाग के समान होगा।

लेखक: गौतम चौधरी
(लेखक हिंदुस्थान समाचार से संबंद्ध हैं)

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