समाज और धर्मः एक

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-गंगानंद झा-

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हम अपने को औसत लोगों से भिन्न इस अर्थ में समझते रहे किविरासत से पाई गई प्रज्ञा(received wisdom) के प्रति असहमति को हमने अपनी चेतना में सम्मिलित किया है। सीवान में हमने अपने इस मूल्यांकन को आईना में देखा।

धर्म की बात उठाकर राजनैतिक बुद्धि चाहे जितना फायदा उठा लेवह सत्य प्रकृत नहीं होता। असली बात है, आदमी आदमी को प्यार करना चाहता है। शान्त, प्रेममय, समृद्ध घरगृहस्थी चाहता है वह। घृणा एवम् द्वेष के रास्ते से होकर जिस जीवन का संचालन होता है, उसकी क्या सार्थकता! धर्म का भेद आदमी की आपसी सम्बन्ध गढ़ने की इच्छा को सामयिक तौर पर बाधित कर सकता है, हमेशा के लिए नहीं। अगलबगल चलतेचलते कुछ आदानप्रदान तो होता ही रहता है, यह सत्य है, स्वाभाविक है।

सीवान आने पर हमें उपयुक्त आवास की तलाश करने के सिलसिले में पता चला कि कॉमर्स विभाग के सत्येंद्र प्रसाद, जो दूसरे शहर में नौकरी मिलने के कारण जा रहे हैं, का आवास किराए के लिए उपलब्ध है। वह आवास शेख मोहल्ला में इस्लामिया स्कूल के हेडमास्टर के मकान में है। शेख मोहल्ला में मुसलमान के घर में रहना थोड़ा अटपटा तो लगा पर सोचा कि सत्येंद्र प्रसाद जब रह सकते हैं तो हम क्यों नहीं रह सकते। मकान दो मञ्जिला था, जिसमें नीचे मकानमालिक और ऊपर किराएदार रहते थे। ऊपरी तला कच्ची फर्श और खपरैल की छत का था। पानी का नल साझा था , वरना एक दूसरे से संपर्क किए बगैर रह पाने की सुविधा थी। हम पाँच सालों तक इस आवास में रहे, मोटामोटी तौर पर ठीकठाक ही रहे। शिकायतें हुईं, पर वैसी ही जैसी आम किराएदार/मकानमालिक के बीच अमूमन होती हैं। इतना फर्क था कि दोनो पक्ष एक दूसरे से भरसक भले बने रहने का प्रयास करते थे।

बाद में हमें मालूम हुआ कि हमने शेख मोहल्ले में आवास लेकर अपने अनेक मित्रों को अटकल लगाने को प्रेरित सा कर दिया था कि कैसे कोई परिवार जो धर्म से हिन्दू, तथा जाति से ब्राह्मण हो, वह शेख मोहल्ले में, मुसलमान के घर में इतनी लम्बी अवधि तक सही सलामत तथा राजीखुशी कैसे रह सकता है। सीवान के पहले मुसलमानों से हमारा कोई प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं रहा था। देवघर में उनकी उपस्थिति नगण्य थी। परोक्ष रुप से मुख्यतः किताबों और संचारमाध्यमों से ही हम उनसे परिचित थे। हम आधुनिक और प्रगतिशील मानसिकता का दावा रखते थे। जब अपने बच्चों से अपने लिए संबोधन चुनने का सवाल उपस्थित हुआ था तो तब के चलन के अनुसार मेरी पत्नी की इच्छा अपने लिए मम्मीरखने का मन था , जब कि मैं विदेशागत संबोधन को पसंद नहीं करता था अपनी मिट्टी से जुड़े होने का संकेत देने वाले प्रतीकों के प्रति अपने आग्रह और उनके गैरपरंपरागत , नए के प्रति आग्रह में सामञ्जस्य स्थापित करते हुए मैंने अम्मीसुझाया। मेरे बच्चे अपनी माँ को अम्मी ही पुकारते हैं, जो बहुतों के लिए कौतूहल का विषय बन गया। मित्रों को हमारे बच्चों के अपनी माँ के लिए अम्मीसंबोधन तथा मेरी पत्नी की बोली के चुस्त लहजे से समाधान मिला था कि मैंने मुसलमान की बेटी से विवाह किया था। मेरे मिलनेवालों में एक थे इस्माइल साहब। वे सेवा निवृत्त शिक्षा पदाधिकारी थे, जो मेरे श्वसुर के साथ काम कर चुके थे। अब यहाँ एक बालिका विद्यालय में प्राचार्य पद पर पुनर्नियुक्त थे। उनसे पुराने सरोकार के हवाले से हमारे बच्चे उन्हें नाना संबोधित करते थे। इसने भी उनकी माँ के मुसलमान की बेटी की अटकलबाजी को पुष्टि दी थी। किसीने हमारे सामने ऐसा कहा नहीं कभी और हमने भी ऐसी बातों पर कान नहीं दिया, बस थोड़ा मजा जरूर लिया।

सन 1967 में जमशेदपुर में साम्प्रदायिक दंगे हुए, सीवान में अफवाहें तेजी से फैली हुई थीं। हमारे साथी कहते कि आप शेख मोहल्ले का आवास छोड़ दीजिए। यों भी आप काफी देर तक घूमते हैं। अपनी बातों की पुष्टि में शुक्ल जी ने कहा कि आपके मकान के सामने वाला मकान के चमड़िया सेठ के घर पाकिस्तान से हथियार ट्रकों में भरकर रात को लाए जाते हैं। मैंने शुक्ल जी से कहा कि यो सब कोरी अफवाह है , हम तो वहाँ कोई ऐसी गतिविधि नहीं देखते। शुक्ल जी को मेरी बात जिद्द मालूम पड़ी मन मसोस कर रह गए कि जब कुछ हो जायगा तब ही समझिएगा।

मैं बिलकुल प्रभावित नहीं हुआ , ऐसा कहना सही बात नहीं होगी। हाशिम साहब से सरसरी तौर पर बातें करने के सिलसिले मे मैंने कहा कि लोग कहते हैं कि मुसलमानों के मोहल्ले में रहना सुरक्षित नहीं है। आप डेरा बदल लीजिए . हाशिम साहब ने बड़े मजे में जवाब दिया, ‘ आप ऐसा कभी मत कीजिएगा। आप यहाँ हैं तो हिन्दू दंगाई यहाँ आकर भी लौट जाएँगे। मुसलमान दंगाई यहाँ मेरे कारण आएँगे नहीं। इस तरह आप और हम दोनों के परिवार सुरक्षित हैं।

मैं अक्सर शाम को दोस्तों में अड्डेबाजी कर आठ नौ बजे घर वापस लौटा करता था। उन दिनों जब तथाकथित हिन्दू बहुल क्षेत्रों से लौट कर मुसलमान बहुल शेख मोहल्ले में आता तो पाता कि ठीक जिस अनुपात में वे लोग आशंकित थे इसी अनुपात में ये लोग भी भयभीत थे। मेरे लिए फर्क यह था कि जहाँ वे लोग अपनी आशंकाएँ और अफवाहें मुझे बताते थे ये लोग जिनके बीच मैं सपरिवार रहता था अपने सहमे चेहरों से ही अपनी बातें मुझ तक पहुँचा पाते थे। मेरे द्वारा छेड़े जाने पर भी ये खुल नहीं पाते।

ऐसे ही एक रात के नौ बज रहे थे। मैं आवास पर लौट रहा था। दरवाजे पर लड्डन साहब (किश्वर के मामा) से भेंट हो गई तो खड़े होकर इधर उधर की बातें होने लगीं। तभी औरत मर्दों का एक हुजूम कसाई मोहल्ले की और से इस्लाम के घर की ओर आया। उनकी चाल में बदहवासी सी थी। मैं सतर्क और उत्सुक हो गया, क्योंकि इस्लाम साहब के बारे में ही अफवाह थी कि पाकिस्तान से हथियार मँगवाते हैं दंगाइयों में बाँटने के लिए। लड्डन से पूछा कि क्या बात है, पता कीजिए तो। लड्डन भी उत्सुक हुए। दस मिनटों के बाद वे लोग इस्लाम के घर से वापस लौटे। लड्डन के द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने बतलाया। उनके मोहल्ले में मिलाद हो रही थी।वे सब वहीं थे। तभी किसी ने वहाँ आकर खबर दी कि छपरा में हिन्दूमुसलमान दंगा हो गया है। वहाँ अफरातफरी जैसी स्थिति हो गई। तभी किसीने सुझाव दिया कि इस्लाम साहब का कारोबार छपरा में भी है और वहाँ से टेलिफोन पर बराबर बातें करते रहते हैं वे। इसलिए पहले वहाँ चलकर छपरा की बात की पुष्टि की जाए। इसीलिए वे सब मिलकर आए थे। इस्लाम साहब ने इनके डर को नकार दिया, कहा कि अभी तुरत छपरा से उनकी बातें हुई हैं। वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। उन सबों को आश्वस्त करते हुए इस्लाम ने उन सबको घर भेज दिया था। मैं सोचने लगा कि अगर मैं रुककर सारी बातें नहीं समझता तो इस्लाम साहब के दंगाइयों का प्रेरणास्रोत होने वाली बात की पुष्टि का मसाला तो बन ही सकता था। जब मैंने दूसरे दिन इस वाकए का बयान अपने हिन्दू मित्रों में किया तो उन्होंने इसे मेरी मुसलमानप्रीति , सच को देख और समझ पाने की असमर्थता ही बतलाया। शायद उन्होंने समझा कि यह मेरी मनगढ़न्त कहानी है।

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