सोमयाग : महत्त्व एवं प्राचीनता

1
1890

सूर्यकांत बाली

सतयुग के भारतीयों का, चाहे वे आम लोग रहे हों या फिर राज परिवारों के लोग रहे हों, सोमयाग एक बहुत ही प्रिय यज्ञ रहा है। यज्ञ के नाम से जिस संस्था से हमारा परिचय रहा है वह क्रमश: काफी जटिल और महंगी होती चली गई थी। मनु महाराज ने जब प्रकृति के प्रति समर्पण की भावना से प्रेरित होकर यज्ञ नामक पद्धति की शुरूआत की थी, उसमें शुद्ध रूप से यही भाव निहित था कि जो प्रकृति हमें इतना दे रही है, हम भी उसे बदले में अपना कुछ दें।

अर्थात् वह हमारी रक्षा कर रही है, हमारा पालन-पोषण कर रही है, हमें जीवन दे रही है, हम भी उसकी रक्षा की सोचें, उसके स्वरूप को विकसित करें, उसके जीवन का विस्तार करें। बिना दूसरे के प्रति पूरी तरह समर्पित हुए हम उसके बारे में इस हद तक कहीं सोच सकते हैं भला?

अग्नि को प्रकृति का प्रतिनिधि मानकर, उसमें डाली जाने वाली आहुति को हमारे समर्पण भाव का प्रतीक मानकर जो यज्ञ शुरू हुआ उसमें क्रमश: फैलाव होता गया, विविधता आती गई, जटिलता आती गई। यानी, यज्ञ नामक एक सरल प्रक्रिया क्रमश: एक संस्था बन गई, कर्मकाण्ड बन गया। वैसा क्यों हुआ, यह निश्चित ही शोध और विचार का विषय है। पर प्रारम्भ में ही इस यज्ञ संस्था के साथ दो चीजें अचानक जुड़ गईं। एक ओर जहां अग्नि में आहुति डालते वक्त कुछ बोलना भी चाहिए, इस स्वाभाविक इच्छा की पूर्ति यजुष मन्त्रों की रचना और यज्ञों में उनके उच्चारण के रूप में हुई जो मन्त्र आगे चलकर यजुर्वेद में संकलित हुए, वहां सोमरस का भी आहुति के रूप में उपयोग काफी पहले शुरू हो गया। चूंकि जिसके प्रति पूरा समर्पण हो, लगाव हो उसे हम अपना अतिमहत्वपूर्ण, सर्वस्व दे देना चाहते हैं, इसलिए लगता है कि सोम का स्थान हमारे पूर्वजों के जीवन में काफी ज्यादा और काफी महत्वपूर्ण था कि यज्ञ संस्था के शुरू होते ही जो यज्ञ या याग सबसे पहले कुछ आकार ग्रहण कर सका उसका नाम था सोमयाग।

आज हम नहीं जानते कि सोम शब्द का अर्थ क्या है। इसलिए हम उसे कभी शराब तो कभी दूसरे नशीले पेय के साथ जोड़कर देखते हैं। ऐसा कुछ नहीं है। पर ऐसा कुछ न होते हुए भी सोम एक ऐसा पेय जरूर रहा होगा जो थकान दूर करने में मदद करता होगा और अत्यधिक प्रयोग में आने के बावजूद जो सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक रहा होगा। इसीलिए जहां अग्नि को कुछ समर्पित करने की इच्छा पैदा हुई तो सबसे पहली निगाह सोम पर पड़ी और सोमयज्ञ हमारा सबसे पहला यज्ञ बन गया।

जो हमें पसन्द है वह हमारे देवताओं को भी पसन्द है, इस आधार पर आगे चलकर हम मन्त्र पढ़कर देवताओं को सोम समर्पित करने लगे। क्रमश: जैसे यज्ञों में इन्द्र की स्तुति का महत्व बढ़ा तो कुछ ऐसी छवि बना दी गई कि इन्द्र को सोम बहुत पसन्द है। बात यहां तक बढ़ गई कि अन्तत: खुद सोम को ही एक देवता मानकर उसके बारे में मन्त्र लिखे जाने लगे और यह बात इस कदर रेखांकित हुई कि मुनि वेदव्यास ने जब वेदों को (आज उपलब्ध) अन्तिम आकार दिया तो उन्होंने ऋग्वेद के एक पूरे मंडल को, नौवें मंडल को ही सोम मंडल बनाकर सोम संबंधी तमाम सूक्त उसमें संकलित कर दिए।

तो क्या था सोम? जाहिर है कि वह सोमरस था, पर वह रस कैसे बनता था, इसकी जानकारी चाहिए तो ऋग्वेद के सोम संबंधी मन्त्र इसमें काफी सहायता करते हैं। ऋग्वेद का नौवां मंडल, जिसमें कुल मिलाकर 113 सूक्त सिर्फ सोम को लेकर ही लिखे गए हैं, सोम के बारे में जानकारी नहीं देंगे तो और क्या करेंगे? मसलन एक मन्त्र (9.5.4) कहता है कि सोम एक लता या एक घास जैसा है और काफी समय से देवताओं की बलप्राप्ति का साधन रहा है, बर्हि: प्रत्वीनमोजसा, पवमान: स्तृणान् हरि: देवेषु देव ईयते। जैसा कि इस मन्त्र में संकेत है, सोम की बेल हरे (हरि:) रंग की थी और यह बात नौवें मंडल में अनेक स्थानों पर लिखी है। पर कहीं-कहीं उसे भूरे या लाल रंग का भी कहा गया है। नौवें मंडल की मन्त्र संख्या 11.4 में उसके दोनों रंगों का उल्लेख है-बभ्रवे नु स्वतवसे, अरुणा दिविस्पृशे, सोमाय गाथमर्चत। सोम की बेल को बढ़ने के लिए पानी की भारी जरूरत रहती थी। इसलिए पहाड़ों पर यह बेल जमीन के अन्दर ही अन्दर कहीं बढ़ती रहती होगी अव्यो वारे परि प्रियो हरिर्वनेषु सीदति, रेभो वनुष्यते मती (9.8.6)।

सोम के इस हरे रंग की बेल को, जो कई बार पक कर भूरे या लाल रंग की हो जाया करती थी, पीसने का बड़ा ही सुन्दर वर्णन नौवें मंडल के मन्त्रों में मिलता है जिसका अर्थ इतना ही है कि सोम रस निकालने की इस प्रक्रिया में हमारे पूर्वज कितना मजा लेते रहे होंगे। सोम को हाथों की उंगलियों से ही पीसते और निचोड़ते थे। इन दस उंगलियों के कई तरह के अलंकारिक वर्णन इस नौवें मंडल में दिए गए हैं। इसे ऊखल में मूसल की मदद से और ग्राव यानी पत्थर पर कूटने के विवरण भी खूब मिलते हैं। चूंकि इस काम में दसों उंगलियों की जरूरत पड़ती है, इसलिए कहीं इन दस उंगलियों को सोम की माताएं तो कहीं इसकी बहनें कह दिया गया है।

सोम का रस निकालने के बाद इसमें दूध से बने पदार्थ और शहद मिलाकर इसे स्वादिष्ट बनाते थे, इसके भरपूर संकेत ऋग्वेद के नौंवे मंडल में मिल जाते हैं। मसलन यद् गोभिर्वासियिष्यसे (2.4) संगोभिर्वासियामसि (8.5) या मृजान: गोभि: श्रीणान: (119,17) सरीखे मन्त्रों में सोमरस में दूध से बने पदार्थों को मिलाने की बात है तो मन्त्र संख्या 5.10 में इसमें शहद मिलाने की बात कही गई है-वनस्पतिं पवमान मह्वासमंखि धारय। ऐसे सोमरस की बहती धार को देखकर हमारे पूर्वज खुशी से नाच उठते थे और धारा का ही वर्णन कर उसे कभी सहस्त्रधार तो कभी कुछ कहने लगते-सोम: पुनानो अर्षति सहस्त्रधारो अत्यवि: (9.13.1) पवनो वाजसातये सो न: सहस्त्रयाजस: (9.13.3) असर्जि वाजीतिर: पवित्रामिन्द्राय सोम: सहस्त्रधार: (9.109.19) इत्यादि।

सोम के इस तमाम वर्णन का मतलब या उद्देश्य आखिर क्या है? यह बताना उचित ही है कि सोमयज्ञ इसलिए हमारा पहला और सरल यज्ञ बना क्योंकि सोम की हमारे पूर्वजों के जीवन में कुछ खास जगह बन चुकी थी। ऐसा सोमरस मादक जरूर था और खुद ऋग्वेद उसे बार-बार वैसा कहता है-अभित्यम् मद्यं मदमिन्दो इन्द्र इति क्षर अभिवाजिनो अर्वत: (9.6.2)। पर जाहिर है कि न तो सोमरस शराब थी जो कि किसी भट्टी में या जमीन में गाड़ कर बनाई जाती है और न ही इसमें वैसा नशा था। पर नशा कुछ न कुछ था, इसके बारे में बहुत मिलता है। इन्द्र हमारे पूर्वजों का प्रिय देवता रहा है और किसी भी अन्य देवता की तुलना में इन्द्र को सोमरस बहुत प्रिय था, ऐसा बार-बार आता है।

बल्कि यहां तक कह सकते हैं कि अकेले इन्द्र को ही सोमरस इस कदर पसन्द था कि इस देवता को आगे चलकर ब्राह्मणग्रन्थों और पुराणों में बहुत ही घटिया चरित्र का और निरन्तर अप्सराओं के बीच रहने वाला बताया गया। ऐसे इन्द्र के तिरस्कार और परित्याग की शुरूआत तो द्वापर युग के अन्त में खुद कृष्ण ने ही कर दी थी, जिन्होंने इन्द्र पूजा को छोड़ गोवर्धन पूजा की परम्परा का सूत्रपात किया। बाद में लिखे गए ब्राह्मण ग्रन्थों और पुराणों में इसी धारणा को आगे बढ़ाया गया। अब ऐसे इन्द्र की भला कौन प्रशंसा करेगा जो सोम की तलाश में पागलों की तरह घूमता हुआ चिल्ला रहा है कि हाय, कहीं से सोम पीने को मिल जाए तो उसे पीकर मैं इस पृथ्वी को (एक गेंद की तरह) यहां पटक दूं या वहां पटक दूं- हन्ताहं पृथिवीमिमां, निदधानीहवेहवा, कुवित्सोमस्यापाम् (10.119.9)।

आज जैसी शराब न होने पर भी अगर सोमरस में नशा था तो उसका हश्र क्या हो सकता है, यह ऋग्वेद के आखिरी रचना-वर्षों में लिखे लब ऐष के ऊपर उद्धृत सूक्त (10.119) से और कृष्ण द्वारा एक झटके में इन्द्र की पूजा सफलता पूर्वक बन्द करवा देने की घटना से मालूम पड़ जाता है। पर चूंकि कभी सोमयाग, जो शुरू में सिर्फ सुबह से वक्त होता था, फिर बढ़ते-बढ़ते एक दिन, दो दिन, तीन दिन तक फैल गया, हमारे पूर्वजों का एक सहज, सरल और मनपसन्द यज्ञ था और सोमरस उनका मनपसन्द पेय, तो इस बारे में दो-एक जरूरी बातें और जान ली जाएं। ऋग्वेद (10.34.1) में ऋषि कवष ऐलूष ने महत्वपूर्ण सूचना देते हुए सोम को मौजवत (सोमस्येव मौजवतस्य भक्ष:) यानी मूजवान पर्वत से प्राप्त हुआ कहा है। तो सवाल है कहां है यह मूजवान पर्वत जहां से सोमबेल लाई जाती थी? चूंकि सोम नामक देवता हओम के रूप में पुराने ईरानियों में बहुत ज्यादा लोकप्रिय था, इसलिए शोधकर्ताओं ने इस पर्वत को भारत के पश्चिम (यानी पश्चिमोत्तर) में कहीं माना है।

पर सोमयाग से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण सन्दर्भ हम सबसे अन्त में कहना चाहते हैं। वेद में सोम को इन्दु कहा गया है। दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। कोई गिनती करे तो शायद दोनों शब्दों का एक दूसरे के पर्यायवाची के रूप में लगभग बराबर प्रयोग वेद में हुआ होगा। दोनों इस हद तक पर्यायवाची हो गए कि जब इन्दु का अर्थ चन्द्रमा हो गया तो सोम का अर्थ भी चन्द्रमा हो गया। मसलन सोमवार यानी चन्द्रवार, जो रविवार यानी सूर्यवार के बाद आता है। जहां यह बेल मिलती थी वहां इसे सोम कहते थे और चूंकि हम इसको निचोड़ते थे इसलिए हम इसे इन्दु (निचड़ा हुआ) कहते थे। सोम बेल चूंकि भारत के बाहर से लाई जाती थी इसलिए जो लोग यहां से सोम लेने मूजवान पर्वत जाते थे उन्हें इन्दु खरीदने वाले या इन्दु कह दिया जाता होगा और यह बात बिल्कुल स्वाभाविक नजर आती है।

इस आधार पर कुछ शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि हम भारतीयों के लिए हिन्दू शब्द सिन्धु के आधार पर बाद में और इस इन्दु के आधार पर पहले ही चल पड़ा होगा। ठीक इसी आधार पर यह निष्कर्ष भी निकाला गया है (प्रा. ह. रा. दिवेकर, 1970) कि जिसे हम आज हिन्दूकुश पर्वत कहते हैं वही कभी मूजवान रहा होगा और हम इन्दुओं के सोमप्राप्ति के लिए वहां बार-बार जाने के कारण उसका नाम इन्दु के साथ जुड़ गया होगा।

बस इसमें एक ही आशंका बाकी बचती है। इन्दु के कारण हमारा नाम हिन्दू पड़ गया, यह बात समझ में आती है। बात यह भी समझ में आती है कि इस इन्दु के आधार पर मूजवान पर्वत इन्दुवान या हिन्दूवान बन गया हो। पर वह हिन्दूकुश कब बना? यहां कुश का अर्थ है संहार। यानी कभी उस पर्वत पर इन्दु लेने गए इन्दुओं ने वहां के लोगों का संहार किया या वहां के लोगों ने इन्दुओं का संहार किया जिससे तीन बातें हुई होंगी। एक पड़ाव का नाम हिन्दूकुश पड़ गया। दो, इस घटना के बाद इन्दु यानी सोम का भारत आना बन्द हो गया होगा और तीन, खरीददार न रहने से सोमबेल की देखरेख बन्द हो गई और वह लुप्त हो गई। ये सब अनुमान हैं, जो सही लगते हैं। पर सही ही हैं, इसके लिए शोध चाहिए। सोमयाग पर शोध हुआ तो निष्कर्ष इस हद तक महत्वपूर्ण होंगे।

1 COMMENT

  1. पृथ्वी का वर्तमान वायुमण्डल जीवन का आधार है. इस वायुमण्डल के विकास मे तात्कालिन मानव-जाति के प्रयासो के संकेत वेदो मे देखने को मिलते है. लेकिन प्राचीण भाषा की बोधगम्यता की अपनी सीमा है. उस प्राचीण ग्रंथ का सत्यार्थ जानना मानव जाति के लिए महत्वपुर्ण साबित होगा.

    वेद के मंत्र मृत शब्द नही है. वे जीवंत है. अगर महर्षि अरबिन्दो की माने तो स्वयं शब्द देवरुप मे सशरीर उपस्थित हो जिज्ञासु को सत्य की अनुभुति करा सकते है. वेद संहिता, ब्राहमण, आरण्यक एवम उपनिषदो का वैज्ञानिक अध्ययन अपेक्षित है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here