भारतीय इतिहास की कुछ महत्वपूर्ण विस्मृत घटनाओं का प्रामाणिक उपदेश

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प्राचीनकालीन परम्परा के अनुसार किसी व्यक्ति को ऋषि का पद तब ही प्राप्त होता था जो पूर्ण वेदज्ञानी, शास्त्रवेत्ता होने के साथ सत्य वक्ता, स्वार्थशून्य, निष्पक्ष, न्यायप्रिय व सिद्ध योगी होता था। आज इस श्रेणी के ही एक ऋषि द्वारा दिये गये भारत के इतिहास विषयक एक उपदेश का श्रवण व अध्ययन करते हैं। इसके द्वारा इतिहास के उन तथ्यों से भी परिचित होगें जिन पर शायद हम में से अनेकों का ध्यान ही न गया हो। यह उपदेश सन् 1874 में दिया गया था। व्यवधान समाप्त कर उपदेश आरम्भ करते हैं।

 

आर्य आर्यावर्त्त लोगों के आर्यावर्त्त (भारत) देश में वसने से यह देश आर्यावर्त्त कहलाता है। यह आर्यावर्त्त देश ऐसा देश है कि जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है। इसीलिये इस भूमि का नाम सुवर्णभूमि है क्योंकि यही सुवर्णादि रत्नों को उत्पन्न करती है। इसीलिये सृष्टि की आदि में आर्य लोग (तिब्बत से) इसी देश में आकर बसे। इसलिए हम सृष्टि विषय में कह आये हैं कि आर्य नाम उत्तर पुरुषों का है और आर्यों से भिन्न मनुष्यों का नाम दस्यु है। जितने भूगोल में देश हैं वे सब इसी देश की प्रशंसा करते और आशा रखते हैं कि पारसमणि पत्थर सुना जाता है, वह बात तो झूठी है परन्तु आर्यावर्त्त देश ही सच्चा पारसमणि है कि जिस को लोहेरूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही सुवर्ण अर्थात् धनाढ्य हो जाते हैं।

 

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशाद् अग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।। (मनुस्मृति)

 

सृष्टि (की आदि) से ले के पांच सहस्र वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात् छोटे-छोटे राजा रहते थे क्योंकि कौरव पाण्डव पर्यन्त यहां के राज्य और राजशासन में सब भूगोल (समस्त विश्व) के सब राजा और प्रजा चले थे। क्योंकि यह मनुस्मृति जो सृष्टि की आदि में हुई है उस का प्रमाण है। इसी आर्यावर्त्त देश में उत्पन्न हुए ब्राह्मण अर्थात् विद्वानों से भूगोल के मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दस्यु, म्लेच्छ आदि सब अपने-अपने योग्य विद्या, चरित्रों की शिक्षा और विद्याभ्यास करें (यह मनुस्मृति से प्रमाणित है)। और महाराजा युधिष्ठिर जी के राजसूय यज्ञ और महाभारत युद्धपर्यन्त यहां के राज्याधीन सब राज्य थे।

 

सुनो ! चीन का भगदत्त, अमेरिका का बब्रुवाहन, यूरोपदेश का विडालाक्ष अर्थात् मार्जार के सदृश आंखवाले, यवन जिस को यूनान कह आये और ईरान का शल्य आदि सब राजा राजसूय यज्ञ और महाभारत युद्ध में आज्ञानुसार आये थे। जब रघुगण राजा थे तब रावण भी यहां के आधीन था। जब रामचन्द्र के समय में विरूद्ध हो गया तो उस को रामचन्द्र ने दण्ड देकर राज्य से नष्ट कर उस के भाई विभीषण को राज्य दिया था।

 

स्वायम्भुव राजा से लेकर पाण्डवपर्यन्त आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा। तत्पश्चात आपस के विरोध से लड़कर नष्ट हो गये क्योंकि इस परमात्मा की सृष्टि में अभिमानी, अन्यायकारी, अविद्वान् लोगों का राज्य बहुत दिन तक नहीं चलता। और यह संसार की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि जब बहुत सा धन असंख्य प्रयोजन से अधिक होता है तब आलस्य, पुरुषार्थरहितता, ईर्ष्या, द्वेष, विषयासक्ति और प्रमाद बढ़ता है। इस से देश में विद्या व सुशिक्षा नष्ट होकर दुर्गुण और दुष्ट व्यसन बढ़ जाते हैं। जैसे कि मद्य-मांससेवन, बाल्यावस्था में विवाह और स्वेच्छाचारादि दोष बढ़ जाते हैं। और जब युद्धविभाग में युद्धविद्याकौशल और सेना इतनी बढ़े कि जिस का सामना करने वाला भूगोल में दूसरा न हो तब उन लोगों में पक्षपात व अभिमान बढ़ कर अन्याय बढ़ जाता है। जब ये दोष हो जाते हैं तब आपस में विरोध होकर अथवा उन से अधिक दूसरे छोटे कुलों में से कोई ऐसा समर्थ पुरुष खड़ा होता है कि उन का पराजय करने में समर्थ होवे। जैसे मुसलमानों की बादशाही के सामने शिवाजी, गोविन्दसिंह जी ने खड़े होकर मुसलमानों के राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया।

 

मैत्रेयी उपनिषद के प्रमाणों से ज्ञात होता है कि सृष्टि से लेकर महाभारतपर्यन्त चक्रवर्ती सार्वभौम राजा आर्यकुल में ही हुए थे। अब इनके सन्तानों का अभाग्योदय होने से राजभ्रष्ट होकर विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहे हैं (यह पंक्तियां 1874 में लिखी गईं हैं)। जैसे यहां सुद्युम्न, भूरिद्युम्न, इन्द्रद्युम्न, कुवलयाश्व, यौवनाश्व, वद्ध्रयश्व, अक्षसेन, मरुत और भरत सार्वभौम सब भूमि में प्रसिद्ध चक्रवर्ती राजाओं के नाम लिखे हैं वैसे स्वायम्भुवादि चक्रवर्ती राजाओं के नाम स्पष्ट मनुस्मृति, महाभारतादि ग्रन्थों में लिखे हैं। इस को मिथ्या करना अज्ञानी और पक्षपातियों का काम है।

 

(प्रश्न) जो आग्नेयास्त्र आदि विद्या लिखी हैं वह सत्य हैं वा नहीं? और तोप तथा बन्दूक तो उस समय में थीं वा नहीं? (उत्तर) यह बात सच्ची है। ये शस्त्र भी थे, क्योंकि पदार्थविद्या से इन सब बातों का सम्भव है। ‘तोप’ और ‘बन्दूक’ यह नाम अन्य देशभाषा के हैं। संस्कृत और आर्यावर्त्तीय भाषा के नहीं किन्तु जिस को विदेशीजन तोप कहते हैं, संस्कृत भाषा में उस का नाम ‘शतघ्नी’ और जिस को बन्दूक कहते हैं उस को संस्कृत और आर्यभाषा में ‘भुशुण्डी’ कहते हैं। जो संस्कृत विद्या को नहीं पढ़े वे भ्रम में पड़ कर कुछ का कुछ लिखते और कुछ का कुछ कहते हैं। उस का बुद्धिमान लोग प्रमाण नहीं कर सकते। और जितनी विद्या भूगोल में फैली है वह सब आर्यावर्त्त देश से मिश्र वालों, उन से यूनान, उन से रूस और उन से यूरोप देश में, उन से अमेरिका आदि देशों में फैली है। अब तक जितना प्रचार संस्कृत विद्या का आर्यावर्त्त देश में है उतना किसी अन्य देश में नहीं। जो लोग कहते हैं कि जर्मनी देश में संस्कृत विद्या का बहुत प्रचार है और जितना संस्कृत मोक्षमूलर साहब पढ़े हैं उतना कोई नहीं पढ़ा, यह बात कहने मात्र की है क्योंकि ‘यस्मिन्देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायचते’ अर्थात् जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता उस देश में एरण्ड ही को बड़ा वृक्ष मान लेते हैं। वैसे ही यूरोप उदेश में संस्कृत विद्या का प्रचार न होने से जर्मन लोगों और मोक्षमूलर साहब ने थोड़ा सा पढ़ा, वही उस देश के लिये अधिक है। परन्तु आर्यावर्त्त देश की ओर देखें तो उन की बहुत न्यून गणना है। क्योंकि मैंने जर्मनी देशनिवासी एक ‘प्रिन्सिपल’ के पत्र से जाना कि जर्मनी देश में संस्कृत चिट्ठी का अर्थ करने वाले भी बहुत कम हैं। और मोक्षमूलर साहब के संस्कृत साहित्य और थोड़ी सी वेद की व्याख्या देख कर मुझ को विदित होता है कि मोक्षमूलर साहब ने इधर उधर आर्यावर्त्तीय लोगों की की हुई टीका (सायणकृत वेदभाष्य) देख कर कुछ-कुछ यथा तथा लिखा है। जैसा कि ‘युत्र्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि।।’ इस मन्त्र का अर्थ (मोक्षमूलर साहब ने) घोड़ा किया है। इससे तो जो सायणाचार्य ने सूर्य अर्थ किया है सो अच्छा है। परन्तु इसका ठीक अर्थ परमात्मा है सो मेरी बनाई ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लीजिये। उसमें इस मन्त्र का अर्थ यथार्थ किया है। इतने से जान लीजिये कि जर्मनी देश और मोक्षमूलर साहब में संस्कृत विद्या का कितना पाण्डित्य है।

 

यह निश्चित है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं वे सब आर्यावर्त्त देश ही से प्रचरित हुए हैं। देखो ! एक गोल्डस्टकर साहब पैरिस अर्थात् फ्रांस देश निवासी अपनी ‘बायबिल इन इण्डिया’ में लिखते हैं सब विद्या और भलाइयों का भण्डार आर्यावर्त्त देश है और सब विद्या तथा मत इसी देश से फैले हैं और परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हे परमेश्वर ! जैसी उन्नति आर्यावर्त्त देश की पूर्वकाल में थी वैसी ही हमारे देश की कीजिये। यह बात उनके ग्रन्थ को देख लो। (यह ग्रन्थ वैदिक साहित्य के प्रकाशक श्रीघूड़मल-प्रह्लादकुमारआर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोनसिटी से प्रकाशित होकर उपलब्ध है)।

 

‘दाराशिकोह’ बादशाह ने भी यही निश्चय किया था कि जैसी पूरी विद्या संस्कृत में है वैसी किसी भाषा में नहीं। वे ऐसा उपनिषदों के भाषान्तर में लिखते हैं कि मैंने अर्बी आदि बहुत सी भाषा पढ़ीं परन्तु मेरे मन का सन्देह छूट कर आनन्द न हुआ। जब संस्कृत देखा और सुना तब निस्सन्देह होकर मुझ को बड़ा आनन्द हुआ। देखो ! काशी के ‘मान मन्दिर’ में ‘शिशुमारचक्र’ को कि जिस की पूरी रक्षा भी नहीं रही है तो भी कितना उत्तम है, जिस में अब तक भी खगोल का बहुत सा वृत्तान्त विदित होता है। जो ‘सवाई जयपुराधीश’ उस को संभालें और टूटे फूटे को बनवाया करेंगे तो बहुत अच्छा होगा। परन्तु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत के युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या सन्देह? ‘विनाशकाले विपरीतबुद्धि।’ यह किसी कवि का वचन है। जब नाश होने का समय निकट आता है तब उल्टी बुद्धि होकर उल्टे काम करते हैं। कोई उन को सूधा समझावे तो उल्टा माने और उल्टा समझावें तो उस को सुधी मानें।

 

जब बड़े-बड़े विद्वान, राजा, महाराजा, ऋषि, महर्षि बहुत से लोग महाभारत युद्ध में मारे गये और बहुत से मर गये तब विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार नष्ट हो चला। ईर्ष्या, द्वेष व अभिमान आपस में करने लगे। जो बलवान् हुआ वह देश को दाब कर राजा बन बैठा। वैसे ही सर्वत्र आर्यावर्त्त देश में खण्ड-खण्ड राज्य हो गया। पुनः द्वीपद्वीपान्तर के राज्य की व्यवस्था कौन करे? जब ब्राह्मण लोग विद्याहीन हुए तब क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के अविद्वान् होने में कथा ही क्या कहनी? जो परम्परा से वेदादि शास्त्रों का अर्थसहित पढ़ने का प्रचार था, वह भी छूट गया। केवल जीविकार्थ पाठमात्र ब्राह्मण लोग पढ़ते रहे सो पाठमात्र भी क्षत्रिय आदिको न पढ़ाया। क्योंकि जब अविद्वान हुए गुरू बन गये तब छल, कपट, अधर्म भी उन में बढ़ता चला। ब्राह्मणों ने विचारा कि अपनी जीविका का प्रबन्ध बांधना चाहिये। तब सम्मति करके यही निश्चय कर क्षत्रिय आदि को उपदेश करने लगे कि हम ही तुम्हारे पूज्यदेव हैं। विना हमारी सेवा किये तुम को स्वर्ग वा मुक्ति न मिलेगी। किन्तु धार्मिकों का नाम ब्राह्मण है और पूजनीय वेद और ऋषि मुनियों के शास्त्र में जो लिखा था उन को अपने मूर्ख, विषयी, कपटी, लम्पट, अधर्मियों पर घटा बैठे। भला वे आप्त विद्वानों के लक्षण इन मूर्खों में कब घट सकते हैं? परन्तु जब क्षत्रियादि यजमान संस्कृत विद्या से अत्यन्त रहित हुए तब उनके सामने जो-जो गप्प मारी सो-सो विचारों ने सब मान ली। तब इन नाममात्र ब्राह्मणों की बन पड़ी। सबको अपने वचन जाल में बांध कर वशीभूत कर लिया और कहने लगे कि- ‘ब्रह्मवाक्यं जनार्दनः।’ अर्थात जो कुछ ब्राह्मणों के मुख में से वचन निकलता है वह जानो साक्षात् भगवान् के मुख से निकला। जब आंख के अन्धे और गांठ के पूरे क्षत्रियादि वर्ण अर्थात् जिनकी भीतर विद्या की आंख फूटी हुई और जिन के पास धन पुष्कल था, ऐसे-ऐसे चेले उन्हें मिले। फिर इन व्यर्थ ब्राह्मण नाम वालों को विषयानन्द का उपवन मिल गया अर्थात् ऐसे चेले मिले। यह भी उन लोगों ने प्रसिद्ध किया कि जो कुछ पृथिवी में उत्तम पदार्थ हैं वे सब ब्राह्मणों के लिये हैं। अर्थात् जो गुण, कर्म, स्वभाव से ब्राह्मणादि वर्ण-व्यवस्था थी उस को नष्ट कर जन्म पर रक्खी और मृतकपर्यन्त का भी दान यजमानों से लेने लगे। जैसी अपनी इच्छा हुई वैसा करते चले (गये)। यहां तक किया कि ‘हम भूदेव हैं’ हमारी सेवा के विना देवलोक (स्वर्गलोक) किसी को नहीं मिल सकता।  इन से पूछना चाहिये कि तुम किस लोक में पधारोगे? तुम्हारे काम तो घोर नरक भोगने के हैं, कृमि, कीट, पतंगादि बनोगे। तब तो बड़े क्रोधित होकर कहते हैं-हम ‘शाप’ देंगे तो तुम्हारा नाश हो जायेगा क्योंकि लिखा है-‘ब्रह्मद्रोही विनश्यति’ कि जो ब्राह्मणों से द्रोह करता है उस का नाश हो जाता है। हां ! यह बात तो सच्ची है कि जो पूर्ण वेद और परमात्मा को जानने वाले, धर्मात्मा सब जगत् के उपकारक पुरुषों से कोई द्वेष करेगा, वह अवश्य नष्ट होगा। परन्तु जो ब्राह्मण नहीं हों, उन का न ब्राह्मण नाम और न उन की सेवा करनी चाहिये।

 

यह उपदेश 10 अप्रैल, 1875 को स्थापित आर्यसमाज के संस्थापक महषि दयानन्द ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के द्वारा सभी देशवासियों को दिया है। इस उपदेश में पाठकों को बहुत कुछ नया ऐतिहासिक ज्ञान प्राप्त होगा, ऐसा हमारा विश्वास है। हमने इस उपदेश को अनेकानेक बार पढ़ा है। इसका एक-एक वाक्य सत्य एवं प्रमाणित है। हम आशा करते हैं कि इस ज्ञानपूर्ण वार्ता से पाठक यथार्थ इतिहास की इस लेख में वर्णित कुछ मुख्य बातों को जान कर लाभान्वित होंगे।

 

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