बुरे प्रदर्शन पर कितनों ने मैदान छोड़ा है?

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जगमोहन फुटेला

हम कुछ ज़्यादा ही प्रतिक्रियावादी हैं. ज़रूरत से ज़्यादा भावुक और कभी कभी ये मान लेने के आदी भी कि अगले की उतार देने से अपनी इज्ज़त बढ़ जाती है. हमारे कुछ टीवी भारतीय पत्रकारों को ये ग़लतफ़हमी फोबिया की हद तक है. उन्हें अचानक लगने लगा है कि भारतीय क्रिकेट टीम ने जो थू थू आस्ट्रेलिया में कराई है उसे बहाल करना है. इसके लिए क्रिकेटरों को थूक निगल निगल के गरियाना है. अंतिम मकसद सीनियरों को टीम से निकलवाना है.

अक्सर ज़रूरत से ज्यादा भावुक हो जाने वाले हम समझते हैं कि हम सब जानते हैं. सच मगर ये है कि हम कुछ जानना चाहते ही नहीं होते. हम चाहते है कि हम न जानें अब कुछ. अब तो वे ही जानें कि हम क्या चाहते हैं. क्रिकेट आखिरकार अनाकर्षक शब्दावली वाला एक खेल है. लांग, डीप और एक्स्ट्रा में कोई साहित्यिक रस नहीं है. क्रिकेट की सारी शब्दावली को गूंथ लें तो दो मिनट की एक अच्छी स्क्रिप्ट नहीं बन सकती. सो, हमने अपने अपने अनुप्रास तलाश लिए है. जैसे बाउंसर का ब्लंडर. बुज़ुर्गी का बोझ और ‘वाल’ का मेन गेट. इतने आहत हैं एक हार से हम कि अपनों को अपमानित करने पे उतर आये हैं. जैसे उनका खेल खुद उनके अस्तित्व और खुद उनके भी मन में कहीं न कहीं भरी ग्लानि से भी गया बीता हो.

एक हद हमें तय करनी पड़ेगी. वे अच्छा खेले नहीं या खेल नहीं पाए. हर बुरे खेल के बाद बेहतर खेलना चाहते नहीं थे या वे जानबूझ कर बुरा कर रहे थे . फिक्स्ड थे या टीम से बाहर निकाल दिए जाने के हालात खुद पैदा कर रहे थे? क्या उन्हें लग रहा था कि वैसे तो बी.सी.सी.आई. उन्हें छोड़ेगी नहीं. वे ही ऐसा करें कुछ कि क्रिकेट के इस खेल से निजात मिल जाए.

चलिए हम ही अगर इस देश में क्रिकेट के सब से बड़े एक्सपर्ट हैं और अब भारतीय क्रिकेट को यहाँ से आगे ले जाने जिम्मेवारी भी हमारी तो हम एक काम करें. अपने ही लोगों में से जो सबसे उपयुक्त हों उनकी एक कमेटी बनाएं. तीन महीने पीछे लौटें और तय करें कि आस्ट्रेलिया के दौरे पे कौन कौन जाएगा. पांच या पचास लोगों की एक चयन समिति बनाएं हम. देखें उनमें से कितने गंभीर, सहवाग, द्रविड़, सचिन और लक्ष्मण का चयन नहीं करते. किस किसी एक ने भी टीम आस्ट्रेलिया जाते समय कहा कि वो तब की बेस्ट टीम नहीं है. नहीं कहा तो फिर चयनकर्ताओं को अब बुरा भला क्यों कह रहे हैं हम. क्यों उन पर दबाव बना रहे हैं कि वे अपनी (कभी न की किसी) गलती का एहसास करें और अब फलां फलां को टीम से निकाल दें.

अब अगला तर्क ये हो सकता है कि चयनकर्ताओं ने तो टीम ठीक चुनी थी मगर खिलाड़ियों ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया. माना. अच्छा प्रक्दर्शन न हो पाने की ये अकेली और पहली घटना नहीं है. अच्छा प्रदर्शन बहुत सी टीमें नहीं कर पाई हैं. क्रिकेट में भी. राजनीति में भी. समाज सुधार के काम में भी और मीडिया में भी. कितनों ने किस किस को छोड़ा. कितने खुद गए. कितनो को निकाला गया? नितिन गडकरी और उनकी टीम के आने के बाद से कर्नाटक हुआ है किसने किस को निकाला. राजा और कनिमोज़ी को डी.एम.के. ने कब निकाला, कांग्रेस ने डी.एम.के. को कब? गांधीवादी अन्ना अब थप्पड़ की भाषा में बात करते हैं . उनका बहिष्कार किसने किया. टीआरपी की कसौटी पे पहले दस में होने के बाद भी जो घाटे में हैं, उनके चैनलों से कितने लोग निकाले गए? मुंह की बजाय नाक से ज्यादा बोलने वाले क्रिकेट एक्सपर्ट अगर लगातार बोल और ज्ञान बघार सकते हैं तो फिर इस दुनिया के इतिहास में पहली बार निन्यानबे शतक जड़ने वाले चार मैचों में असफल क्यों नहीं हो सकते?

राष्ट्र का सम्मान सर्वोपरि है, बेशक. लेकिन राष्ट्र पर गौरव भी कौन कराता है? लांस गिब्स याद है आपको. अपने करियर के आखिरी पड़ाव में आ के न उनकी गेंदों में वो धार रह गई थी, न बल्लेबाज़ को सिहरा देने वाली गति. बल्कि गेंदबाजी की शुरुआत भी नहीं कर पा रहे थे वे. फिर भी वेस्ट इंडीज़ ने उन्हें टीम से निकाला नहीं था. याद है क्यों?…उनकी चार सौ विकटें पूरी कराने के लिए. वेस्ट इंडीज़ ने उनसे चार विकटें तब भी पूरी कराई थीं कि जब वे खुद क्रिकेट छोड़ देना चाहते थे. और मुरली? मुथैया मुरलीधरन. उनकी आठ सौ विकटें पूरी कराने के लिए श्रीलंका ने क्या क्या नहीं किया. कहाँ कहाँ नहीं खिलाया उन्हें. तब भी कि जब उनका कन्धा जवाब दे रहा था. वे बहुत अच्छे फील्डर नहीं रह गए थे तब भी उन्हें सीमित ओवर वाले मैच खिलाये जा रहे थे. खासकर सीमित ओवर के खेल की टीम में संतुलन बिगड़ जाने के जोखिम पर भी श्रीलंका उन्हें खिला रहा था. मुरली के बाद भी मैच और सीरीज वे हारे. लेकिन मुरली को उन ने न कोसा, न छोड़ा.

ये वही द्रविड़ हैं जिनके ‘वाल’ बनने की वजह से भारत की पारियां ढहने से बची हैं और उन्हें दर्जनों बार मैच पुरुष माना है आपने. वही लक्षमण जो पिछली बार आस्ट्रेलिया में भारत के सफलतम बल्लेबाज़ थे. वही सहवाग जिनके रन नहीं, बैटिंग देखने के लिए लोग शौचालय तक जाना ताल देते थे. वो ही सचिन जिन्हें ‘भगवान्’ कहा गया. कल्पना करो कि सचिन कल को जड़ ही देते हैं अपना सौंवां शतक तो क्या कह के स्वागत करोगे उसका. क्या ये कह के तुम से आस्ट्रेलिया में तो हुआ न, अब क्या फायदा? और अगर उन्हें बाहर कर ही देते हैं चयनकर्ता तो क्या कभी हम खुद को माफ़ कर पाएंगे सौ शतकों का रिकार्ड अपने देश के नाम न दर्ज करा पाने के लिए?

गलतियां होती है. कमजोरी भी रह जाती है. कारण कुछ और भी होंगे. गलती बीवी, बाप और बेटे से भी होती है. रिश्तों को मगर कौन तोड़ता है. इन खिलाड़ियों का भी एक रिश्ता है इस खेल से भी, इस देश से भी और इस नाते हम से भी. एक पुरानी कहावत है- मां मारेगी. मगर धूप में खड़ा नहीं करेगी. समीक्षा करो. मगर असम्मान न करो. आलोचना करो. मगर अपमान न हो. और मारो भी बेशक मगर धूप में खड़ा न करना. सूर्य सर्वव्याप्त सम्मान भी इन्हीं से मिलेगा.

 

 

 

 

3 COMMENTS

  1. भारतीय क्रिकेट खिलाडियों ने देश का नाम ऊँचा किया है. बधाई के पात्र है. तेंदुलकर तो भारत रत्न भी मिलना चाइये. किन्तु क्रिकेट को क्रिकेट ही रहने देना चाहिए न की देव खेल का दर्जा दिया जाना चाहिए. माँ बाप को भी चाहिए की अपने बच्चो को खेल का चयन करने में क्रिकेट के साथ और भी खेलो का ध्यान दिया जाना चाहिए.

  2. अच्छा विषय उठाया है श्री फुटेला जी ने.

    जहाँ देश का प्रश्न होता है वहां खिलाडी नहीं देश बड़ा होता है. सवा अरब के देश में कुछ गिने चुने लोगो से भारत देश की गिनती क्यों होती है. खेल में खिलाडी को अंको से पहचाना जाना चाहिए न की नाम से. इतने खिलाड़ी होने चाहिए की आँख मुंच कर ११ अंक निकल दिए जाय और वो देश का प्रतिनिधित्व करे – अपने अंको के नंबर से न की नाम से.

    वैसे हमने खामख्वाह क्रिकेट को भगवान् बना रखा है. क्या है क्रिकेट में. क्या यह खेल भी है. व्यक्तिगत रूप से तो ठीक है किन्तु जब देश का प्रश्न आता है तो दुसरे खेल भी है जिनसे न सिर्फ देश का भला होगा बल्कि खिलाडी का भी भला होगा. क्रिकेट का इतिहास भी याद रखना होगा.

    पॉवर ऑफ़ ट्रान्सफर अग्रीमेंट के तहत हो सकता हो अंग्रेजो ने अप्रत्यक्ष रूप से क्रिकेट को भी भारत का अनिवार्य और सर्वप्रथम खेल घोषित करवाया हो ताकि भारतीय प्रतिभाएं अन्य खेलो में आगे न बढ़ सके. सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट में ही रमे रहे.

    वैसे दुनिया में क्रिकेट का ८०% से ज्यादा धन तो भारत में है. अगर भारत देश से क्रिकेट ख़त्म हो गया तो कुछ ही सालो में दुनिया में क्रिकेट का इतिहास ही रह जायेगा. इसीलिए वो गिने चुने देश जो सिर्फ नाम दर्ज करवाने के लिए क्रिकेट को पसंद करते है नहीं चाहते की भारत से क्रिकेट ख़त्म हो.
    तीन वायरस जो अंग्रेज १९४७ में भारत में छोड़ गए थे :
    १. चाय.
    २. क्रिकेट.
    ३. अंग्रेजी.

  3. जगमोहन फुटेला जी आप ने इस लेख को लिखने में आवश्यकता से अधिक भावुकता दिखाई है.हमारे तीन दिग्गज खेलाडियों((द्रविड़,लक्ष्मण और तेंदुलकर )में केवल तेंदुलकर हीं ऐसे हैं जो एक ऐसा कृतिमान स्थापित करने जा रहे हैं,जैसा क्रिकेट के इतिहास में कभी नहीं हुआ लक्ष्मण और द्रविड़ के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं है.अतः गिब्स और मुरली की तरह तेंदुलकर को भी इस मुद्दे पर नजर रखते हुए कुछ अवसर प्रदान किये जा सकते हैं और किया जाना भी चाहिए.लक्ष्मण और द्रविड़ के कृतिमानों को कोई नजर अंदाज नहीं कर सकता,पर उन कृतिमानों के कारण उन्हें टीम में बनाए रखने का कोई तुक नहीं है,क्योंकि वे कृतिमान हमें मैच नहीं जीता सकते.ऐसे भी खेल भावना का प्रदर्शन करते हुए अब उन्हें स्वयं उभड़ते खेलाडियों के लिए जगह खाली कर देनी चाहिए.यह राजनितिका अखाड़ा नहीं खेल का मैदान है.सहवाग तो अभी कैप्टेन बनने का स्वप्न संजोये हुयें हैं अत:अभी तो उनके हटने और हटाये जाने की चर्चा बेकार है. ऐसे तो भारत की इन हारों के लिए गंभीर और सहवाग की सलामी जोड़ी कम जिम्मेवार नहीं है.उनका इन मैचोमें सलामी सहभागिता शायद २५ का अंक भी नहीं पार कर सकी है.फुटेला जी भारतीय क्रिकेट को अब नए खून की आवश्यकता है और उसीमें भारतीय क्रिकेट का भविष्य है,अतः इस मामले में अधिक भावुक होने की आवश्यकता नहीं.

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