सोमनाथ ज्योतिर्लिंग : पौराणिक इतिहास और स्थापत्य

somnath jyotirlinga
डा. राधेश्याम द्विवेदी
इतिहास हमेशा वर्तमान पर हमले करता है और वर्तमान को बचाने के लिए बलिदान दिया जाता है तब यही वर्तमान फिर इतिहास बनता है. हिन्दुओ का इतिहास काफी संघर्षपूर्ण रहा है. एक समय था जब हिन्दू अपने देश में शांतिपूर्वक रहते थे. इस देश को सोने की चिड़िया बोला जाता था.तभी कुछ इंसानियत के दुश्मन देश में आते हैं और इस देश की शांति भंग हो जाती है. यहाँ लूट होती है. महिलाओं की इज्जत उतारी जाती हैं. बच्चों का क़त्ल होता है. हिन्दुओं के धार्मिक स्थान को तोड़ा और लूटा जाता है. ऐसा ही कुछ सोमनाथ मंदिर के बारे में बोला जाता है. सोमनाथ मंदिर विश्व प्रसिद्ध धार्मिक व पर्यटन स्थल है। मंदिर प्रांगण में रात साढ़े सात से साढ़े आठ बजे तक एक घंटे का साउंड एंड लाइट शो चलता है, जिसमें सोमनाथ मंदिर के इतिहास का बड़ा ही सुंदर सचित्र वर्णन किया जाता है। सोमनाथ मंदिर एक महत्वपूर्ण हिन्दू मंदिर है जिसे सोमनाथ ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है जिसकी गिनती 12 ज्योतिर्लिंगों में सर्वप्रथम ज्योतिर्लिंग के रूप में होती है।गुजरात (सौराष्ट्र) के काठियावाड़ क्षेत्र के वेरावल बंदरगाह में स्थित प्रभास में विराजमान हैं। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण स्वयं चन्द्रदेव ने किया था। इस कारण इस क्षेत्र का और भी महत्व बढ़ गया।इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है इसी क्षेत्र में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने यदु वंश का संहार कराने के बाद अपनी नर लीला समाप्त कर ली थी। ‘जरा’ नामक व्याध (शिकारी) ने अपने बाणों से उनके चरणों (पैर) को बींध डाला था। लोककथाओं के अनुसार इसी क्षेत्र में श्रीकृष्ण ने देहत्याग किया था। सोमनाथ मंदिर के लगभग 2 किलोमीटर दूरी पर ही भालका तीर्थ है। ऐसी मान्यता है कि श्रीकृष्ण भालुका तीर्थ पर विश्राम कर रहे थे। तब ही शिकारी ने उनके पैर के तलुए में पद्मचिन्ह को हिरण की आँख जानकर धोखे में तीर मारा था। तब ही कृष्ण ने देह त्यागकर यहीं से वैकुंठ गमन किया। इस स्थान पर बड़ा ही सुन्दर कृष्ण मंदिर बना हुआ है।
पौराणिक वर्णन:- शिव पुराण के अनुसार द्वादश ज्योतिर्लिंग में सोमनाथ की गणना प्रथम है। इनके आविर्भाव का प्रकरण प्रजापति दक्ष और चन्द्रमा के साथ जुड़ा है। जब प्रजापति दक्ष ने अपनी अश्विनी आदि सभी सत्ताइस पुत्रियों का विवाह चन्द्रमा के साथ कर दिया, तो वे बहुत प्रसन्न हुए। पत्नी के रूप में दक्ष कन्याओं को प्राप्त कर चन्द्रमा बहुत शोभित हुए और दक्षकन्याएँ भी अपने स्वामी के रूप में चन्द्रमा को प्राप्त कर शोभायमान हो उठी। चन्द्रमा की उन सत्ताइस पत्नियों में रोहिणी उन्हें अतिशय प्रिय थी, जिसको वे विशेष आदर तथा प्रेम करते थे। उनका इतना प्रेम अन्य पत्नियों से नहीं था। चन्द्रमा की उदासीनता और उपेक्षा का देखकर रोहिणी की अपेक्षा शेष स्त्रियाँ बहुत दुःखी हुई। वे सभी स्त्रियाँ अपने पिता दक्ष की शरण में गयीं और उनसे अपने कष्टों का वर्णन किया। अपनी पुत्रियों की व्यथा और चन्द्रमा के दुर्व्यवहार को सुनकर दक्ष भी बड़े दुःखी हुए। उन्होंने चन्द्रमा से भेंट की और शान्तिपूर्वक कहा- ‘कलानिधे! तुमने निर्मल व पवित्र कुल में जन्म लिया है, फिर भी तुम अपनी पत्नियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करते हो। तुम्हारे आश्रय में रहने वाली जितनी भी स्त्रियाँ हैं, उनके प्रति तुम्हारे मन में प्रेम कम और अधिक, ऐसा सौतेला व्यवहार क्यों है? तुम किसी को अधिक प्यार करते हो और किसी को कम प्यार देते हो, ऐसा क्यों करते हो? अब तक जो व्यवहार किया है, वह ठीक नहीं है, फिर अब आगे ऐसा दुर्व्यवहार तुम्हें नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति आत्मीयजनों के साथ विषमतापूर्ण व्यवहार करता है, उसे नर्क में जाना पड़ता है।’ इस प्रकार प्रजापति दक्ष ने अपने दामाद चन्द्रमा को प्रेमपूर्वक समझाया और ऐसा सोच लिया कि चन्द्रमा में सुधार हो जाएगा। उसके बाद प्रजापति दक्ष वापस चले गये। शिव महापुराण के कोटिरुद्र संहिता के चौदहवें अध्याय में लिखा है-
विमले च कुले त्वं हि समुत्पन्नः कलानिधे। आश्रितेषु च सर्वेषु न्यूनाधिक्यं कथं तव।।
कृतं चेतत्कृतं तच्च् न कर्त्तव्यं त्वया पुनः। वर्तनं विषमत्वेन नरकप्रदमीरितम्।।
प्रबल भावी के कारण विवश चन्द्रमा ने अपने ससुर प्रजापति दक्ष की बात नहीं मानी। रोहिणी के प्रति अतिशय आसक्ति के कारण उन्होंने अपने कर्त्तव्य की अवहेलना की तथा अपनी अन्य पत्नियों का कुछ भी ख्याल नहीं रखा और उन सभी से उदासीन रहे। दुबारा समाचार प्राप्त कर प्रजापति दक्ष बड़े दुःखी हुए। वे पुनः चन्द्रमा के पास आकर उन्हें उत्तम नीति के द्वारा समझने लगे। दक्ष ने चन्द्रमा से न्यायोचित बर्ताव करने की प्रार्थना की। बार-बार आग्रह करने पर भी चन्द्रमा ने अवहेलनापूर्वक जब दक्ष की बात नहीं मानी, तब उन्होंने शाप दे दिया। दक्ष ने कहा कि मेरे आग्रह करने पर भी तुमने मेरी अवज्ञा की है, इसलिए तुम्हें क्षयरोग हो जाय-
श्रयतां चन्द्र यत्पूर्व प्रार्थितो बहुधा मया।,न मानितं त्वया यस्मात्तस्मात्त्वं च क्षयी भव।।
दक्ष द्वारा शाप देने के साथ ही क्षण भर में चन्द्रमा क्षय रोग से ग्रसित हो गये। उनके क्षीण होते ही सर्वत्र हाहाकार मच गया। सभी देवगण तथा ऋषिगण भी चिंतित हो गये। परेशान चन्द्रमा ने अपनी अस्वस्थता तथा उसके कारणों की सूचना इन्द्र आदि देवताओं तथा ऋषियों को दी। उसके बाद उनकी सहायता के लिए इन्द्र आदि देवता तथा वसिष्ठ आदि ऋषिगणब्रह्माजी की शरण में गये। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि जो घटना हो गई है, उसे तो भुगतना ही है, क्योंकि दक्ष के निश्चय को पलटा नहीं जा सकता। उसके बाद ब्रह्माजी ने उन देवताओं को एक उत्तम उपाय बताया।
ब्रह्माजी का उपाय:- ब्रह्माजी ने कहा कि चन्द्रमा देवताओं के साथ कल्याणकारक शुभ प्रभास क्षेत्र में चले जायें। वहाँ पर विधिपूर्वक शुभ मृत्युंजय-मंत्र का अनुष्ठान करते हुए श्रद्धापूर्वक भगवान शिव की आराधना करें। अपने सामने शिवलिंग की स्थापना करके प्रतिदिन कठिन तपस्या करें। इनकी आराधना और तपस्या से जब भगवान भोलेनाथ प्रसन्न हो जाएँगे, तो वे इन्हें क्षय रोग से मुक्त कर देगें। पितामह ब्रह्माजी की आज्ञा को स्वीकार कर देवताओं और ऋषियों के संरक्षण में चन्द्रमा देवमण्डल सहित प्रभास क्षेत्र में पहुँच गये।
मृत्यंजय-मंत्र का जप:- वहाँ चन्द्रदेव ने मृत्युंजय भगवान की अर्चना-वन्दना और अनुष्ठान प्रारम्भ किया। वे मृत्युंजय-मंत्र का जप तथा भगवान शिव की उपासना में तल्लीन हो गये। ब्रह्मा की ही आज्ञा के अनुसार चन्द्रमा ने छः महीने तक निरन्तर तपस्या की और वृषभ ध्वज का पूजन किया। दस करोड़ मृत्यंजय-मंत्र का जप तथा ध्यान करते हुए चन्द्रमा स्थिरचित्त से वहाँ निरन्तर खड़े रहे। उनकी उत्कट तपस्या से भक्तवत्सल भगवान शंकर प्रसन्न हो गये। उन्होंने चन्द्रमा से कहा- ‘चन्द्रदेव! तुम्हारा कल्याण हो। तुम जिसके लिए यह कठोर तप कर रहे हो, उस अपनी अभिलाषा को बताओ। मै तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुम्हें उत्तम वर प्रदान करूँगा।’ चन्द्रमा ने प्रार्थना करते हुए विनयपूर्वक कहा- ‘देवेश्वर! आप मेरे सब अपराधों को क्षमा करें और मेरे शरीर के इस क्षयरोग को दूर कर दें।’
शिव का वरदान:- भगवान शिव ने कहा– ‘चन्द्रदेव! तुम्हारी कल प्रतिदिन एक पक्ष में क्षीण हुआ करेगी, जबकि दूसरे पक्ष में प्रतिदिन वह निरन्तर बढ़ती रहेगी। इस प्रकार तुम स्वस्थ और लोक-सम्मान के योग्य ही जाओगे। भगवान शिव का कृपा-प्रसाद प्राप्त कर चन्द्रदेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने भक्तिभावपूर्वक शंकर की स्तुति की। ऐसी स्थिति में निराकार शिव उनकी दृढ़ भक्ति को देखकर साकार लिंग रूप में प्रकट हो गये तथा प्रभास क्षेत्र के महत्त्व को बढाने हेतु देवताओं के सम्मान तथा चन्द्रमा के यश का विस्तार करने के लिए स्वयं ‘सोमेश्वर’ कहलाने लगे। चन्द्रमा के नाम पर सोमनाथ बने भगवान शिव संसार में ‘सोमनाथ’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
धार्मिक मान्यता:- सोमनाथ भगवान की पूजा और उपासना करने से उपासक भक्त के क्षय तथा कोढ़ आदि रोग सर्वथा नष्ट हो जाते हैं और वह स्वस्थ हो जाता है। यशस्वी चन्द्रमा के कारण ही सोमेश्वर भगवान शिव इस भूतल को परम पवित्र करते हुए प्रभास क्षेत्र में विराजते हैं। उसप्रभास क्षेत्र में सभी देवताओं ने मिलकर एक सोमकुण्ड की भी स्थापना की है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस कुण्ड में शिव तथा ब्रह्मा का सदा निवास रहते हैं। इस पृथ्वी पर यह चन्द्रकुण्ड मनुष्यों के पाप नाश करने वाले के रूप में प्रसिद्ध है। इसे ‘पापनाशक-तीर्थ’ भी कहते हैं। जो मनुष्य इस चन्द्रकुण्ड में स्नान करता है, वह सब प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है। इस कुण्ड में बिना नागा किये छः माह तक स्नान करने से क्षय आदि दुःसाध्य और असाध्य रोग भी नष्ट हो जाते हैं। मुनष्य जिस किसी भी भावना या इच्छा से इस परम पवित्र और उत्तम तीर्थ का सेवन करता है, तो वह बिना संशय ही उसे प्राप्त कर लेता है। शिव महापुराण की कोटिरुद्र संहिता के चौदहवें अध्याय में उपर्युक्त आशय वर्णित है-
चन्द्रकुण्डं प्रसिद्ध च पृथिव्यां पापनाशनम्। तत्र स्नाति नरो यः स सर्वेः पापैः प्रमुच्यते।।
रोगाः सर्वे क्षयाद्याश्च ह्वासाध्या ये भवन्ति वै। ते सर्वे च क्षयं यान्ति षण्मासं स्नानमात्रतः।।
प्रभासं च परिक्रम्य पृथिवीक्रमसं भवम्। फलं प्राप्नोति शुद्धात्मा मृतः स्वर्गे महीयते।।
सोमलिंग नरो दृष्टा सर्वपापात्प्रमुच्यते । लब्धवा फलं मनोभीष्टं मृतः स्वर्गं समीहते।।
इस प्रकार सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध भगवान शिव देवताओं की प्रार्थना पर लोक कल्याण करने हेतु प्रभास क्षेत्र में हमेशा-हमेशा के लिए विराजमान हो गये। इस प्रकार शिव-महापुराण में सोमेश्वर महादेव अथवा सोमनाथ ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति का वर्णन है। इसके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में लिखी कथा भी इसी से मिलती-जुलती है।
इतिहास:- सर्वप्रथम एक मंदिर ईसा के पूर्व में अस्तित्व में था जिस जगह पर द्वितीय बार मंदिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया। आठवीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी। प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया। इस मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी। ‘‘मंदिर की सेवा के लिए 10 हजार गांव लगे थे. मंदिर में 100 पुजारी, 500 नर्तकियां तथा 200 गायक दर्शकों को भगवान के गीत सुनाया करते थे. मंदिर की अपार सम्पत्ति से ललचाकर महमूद अजमेर के रास्ते सोमनाथ के द्वार पर जा पहुंचा. राजपूतों ने मंदिर की रक्षा के लिए घमासान युद्ध किया, लगभग 50 हजार हिंदू मारे गए. डॉ. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात’ जी की पुस्तक ‘‘क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?’’ के पेज न. 203 पर सोमनाथ मंदिर के विषय में लिखा है, जब महमूद की सेना ने नरसंहार शुरू किया, तब हिंदुओं का एक समूह दौड़ता हुआ मंदिर की मूर्ति के सामने धरती पर लेट कर उससे विजय के लिए प्रार्थना करने लगा. हिंदुओं के ऐसे दल के दल मंदिर में प्रवेश करते, जिनके हाथ गरदन के पास जुड़े होते, जो रो रहे होते और बड़े भावावेश पूर्ण ढंग से सोमनाथ की मूर्ति के आगे गिड़गिड़ा कर प्रार्थनाएं कर रहे होते. फिर वे बाहर आते, जहां उन्हें कत्ल कर दिया जाता. यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक कि हर हिंदू कत्ल नहीं हो गया. (देखें: सर एच.एच. इलियट और जान डाउसन कृत ‘द हिस्ट्री आफ इंडिया एज टोल्ड बाई इट्स ओन हिस्टोरियनस’ पृ. 470)
प्राचीन भारतीय इतिहास और आधुनिक भारत के इतिहास में भी सोमनाथ मन्दिर को सन् 1024 में महमूद ग़ज़नवी ने भ्रष्ट कर दिया था। मूर्ति भंजक होने के कारण तथा सोने-चाँदी को लूटने के लिए उसने मन्दिर में तोड़-फोड़ की थी।मन्दिर के हीरे-जवाहरातों को लूट कर वह अपने देश ग़ज़नी लेकर चला गया। उक्त सोमनाथ मन्दिर का भग्नावशेष आज भी समुद्र के किनारे विद्यमान है। इतिहास के अनुसार बताया जाता है कि जब महमूद ग़ज़नवी उस शिवलिंग को नहीं तोड़ पाया, तब उसने उसके अगल-बगल में भीषण आग लगवा दी। सोमनाथ मन्दिर में नीलमणि के छप्पन खम्भे लगे हुए थे। उन खम्भों में हीरे-मोती तथा विविध प्रकार के रत्न जड़े हुए थे। उन बहुमूल्य रत्नों को लुटेरों ने लूट लिया और मन्दिर को भी नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।
अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन 1024 में कुछ 5,000 साथियों के साथ सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया। 50,000 लोग मंदिर के अंदर हाथ जोडकर पूजा अर्चना कर रहे थे, प्रायः सभी कत्ल कर दिये गये। अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन 1024 में कुछ 5,000 साथियों के साथ सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया। 50,000 लोग मंदिर के अंदर हाथ जोडकर पूजा अर्चना कर रहे थे, प्रायः सभी कत्ल कर दिये गये। इस सोमनाथ मंदिर को लूटने के लिए महमूद गजनवी अपनी विशाल सेना लेकर आया था.तो आज हम आपको बताने वाले एक ऐसी कहानी, जो हिदुओं के लिए गर्व की बात है. यह कहानी है सोमनाथ मंदिर को बचाने के लिए बलिदान की, यह कहानी है अमर शहीदों के बलिदान की. सोमनाथ मंदिर की रक्षा के प्रयास में कोई 50 हजार हिंदू मंदिर के द्वार पर मारे गए और सोमनाथ मंदिर तोड़कर महमूद ने कोई 2 करोड़ दीनार की सम्पत्ति लूट ली.
बार-बार खंडन और जीर्णोद्धार:- मंदिर का बार-बार खंडन और जीर्णोद्धार होता रहा पर शिवलिंग यथावत रहा। लेकिन सन 1026 में महमूद गजनी ने जो शिवलिंग खंडित किया, वह यही आदि शिवलिंग था। इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया। सन 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर क़ब्ज़ा किया तो इसे पाँचवीं बार गिराया गया। इसके बाद प्रतिष्ठित किए गए शिवलिंग को 1300 में अलाउद्दीन की सेना ने खंडित किया। इसके बाद कई बार मंदिर और शिवलिंग को खंडित किया गया। बताया जाता है आगरा के किले में रखे देवद्वार सोमनाथ मंदिर के हैं। महमूद गजनी सन 1026 में लूटपाट के दौरान इन द्वारों को अपने साथ ले गया था। सोमनाथ मंदिर के मूल मंदिर स्थल पर मंदिर ट्रस्ट द्वारा निर्मित नवीन मंदिर स्थापित है। राजा कुमार पाल द्वारा इसी स्थान पर अन्तिम मंदिर बनवाया गया था।
मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पुनः 1706 में गिरा दिया। इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृह मन्त्रीसरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया। सौराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उच्छंगराय नवल शंकर ढेबर ने 19 अप्रैल 1940 को यहां उत्खनन कराया था। इसके बाद भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने उत्खनन द्वारा प्राप्त ब्रह्मशिला पर शिव का ज्योतिर्लिग स्थापित किया है। 1948 में प्रभासतीर्थ प्रभास पाटण के नाम से जाना जाता था। इसी नाम से इसकी तहसील और नगर पालिका थी। यह जूनागढ़ रियासत का मुख्य नगर था। लेकिन 1948 के बाद इसकी तहसील, नगर पालिका और तहसील कचहरी का वेरावल में विलय हो गया। सौराष्ट्र के पूर्व राजा दिग्विजय सिंह ने 8 मई 1950 को मंदिर की आधार शिला रखी तथा 11 मई 1951 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने मंदिर में ज्योतिर्लिग स्थापित किया। नवीन सोमनाथ मंदिर 1962 में पूर्ण निर्मित हो गया। 1970 में जामनगर की राजमाता ने अपने स्वर्गीय पति की स्मृति में उनके नाम से दिग्विजय द्वार बनवाया। इस द्वार के पास राजमार्ग है और पूर्व गृहमन्त्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा है। सोमनाथ मंदिर निर्माण में पटेल का बडा योगदान रहा। मंदिर के दक्षिण में समुद्र के किनारे एक स्तंभ है। उसके ऊपर एक तीर रखकर संकेत किया गया है कि सोमनाथ मंदिर और दक्षिण ध्रुव के बीच में पृथ्वी का कोई भूभाग नहीं है। मंदिर के पृष्ठ भाग में स्थित प्राचीन मंदिर के विषय में मान्यता है कि यह पार्वती जी का मंदिर है। सोमनाथजी के मंदिर की व्यवस्था और संचालन का कार्य सोमनाथ ट्रस्ट के अधीन है। सरकार ने ट्रस्ट को जमीन, बाग-बगीचे देकर आय का प्रबंध किया है। यह तीर्थ पितृगणों के श्राद्ध, नारायण बलि आदि कर्मो के लिए भी प्रसिद्ध है। चैत्र, भाद्र, कार्तिक माह में यहां श्राद्ध करने का विशेष महत्व बताया गया है। इन तीन महीनों में यहां श्रद्धालुओं की बडी भीड़ लगती है। इसके अलावा यहां तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्व है।
तीर्थ स्थान और मंदिर :- मंदिर नं.1 के प्रांगण में हनुमानजी का मंदिर, पर्दी विनायक, नवदुर्गा खोडीयार, महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा स्थापित सोमनाथ ज्योतिर्लिग, अहिल्येश्वर, अन्नपूर्णा, गणपति और काशी विश्वनाथ के मंदिर हैं। अघोरेश्वर मंदिर नं. 6 के समीप भैरवेश्वर मंदिर, महाकाली मंदिर, दुखहरण जी की जल समाधि स्थित है। पंचमुखी महादेव मंदिर कुमार वाडा में, विलेश्वर मंदिर नं. 12 के नजदीक और नं. 15 के समीप राममंदिर स्थित है। नागरों के इष्टदेव हाटकेश्वर मंदिर, देवी हिंगलाज का मंदिर, कालिका मंदिर, बालाजी मंदिर, नरसिंह मंदिर, नागनाथ मंदिर समेत कुल 42 मंदिर नगर के लगभग दस किलो मीटर क्षेत्र में स्थापित हैं। बाहरी क्षेत्र के प्रमुख मंदिर :- वेरावल प्रभास क्षेत्र के मध्य में समुद्र के किनारे शशिभूषण मंदिर, भीड़भंजन गणपति, बाणेश्वर, चंद्रेश्वर-रत्नेश्वर, कपिलेश्वर, रोटलेश्वर, भालुका तीर्थ है। भालकेश्वर, प्रागटेश्वर, पद्म कुंड, पांडव कूप, द्वारिकानाथ मंदिर, बालाजी मंदिर, लक्ष्मीनारायण मंदिर, रूदे्रश्वर मंदिर, सूर्य मंदिर, हिंगलाज गुफा, गीता मंदिर, बल्लभाचार्य महाप्रभु की 65वीं बैठक के अलावा कई अन्य प्रमुख मंदिर है। प्रभास खंड में विवरण है कि सोमनाथ मंदिर के समयकाल में अन्य देव मंदिर भी थे। इनमें शिवजी के 135, विष्णु भगवान के 5, देवी के 25, सूर्यदेव के 16, गणेशजी के 5, नाग मंदिर 1, क्षेत्रपाल मंदिर 1, कुंड 19 और नदियां 9 बताई जाती हैं। एक शिलालेख में विवरण है कि महमूद के हमले के बाद इक्कीस मंदिरों का निर्माण किया गया। संभवत: इसके पश्चात भी अनेक मंदिर बने होंगे। प्रमुख तीर्थ द्वारिका सोमनाथ से करीब दो सौ किलोमीटर दूरी पर प्रमुख तीर्थ श्रीकृष्ण की द्वारिका है। यहां भी प्रतिदिन द्वारिकाधीश के दर्शन के लिए देश-विदेश से हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। यहां गोमती नदी है। इसके स्नान का विशेष महत्व बताया गया है। इस नदी का जल सूर्योदय पर बढ़ता जाता है और सूर्यास्त पर घटता जाता है, जो सुबह सूरज निकलने से पहले मात्र एक डेढ फीट ही रह जाता है।
पुन: प्रतिष्ठा:- महमूद ग़ज़नवी के मन्दिर लूटने के बाद राजा भीमदेव ने पुनः उसकी प्रतिष्ठा की। सन् 1093 में सिद्धराज जयसिंह ने भी मन्दिर की प्रतिष्ठा और उसके पवित्रीकरण में भरपूर सहयोग किया। 1168 में विजयेश्वर कुमारपाल ने जैनाचार्य हेमचन्द्र सरि के साथ सोमनाथ की यात्रा की थी। उन्होंने भी मन्दिर का बहुत कुछ सुधार करवाया था। इसी प्रकार सौराष्ट्र के राजा खंगार ने भी सोमनाथ-मन्दिर का सौन्दर्यीकरण कराया था। उसके बाद भी मुसलमानों ने बहुत दुराचार किया और मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट करते रहे। अलाऊद्दीन ख़िलजीने सन् 1297 ई. में पुनः सोमनाथ-मन्दिर का ध्वंस किया। उसके सेनापति नुसरत ख़ाँ ने जी-भर मन्दिर को लूटा। सन् 1395 ई. में गुजरात का सुल्तान मुजफ्फरशाह भी मन्दिर का विध्वंस करने में जुट गया। अपने पितामह के पदचिह्नों पर चलते हुए अहमदशाह ने पुनः सन् 1413 ई. में सोमनाथ-मन्दिर को तोड़ डाला। प्राचीन स्थापत्यकला जो उस मन्दिर में दृष्टिगत होती थी, उन सबको उसने तहस-नहस कर डाला।
आज़ादी के बाद:- भारतीय स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद राष्ट्र के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने देश के स्वाभिमान को जाग्रत करते हुए पुनः सोमनाथ मन्दिर का भव्य निर्माण कराया। आज पुनः भारतीय-संस्कृति और सनातन-धर्म की ध्वजा के रूप में सोमेश्वर ज्योतिर्लिंग ‘सोमनाथ मन्दिर’ के रूप में शोभायमान है। सोमनाथ का मूल मन्दिर जो बार-बार नष्ट किया गया था, वह आज भी अपने मूलस्थान समुद्र के किनारे ही है। स्वाधीन भारत के प्रथम गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने यहाँ भव्यमन्दिर का निर्माण कराया था। सोमनाथ के मूल मन्दिर से कुछ ही दूरी परअहल्याबाई द्वारा बनवाया गया सोमनाथ का मन्दिर है।
कैसे पहुँचें:- सोमनाथ का मन्दिर जिस स्थान पर स्थित है, उसे वेरावल, सोमनाथपाटण, प्रभास और प्रभासपाटण आदि नामों से जाना जाता है। सौराष्ट्र के पश्चिमी रेलवे स्टेशन की राजकोट-वेरीवलतथा खिजडिया वेरावल लाइनें हैं। इन दोनों ओर से वेरावल पहुँचा जाता है। वेरावल रेलवे स्टेशन से प्रभासपाटण पाँच किलोमीटर की दूरी पर है। स्टेशन से बस, टैक्सी आदि के द्वारा प्रभासपाटण पहुँचा जा सकता है।
विशेषता:- यहाँ भू-गर्भ में (भूमि के नीचे) सोमनाथ लिंग की स्थापना की गई है। भू-गर्भ में होने के कारण यहाँ प्रकाश का अभाव रहता है। इस मन्दिर में पार्वती, सरस्वती देवी, लक्ष्मी, गंगा औरनन्दी की भी मूर्तियाँ स्थापित हैं। भूमि के ऊपरी भाग में शिवलिंग से ऊपर अहल्येश्वर मूर्ति है। मन्दिर के परिसर में गणेशजी का मन्दिर है और उत्तर द्वार के बाहर अघोरलिंग की मूर्ति स्थापित की गई है। प्रभावनगर में अहल्याबाई मन्दिर के पास ही महाकाली का मन्दिर है। इसी प्रकार गणेशजी, भद्रकाली तथा भगवान विष्णु का मन्दिर नगर में विद्यमान है। नगर के द्वार के पास गौरीकुण्ड नामक सरोवर है। सरोवर के पास ही एक प्राचीन शिवलिंग है।
‘समुद्रका’ अग्निकुण्ड:- सोमनाथ में धर्मयात्रियों के लिए अनेक पवित्र और दर्शनीय स्थान विद्यमान हैं। प्रभासपाटण नगर के बाहर ही एक ‘समुद्रका’ नामक अग्निकुण्ड है। सर्वप्रथम यात्रीगण इसी कुण्ड में स्नान करते हैं, उसके बाद वे प्राची त्रिवेणी में स्नान करने के लिए जाते हैं।
प्राची त्रिवेणी:- नगर के द्वार से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर प्राची त्रिवेणी है। उससे पहले ही रास्ते में ब्रह्माकुण्ड नामक बावडी मिलती है। वहीं पर ब्रह्माकण्डलु नामक तीर्थ और ब्रह्मेश्वर शिवमन्दिर भी स्थित है। इससे आगे चलने पर ‘आदिप्रभास’ तथा ‘जलप्रभास’ नामक दो कुण्डों का दर्शन होता है। हिरण्या, सरस्वती और कपिला नाम वाली तीन नदियाँ नगर से पूरब की दिशा में समुद्र में जाकर मिलती है। नगर से पूरब में इन तीनों नदियों का संगम होने के कारण ही इसे ‘प्राची त्रिवेणी’ कहा जाता है। सबसे पहले ‘कपिला’ सरस्वती में मिलती है, उसके बाद ‘सरस्वती’ हिरण्या में मिलती है, फिर ‘हिरण्या’ समुद्र में जा मिलती है। प्राचीन त्रिवेणी संगम से कुछ ही दूर पर सूर्य भगवान का मन्दिर है। उससे आगे चलने पर हिंगलाज भवानी और महादेव सिद्धनाथ का मन्दिर एक गुफा के भीतर प्राप्त होता है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ से बलदेव जी शेषरूप धारण करके पाताल में गये थे। वहीं समीप में ही श्री वल्लभाचार्य जी की बैठक है, जहाँ त्रिवेणी माता, महाकालेश्वर, श्रीराम, श्रीकृष्ण और भीमेश्वर के मन्दिर हैं। इस स्थान को ‘देहोत्सर्ग-तीर्थ’ भी कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण को जब भालक-तीर्थ में बाण लगा था, उसके बाद वे यहाँ पर आ गये थे और फिर अन्तर्धान हो गये थे। कल्पभेद की कथा के अनुसार श्रीकृष्णचन्द्र के शरीर का यहीं अग्नि-संस्कार किया गया था। देहोत्सर्ग तीर्थ से कुछ आगे चलकर हिरण्या नदी के किनारे यादवस्थली मिलती है। ऐसी मान्यता है कि इस यादवस्थली पर ही आपस में लड़ते हुए यादवगण नष्ट हो गये थे।
बाणतीर्थ:-वेरोवल रेलवे स्टेशन से सोमनाथ आते समय रास्ते में समुद्र के किनारे बाणतीर्थ अवस्थित है। इस तीर्थ में शशिभूषण महादेव का प्राचीन मन्दिर है। समुद्र के किनारे बाणतीर्थ से पश्चिम की ओर चन्द्रभाग तीर्थ है। इस तीर्थ में बालू के ऊपर ही कलिलेश्वर महादेव का स्थान है। बाणतीर्थ से लगभग पाँच किलोमीटर पर भालुपुर गाँव के पास भालक-तीर्थ है। यहाँ पर पास में ही भालकुण्ड और पद्मकुण्ड नामक सरोवर हैं। यहीं पर एक पीपल-वृक्ष के नीचे भालेश्वर शिव का स्थान है। इस पेड़ को मोक्ष-पीपल भी कहा जाता है। ऐसी प्रसिद्धि है कि इसी वृक्ष के (पीपल) नीचे बैठे श्रीकृष्णचन्द्र को उनके चरण में ‘जरा’ नामक व्याध ने बाण मारा था। कहा जाता है कि उनके चरणों से बाण निकाल कर इसी भालकुण्ड में फेंक दिया था। भालकुण्ड के पास दुर्गकूट में गणेश जी का भी मन्दिर है। यहाँ एक कर्दमकुण्ड भी है, जहाँ पर कर्देश्वर-महादेव का मन्दिर है। कुछ लोग बाण तीर्थ को ही भालक तीर्थ भी कहते हैं। पुराण की एक विशेष कथा के अनुसार भगवान ब्रह्मा ने पृथ्वी को खोदकर प्रभास क्षेत्र में मुर्गी के अण्डे बराबर स्वयम्भू शिवलिंग सोमनाथ के दर्शन किये उसके बाद उन्होंने उस लिंग को कुशा तथा मधु से ढँककर उस पर ब्रह्मशिला रख दी। उसी ब्रह्मशिला के उपर ब्रह्मा ने सोमनाथ के बृहद्लिंग की प्रतिष्ठा की। चन्द्रमा इसी बृहद्लिंग की अर्चना-वन्दना करने के बाद प्रजापति दक्ष के शाप से मुक्त हुऐ थे।

Time: July 21, 2016 at 8:28 am

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