गीत ; आई नदी घर्रात जाये – प्रभुदयाल श्रीवास्तव

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

आई नदी घर्रात जाये

मझधारे में हाथी डुब्बन

कूलों कूलों पुक्खन पुक्खन

कीट जमा सीढ़ी पर ऐसा

जैसे हो मटमैला मक्खन

डूबे घाट घटोई बाबा

मन मंदिर के भीतर धावा

हुई क्रोध में पानी पानी

उगले धुँआं सा लावा

उसनींदी बर्रात जाये

आई नदी घर्रात जाये|

बजरे और शिकारे खोये

चप्पू पाल डांड़ सब रोये

शिव डूबे मंदिर के जल में

गहरी नींद ओड.कर सोये

दौड़ लगाता पानी कैसा

करता है मनमानी जैसा

जैसे दौड़े आज आदमी

पाने को बस पैसा पैसा

नेता सी गर्रात जाये

आई नदी घर्रात जाये|

 

कहती रहती रोज कहानी

देर देर तक बूढ़ी नानी

अब घर से न पाँव निकाले

बिटिया हो गई बहुत स्यानी

नदी सरीखा दौड़ लगाना

जल्दी सागर में मिल जाना

ये बेशर्मी और फूहड़ता

नानी को लगती बचकाना

मेंढक सी टर्रात जाये

आई नदी घर्रात जाये|

 

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here