शोषण व उत्पीड़न से प्रभावित – भारतीय महिला !


बिलक़ीस बानो और निर्भया दो ऐसी पीड़िता हैं जिनके साथ दो अलग अलग स्थानों पर अपमानजनक मामला किया  गया। इनकी इज़्ज़त के साथ सामूहिक रूप से खिलवाड़ की गई और उनके साथ होने वाले अत्याचार व दुर्व्यवहार ने पूरे देश को शर्मसार कर दिया। इसके बावजूद यह घटनाएं पहली नहीं हैं और ना ही आखिरी। हां यह अलग बात है कि इन घटनाओं ने मीडिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित क्या। और हम सभी जानते हैं कि मीडिया भी अपना ध्यान किसी घटना की ओर तभी करता है जबकि उसे जनता का बड़े पैमाने पर समर्थन हासिल हो या फिर उनकी तिजोरी बड़े लोग भर दें। नहीं तो इन दो घटनाओं के बीच न जाने किस क़दर मिलती जुलती ज़ुल्म व ज्यादतियों की घटनाएं घट चुकी हैं। लेकिन मीडिया ने उन्हें सिरे से नजरअंदाज कर दिया।

महिलाओं के साथ हद दर्जे ज़ुल्म व ज्यादतियों की यह घटनाएं या इन जैसी अन्य अनगिनत घटनाएं, जहां महिला को नंगा करके जनता के सामने घुमाया जाता है, उसके आत्मसम्मान से खिलवाड़ की जाती है, उसे एक दासी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, कभी उसे दहेज के नाम पर आग के हवाले किया जाता है तो कभी उससे पीछा छुड़ाने के लिए डाइन कह के मौत के हवाले किया जाता है। इससे आगे, इसी समाज में पलने बढ़ने वाले लफंगे और गुंडे अपनी बुरी नज़रों के साथ छेड़खानी करते हुए हर गली-कूचे में साल के बारह महीने और दिन के चौबीस घंटे अपनी माँ, बहन और बेटियों समान औरत को अपमानित करने से रुकते नहीं हैं। यह भयानक तस्वीर उस समाज की है जिसे भारतीय समाज कहा जाता है। लेकिन जहां समाज की यह तस्वीर उभर कर सामने आती है वहीं यह सवाल भी उठता है कि आखिर यह व्यवहार भारतीय समाज में महिलाओं के साथ क्यों बरता जाता है?

सवाल का जवाब अगर एक वाक्य में दिया जाए तो मुख्य कारण भारतीय संस्कृति और विचारधारा है जहां महिलाओं को किसी भी स्तर पर सम्मान नहीं दिया गया है। हाँ यह अलग बात है कि जैसे-जैसे इस्लाम और इस्लामी शिक्षाओं का भारतीय समाज पर असर हुआ साथ ही दुनिया के अन्य धर्मों और संस्कृति से संबंध स्थापित हुए वैसे वैसे भारतीय समाज को ज़ुल्म व ज्यादतियों से सुरक्षित रखने, उसे ज़िल्लत व रुसवाई से बचाने और उसमें बदलाव के इच्छुक कुछ लोगों ने संगठित और सुनियोजित प्रयास किए। परिणाम स्वरूप भारतीय संस्कृति और विचारधारा में बदलाव आया और कुछ अधिकार भारतीय समाज में महिलाओं को प्रदान किए गए जो उससे पहले उन्हें प्राप्त नहीं थे। दूसरी ओर जब महिला को घर से बाहर निकालने वालों ने उसे बाज़ार की शोभा बनाया तो वह खुद उस सिद्धांत और संस्कृति के जाल में फंसती चली गई जहां महिलाओं को बाज़ार में बिकने वाले सामान की तरह एक वस्तु से बढ़ के कोई स्थान नसीब नहीं हो सका। इन्हीं दो हिंसक धाराओं के बीच जब महिला ने अपनी स्वतंत्रता और हर स्तर पर बराबरी की बात की तो वह खुद नहीं समझ सकी कि उसे रास्ता दिखाने वाले, उसके मार्गदर्शक और मददगार आखिर उससे क्या हासिल करना चाहते हैं? और आज तथ्य यह है कि हर औरत जो खुद को “सभ्य समाज” का हिस्सा बना चुकी है वह आंतरिक रूप से बुरी तरह परेशान है, इसके बावजूद यह अलग बात है कि क्यों की वह घर के अंदर उत्पीड़न का ज़्यादह शिकार है इसलिए वह “सभ्य समाज” की सभ्यता और शालीनता के लबादा में ढकी ज्यादतियों को बर्दाश्त करने पर मजबूर है।

वर्तमान भारत में दो राज्यों को विशेष स्थान प्राप्त है। इन में एक दिल्ली है जिसे भारत की राजधानी होने का सौभाग्य प्राप्त है, तो दूसरी गुजरात । इन दोनों ही राज्यों में महिलाओं पर अनगिनत अत्याचार किए जाते रहे हैं। इन्हीं अत्याचार की शिकार वे दो महिलाएं भी हैं जिनके नाम इस लेख के आरम्भ में लिखे गए हैं। एक बिलक़ीस बानो है, जिसका संबंध गुजरात से है। 19  वर्षीय बिलक़ीस बानो के साथ 2002 में गर्भावस्था के दौरान सामूहिक बलात्कार किया गया तथा 14 रिश्तेदारों को मौत के घाट उतार दिया गया। उसका बयान है कि 2002 नरसंहार के दौरान वह लिमखेड़ा गुजरात में रहती थी। हालात खराब होने के बाद वह परिजनों के साथ वहाँ से जा रही थी, जब अपराधियों ने उन्हें पकड़ लिया। वह कहती है कि वे सबको मार रहे थे, मुझे भी मारा और कुछ देर बाद बेहोश हो गई, जब मैं होश में आई तो मेरे शरीर पर सिर्फ़ पेटीकोट था, मेरा दुपट्टा, ब्लाउज़ सब फट चुका था, आसपास देखा तो उन सबकी लाशें दिखाई दीं जिनके साथ मैं घर से जान बचाने के लिए निकली थी। मैंने छोटी बेटी सालेहा को भी वहीं देखा, वह मेरी जान थी, लेकिन तब उसमें जान नहीं बची थी। बची शव पास ही रखा था और जितने लोग थे वे मर चुके थे।

बाद में उसने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, 15 वर्ष न्यायिक संघर्ष के बाद सामूहिक बलात्कार और 14 लोगों की हत्या के जुर्म में मुंबई हाईकोर्ट ने 11 अपराधियों उम्रकैद की सजा बरकरार रखी और 5 पुलिसकर्मियों के खिलाफ फिर से जांच का आदेश दिया। लेकिन उन्हीं 11 आरोपियों में तीन महत्वपूर्ण आरोपियों को मृत्युदंड की मांग सीबीआई ने की थी, जिसे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। यह सिर्फ एक घटना है उस सभ्य और विकास पूर्ण राज्य की जिससे हमारे प्रधानमंत्री संबंध रखते हैं और जिसे सभ्यता व संस्कृति और निर्माण व विकास के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। दूसरी घटना भी बिलक़ीस बनो की घटना से कुछ कम वहशत नाक नहीं है। यह घटना 16 दिसंबर 2012 की शाम देश की राजधानी दिल्ली में घटित हुई। इस दुर्घटना का फैसला भी 5 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने 5 मई 2017 को दिया, न्यायमूर्ति मिश्रा ने फैसला सुनाते हुए कहा कि निर्भया के साथ जो बर्बरता का सबूत दिया गया, उसकी जितनी भी आलोचना की जाए कम है। दोषियों ने न केवल सामाजिक विश्वास का गला घोंटा, बल्कि बर्बरता की सारी हदें पार कर दीं। 315 पृष्ठों के फैसले और न्यायमूर्ति भानोमती के 114 पृष्ठों के फैसले को ज़रूर पढ़ना चाहिए, जिससे इस मामले की गंभीरता के अधिक सबूत सामने आएंगे।

प्यारे वतन भारत में महिलाओं के साथ जारी अत्याचार और शोषण कि इस पृष्ठभूमि में जो दो उदाहरण यहां पेश किए गए, अच्छी तरह समझा जा सकता है कि भारतीय समाज किस मार्ग पर अग्रसर है? इस अवसर पर एक और तस्वीर सामने लाना भी ज़रूरी है। इसकी वजह यह है कि एक लंबे समय से भारत में आम समान नागरिक संहिता (कॉमन सिविल कोड) लागू करने और मुस्लिम पर्सनल लॉ को समाप्त करने की संगठित और सुनियोजित प्रयास जारी है। कॉमन सिविल कोड के कार्यान्वयन में संभव है देश के व्यक्तियों और समूहों और खुद सरकार हिंदू समाज और परिवार में जारी महिलाओं पर बेइंतहा उत्पीड़न से मुक्ति चाहते हों। और यह भी संभव है कि चूंकि वह खुद इस समाज का प्रत्यक्ष रूप से हिस्सा हैं और बहुत क़रीब से महिलाओं पर जारी अत्याचार और दुर्व्यवहार को देखते हैं, इसलिए चाहते हों कि कहीं ऐसी कोई स्थिति न पैदा हो जाए जिससे हमारी महिलाएं मुस्लिम समाज और परिवार से जुड़ी महिलाओं से तुलना करें या इस्लाम की ओर उनका झुकाव पैदा हो जाए। और यह स्थिति इसलिए भी संभव है कि आज केवल शहरों व देश के बड़े हिस्से में ही महिलाएं शिक्षा की ओर आकर्षित नहीं हो रही हैं बल्कि देश व संसार में होने वाले सामाजिक बदलाव से भी अच्छी तरह परिचित हैं। इसलिए अतिसंभव है कि अगर वह खुद अपने सिविल कोड में बदलाव नहीं लाते, तो भारतीय समाज से जुड़ी महिलाएं इस्लाम या इस्लामी शिक्षाओं की ओर प्रभावित हों और वह विशिष्ट धर्म की ओर आकर्षित हो जाएँ, या वह जबकि संविधान के अनुसार परिपक्व उम्र में प्रवेश कर चुकी हैं, अपने विचार और विशेष पद्धति प्रथा से बग़ावत कर बैठें। इसलिए कॉमन सिविल कोड की स्थापना व संघर्ष में इस बिंदु को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहए। यही कारण है कि एक ओर आम नागरिक संहिता की बात की जाए जिससे भारतीय समाज की आंतरिक खामियों पर पर्दा डाला जा सके, उसे दबाया जा सके तो वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समाज में मौजूद कमियों को इस क़दर बड़ा करके दिखाया जाए कि वे इस्लाम और मुसलमानों से नफरत करने पर मजबूर हो जाएं।

गुफ्तगू के इस पृष्ठभूमि में भारतीय मुसलमानों के करने का काम ये है कि एक ओर मुसलमान होने के नाते इस्लाम और इस्लामी शिक्षाओं को जीवन के हर चरण में अपनाएं। वहीं यह भी आवश्यक है कि इस्लामी शिक्षाओं से पूरी तरह परिचित हों, क्यों कि परिचित ना होने और ना अपनाने की वजह ही से बेशुमार समस्याओं में वह आज घिरे हुए हैं, इसके बावजूद वह अपने रवय्ये को नहीं बदलते। इसलिए ज़रूरी है कि हर व्यक्ति को जिस क़दर भी इस्लामी शिक्षाओं का ज्ञान प्राप्त होता जाए उसे बतौर उम्मती, मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, लोगों को अपनी कथनी व करनी से बताना चाहिए। और भारतीय वासी होने के नाते यह भी ज़रूरी है कि भाईचारा बढ़ाते हुए देश के कल्याण व उत्थान में संगठित व संयोजित कोशीशें की जाएं। तभी मुमकिन है की हर नागरिक देश की उन्नति और विकास में भागिदार बन पाए। और ऐसे ही हालात भारतीय महिलाओं को उन पर जारी शोषण व उत्पीड़न से बचाने में मददगार हो सकते हैं।

 

मोहम्मद आसिफ इकबाल

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