शीतयुद्ध की आहट

-अंकुर विजयवर्गीय- ukrain
कोई भी पहले जैसा दिखना नहीं चाहता। यूक्रेन के मामले में मॉस्को अपनी भुजाएं चढ़ा रहा है, तो कई पश्चिमी देश यह दावा कर रहे हैं कि रूस सामान्य नजरिये से काम ले रहा है, यानी वह आक्रमण शब्द से इतनी असुरक्षा महसूस करता है कि अपने पड़ोसी देश को ‘बफर स्टेट’ बने रहने के लिए धकियाता रहता है। आने वाले समय में पश्चिमी देशों के इन दावों को गलत साबित करने का मौका रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के पास हो सकता है। यूक्रेन को अपनी सैन्य-ताकत से धमकाने और क्रीमिया में अशांति मचाने की बजाय वह यूरोप और अमेरिका के साथ मिलकर स्थिर यूक्रेन के निर्माण में योगदान दे सकते हैं। लेकिन यदि ऐसा नहीं होता है, तो क्या होगा? साफ है कि यूक्रेन की अस्थिरता रूस के लिए खतरा पैदा करेगी, क्योंकि दोनों के बीच कोई कुदरती सीमा नहीं है।
डोनेस्क और यूक्रेन के पूर्वी हिस्सों में उसी तरह की घटनाएं घट रही हैं, जिस तरह की घटनाओं के जरिये क्रीमिया का रूस में विलय हुआ। रूस समर्थक विद्रोहियों ने स्थानीय सरकारी भवनों पर कब्जा कर लिया है। उन्होंने इस क्षेत्र को यूक्रेन से आजाद घोषित कर दिया और रूस में शामिल होने के लिए 11 मई तक जनमत-संग्रह कराने की मांग की है। पूर्वी यूक्रेन के प्रति रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के मनसूबे वह नहीं दिखे, जो क्रीमिया को लेकर दिखे थे। लेकिन वह अधिक समय तक ताजा घटनाओं से खुद को अलग करके नहीं रख सकते। अमेरिका व यूरोप ने कई बार कहा कि आगे किसी भी तरह के रूसी आक्रमण का करारा जवाब दिया जाएगा। साफ है, यह जवाब देने की तैयारी का समय है। पुतिन और क्रेमलीन में उनके उन्मादी समर्थक पश्चिमी प्रतिबंधों को गंभीरता से नहीं ले रहे। पूर्वी यूक्रेन के इर्द-गिर्द उनके सैनिक हमले के लिए तैयार हैं और वे जानते हैं कि उनकी इस तैयारी को कोई महत्व नहीं दे रहा। हालांकि, उन्हें यह समझना चाहिए कि इस बार उनके हमले से वैश्विक स्थिति में जबर्दस्त बदलाव आएगा। रूस की स्थिर अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचेगा और फिर से शीत युद्ध अपने चरम पर चला जाएगा।
यूक्रेन आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण क्रीमिया को खोकर निश्चिंत नहीं रह सकता। नाटो में ऊर्जा का संचार होगा। रूस के अंदर लोकतंत्र समर्थकों का प्रदर्शन फिर से जोर पकड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत, क्रीमिया का विलय एक अपराध है, जबकि पुतिन ने 18 मार्च को क्रेमलीन में दिए अपने भाषण में इस विलय को उचित ठहराया था। इससे पहले तक पुतिन यह संकेत देते थे कि यूक्रेन के लिए उनका लक्ष्य एक संघीय ढांचे का है, जिसमें प्रांतों को कीव से पर्याप्त स्वायत्तता मिले और साथ ही, यूक्रेन से यह सांविधानिक गारंटी प्राप्त हो कि वह नाटो में शामिल नहीं होगा। हो सकता है कि डोनेस्क में विरोध-प्रदर्शन इस मकसद से हो कि कीव पर दबाव बढ़े और वह मॉस्को से समझौता करे। लेकिन खतरा तो है, क्योंकि रूस दक्षिणी और पूर्वी प्रांतों पर अपने आधिपत्य की ताक में है, जो कभी सोवियत संघ का औद्योगिक केंद्र था।
अपने पूर्ववर्ती सशक्त राष्ट्राध्यक्षों की तरह ही पुतिन साहस से अधिक डर से प्रेरित होते हैं। उन्होंने यूक्रेन को तोड़ने का रास्ता चुना, क्योंकि उन्हें डर था कि उनका पड़ोसी देश यूरोप के उज्ज्वल भविष्य में शामिल हो सकता है। 2012 में जब राष्ट्रपति पद पर उनकी वापसी हुई, तब उन्हें जन-विद्रोहों का सामना करना पड़ा था। पुतिन ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए कड़ी मेहनत की, वरना दिसंबर 2010 की ट्यूनीशियाई क्रांति के बाद पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक लहर बह रही थी। लेकिन जब उन्होंने कीव में तख्तापलट देखा, तो उन्हें लगा कि वह इस स्थिति का लाभ अपने पक्ष में उठा सकते हैं। शीतयुद्ध के बाद के वर्षों में पुतिन इस पूर्व सोवियत गणराज्य का इस्तेमाल युद्धभूमि के तौर पर करते रहे। वहीं, यूक्रेन आज फौज और सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों के बीच संघर्ष से उपजी हिंसा के कारण बुरी तरह हिल उठा है।
यूक्रेन पूर्व सोवियत संघ से अलग हुए देशों में आर्थिक और राजनीतिक रूप से ज्यादा मजबूत है और भौगोलिक-सांस्कृतिक नजरिये से रूस से उसकी निकटता है। अगर यूक्रेन यूरोपियन यूनियन का सदस्य बनकर पश्चिमी प्रभाव क्षेत्र में मिल जाता है, तो रूस की राजनीतिक ताकत अपने ही क्षेत्र में घट जाएगी। ऐसे में, यूक्रेन को तोड़कर रूस ने काला सागर क्षेत्र में अपनी सैनिक मौजूदगी का स्थायित्व सुनिश्चित किया है, दूसरी ओर अमेरिका और यूरोपियन यूनियन को भी यह जताया है कि रूस के प्रभाव क्षेत्र में उनकी दखल रूस बर्दाश्त नहीं करेगा। रूस की इच्छा यह है कि पुराने सोवियत संघ के देशों को जोड़कर एक आर्थिक यूरोएशियन यूनियन बनाया जाए। अब यूक्रेन की उथल-पुथल से यह संभावना कमजोर हुई है, लेकिन यूक्रेन के यूरोपियन यूनियन में मिलने का ऐसा तगड़ा विरोध करके पुतिन ने यूरोपियन देशों के इरादों को भी फिलहाल विफल कर दिया है।
महाशक्तियों की इस जंग में यूक्रेनवासी पिस गए हैं। यूक्रेन की राजनीति अस्थिर हो गई है और अर्थव्यवस्था दिवालियेपन के कगार पर आ गई है। समस्या यह है कि यूक्रेन में ऐसे प्रभावशाली और नेक इरादों वाले नेता नहीं हैं, जो देश को संकट में दिशा दिखा सकें। एक तरफ यूरोपीय देश हैं, जो लोगों को यूरोपीय जीवनशैली का लालच दे रहे हैं, दूसरी ओर रूस उसे अपने प्रभाव क्षेत्र में बनाए रखने पर आमादा है। अब यूरोप और रूस में झगड़ा और बढ़ेगा, इसलिए स्थिति सुधरने के आसार कम ही हैं। पश्चिमी देशों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए हैं, इसलिए हो सकता है कि रूस का झुकाव चीन, भारत और अन्य पूर्वी देशों की ओर बढ़े। मुमकिन है कि यह नए शक्ति समीकरणों और शीतयुद्ध की शुरुआत हो।
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अंकुर विजयवर्गीय
टाइम्स ऑफ इंडिया से रिपोर्टर के तौर पर पत्रकारिता की विधिवत शुरुआत। वहां से दूरदर्शन पहुंचे ओर उसके बाद जी न्यूज और जी नेटवर्क के क्षेत्रीय चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ के भोपाल संवाददाता के तौर पर कार्य। इसी बीच होशंगाबाद के पास बांद्राभान में नर्मदा बचाओ आंदोलन में मेधा पाटकर के साथ कुछ समय तक काम किया। दिल्ली और अखबार का प्रेम एक बार फिर से दिल्ली ले आया। फिर पांच साल हिन्दुस्तान टाइम्स के लिए काम किया। अपने जुदा अंदाज की रिपोर्टिंग के चलते भोपाल और दिल्ली के राजनीतिक हलकों में खास पहचान। लिखने का शौक पत्रकारिता में ले आया और अब पत्रकारिता में इस लिखने के शौक को जिंदा रखे हुए है। साहित्य से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं, लेकिन फिर भी साहित्य और खास तौर पर हिन्दी सहित्य को युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाने की उत्कट इच्छा। पत्रकार एवं संस्कृतिकर्मी संजय द्विवेदी पर एकाग्र पुस्तक “कुछ तो लोग कहेंगे” का संपादन। विभिन्न सामाजिक संगठनों से संबंद्वता। संप्रति – सहायक संपादक (डिजिटल), दिल्ली प्रेस समूह, ई-3, रानी झांसी मार्ग, झंडेवालान एस्टेट, नई दिल्ली-110055

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