दक्षिण भारत के संत (12) सन्त निंबार्कचार्य

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बी एन गोयल

 

आंध्र प्रदेश में गोदावरी नदी के तट पर स्थित गाँव वैदूरपट्नम।  अरुण मुनि और जगन्ती देवी नामक दंपति का घर । दिन का समय । अचानक एक सन्यासी ने घर के दरवाजे पर दस्तक दी । ‘भिक्षाम देहि’। घर जगन्ति देवी और नियमानन्द  नाम का छोटा बालक। गृहिणी भिक्षा देने को तैयार हुई तो सन्यासी ने कहा, माता मुझे भूख लगी है, कुछ खाने को दें। उस दिन दंपति के घर में खाने के लिए कुछ नहीं था । गृहस्वामी घर में थे नहीं। गृहिणी के माथे पर परेशानी के चिन्ह। बालक ने माता की चिंता को समझा। माता से कहा, “माता सन्यासी को भूखे पेट भेजना ठीक नहीं होगा। यह अतिथि धर्म का उल्लंघन होगा। आप सन्यासी को रोक कर रखें। मैं थोड़ी देर में ही कुछ कंदमूल फल लेकर आता हूँ।“ बालक नियमानन्द  ने सन्यासी से विनती की “आप कृपया जाएं नहीं। मैं थोड़ी देर में ही आप के लिए कुछ प्रबंध करता हूँ।“ सन्यासी ने कहा, “ बालक सूर्यास्त के बाद हम कुछ नहीं लेते।“ बालक ने आश्वासन दिया, “ मैं सूर्यास्त नहीं होने दूँगा। आप थोड़ा प्रतीक्षा करें”।

बालक नियमानन्द घर से निकला। उस के पास एक चमकता हुआ सुदर्शन चक्र था। जाते समय उस ने अपना यह सुदर्शन चक्र एक नीम के वृक्ष पर इस तरह से रख दिया कि दूर से यह सूर्य की तरह से चमकता हुआ लगे। सन्यासी भी चकित थे कि सूर्य का प्रकाश इस तरह का है। थोड़ी ही देर में बालक कुछ फलाहार लेकर आ गया। माता ने प्रेम पूर्वक भिक्षु को भोजन कराया। इस के बाद बालक ने अपना सुदर्शन चक्र पेड़ से हटा लिया। सूर्यास्त हो चुका था और सन्यासी प्रसन्न थे। ये सन्यासी और कोई नहीं सृष्टि रचयिता स्वयं ब्रह्मा थे जो बालक की परीक्षा ले रहे थे। बालक की सेवा भक्ति से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने बालक को निम्बार्क नाम दिया जो बाद में निम्बार्कचार्य कहलाए। निम्ब का अर्थ है नीम का वृक्ष। अर्क का अर्थ है सूर्य। बालक ने अपने चक्र अर्थात सूर्य को नीम के वृक्ष पर जो रख दिया था। आचार्य निम्बार्क के मतावलंबी इन्हें सुदर्शन चक्रधारी विष्णु का अवतार मानते हैं।

????????????????????????????????????स्वामी शिवानंद ने चार प्रकार के अवतारों की चर्चा की है। एक पूर्णावतार – जैसे राम कृष्ण आदि। दूसरा अपूर्णावतार अथवा कलावतार जैसे मत्स्य, वराह आदि। तीसरा अंशावतार – इस श्रेणी में नर नारायण आते हैं। चौथे अंशांश अवतार जैसे शंकराचार्य, रामानुज, तथा निम्बार्क आदि आचार्य।

आचार्य निम्बार्क की जन्म और मृत्यु के बारे में कोई निश्चित मत नहीं है । इतना अवश्य है कि ये 11 वीं शताब्दी में हुए । इन का जन्म बेलारी ज़िले के एक तैलंग ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उपनयन संस्कार के बाद ही इन्हें अध्ययन के लिए ऋषि-कुल में भेज दिया गया । वहाँ इन्होंने वेद, वेदांग, और दर्शनों का अध्ययन किया। अल्पायु में ही ये इन सब में पारंगत हो गए। इन की विद्वत्ता के कारण इन्हें अत्यधिक प्रतिभावान बालक समझा जाने लगा था।

आचार्य निम्बार्क दया, करुणा, शील, क्षमा, सहिष्णुता आदि दिव्य गुणों के प्रतीक थे। इन्हें अपने ग्राम नीम ग्राम में ही भगवान कृष्ण के दर्शन हुए थे। इसी गाँव में ब्रह्मा ने सन्यासी बन कर इन की सहृदयता की परीक्षा ली थी। निम्बार्क मतावलंबी सामान्यतः ब्रज भूमि अर्थात वृन्दावन, नंदी ग्राम, बरसाना, गोवर्धन और नीम ग्राम में रहते थे। नीम ग्राम में प्रसिद्ध निम्बार्क मंदिर है। इन के अनुयायियों का विस्तार मध्य भारत, बिहार, ओडिसा और पश्चिमी बंगाल में भी हुआ था।

दक्षिण भारत के अन्य वैष्णव संतों और आचार्य निम्बार्क में एक मूलभूत अंतर था। अन्य संतों की भक्ति में ग्वाल बाल श्री कृष्ण की प्रधानता थी जब की आचार्य निम्बार्क ने राधा को अपना आराध्य बनाया। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन वृन्दावन में व्यतीत किया। इन के अनुसार,’राधा श्री कृष्ण की शाश्वत सहचरी थी और श्री विष्णु की भांति उन का भी अवतार हुआ था।‘ इन के अनुयायियों को वैष्णव के निम्बार्क समूह के रूप में जाना जाता है। ये शुद्ध रूप से विष्णु के उपासक हैं। वैष्णव संप्रदाय को चार प्रकार से जाना जाता है। एक है ‘श्री’ – जिस के मुख्य प्रवर्तक हैं श्री रामानुज। दूसरा ‘सनक’ – इस के प्रवर्तक आचार्य निम्बार्क हैं। तीसरा ‘ब्रह्म’ – इस के संस्थापक 12वीं शताब्दी के माधवाचार्य हैं। चौथा है ‘रुद्र’ – इस के संस्थापक सोलहवीं शताब्दी के वल्लभाचार्य थे। इस के साथ पाँचवाँ संप्रदाय है बंगाल का वैष्णवी संप्रदाय जिस के संस्थापक श्री चैतन्य महा प्रभु को माना जाता है।

आचार्य निम्बार्क ने द्वैताद्वैत मत का प्रवर्तन किया। यह शंकराचार्य के अद्वैतवाद और रामानुज के विशिष्टद्वैत के हट कर था। इस मत के अनुयायी राधा और कृष्ण के उपासक हैं। श्री मदभागवत इन का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इस के अनुसार – “जीवात्मा ज्ञान स्वरूप है। लेकिन यह हरि पर आश्रित है। अणु रूप में यह विभिन्न शरीरों में पृथक पृथक है। यह जीवात्मा अनादि माया से बंधा तीनों गुणों से युक्त रहता है। जीव को अपनी प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ईश्वर की कृपा अवश्य चाहिए। यद्यपि इन का बल प्रवर्त्ति सिद्धांत पर है लेकिन प्रवर्त्ति के साथ साथ परमात्मा की कृपा और उस के प्रति प्रेम की परम आवश्यकता होती है।“

रामानुज और माधव के लिए नारायण अर्थात विष्णु ही ब्रह्म है जबकि निम्बार्क और वल्लभाचार्य के लिए राधा के साथ गोपाल कृष्ण ही सर्वस्व हैं। निम्बार्क ब्रह्म सूत्र के प्रमुख भाष्यकार हैं। इस का नाम है – ‘वेदान्त पारिजात सौरभ’। इस में आचार्य ने द्वैतवाद की विशद व्याख्या की है। इन के अनुसार – ईश्वर को दोनों तरह से देखा जा सकता है – जीवात्मा के साथ भी और उस से अलग भी। जीवात्मा का अस्तित्व यद्यपि ब्रह्म से अलग है परंतु वह ब्रह्म के बगैर रह नहीं सकती। यह आकार में अणु के समान है परंतु संख्या में अनंत है। ब्रह्म का अवतरण कृष्ण के रूप में हुआ है क्योंकि उन्हें अपने भक्तों और अनुयायियों का ध्यान है। राधा उनकी शक्ति है।

इस व्याख्या की एक विशेषता यह है कि इस में न तो शंकर अथवा अन्य किसी भी आचार्य द्वारा प्रतिपादित ब्रह्म सूत्र की व्याख्या की आलोचना की गई है और न ही अपनी व्याख्या को अन्य किसी की व्याख्या से श्रेष्ठ बताने का प्रयास किया गया है ।

इन की एक अन्य रचना है – दश-श्लोकी । इस में तीन तत्वों की चर्चा है – ईश्वर, प्रकृति और आत्मा । ईश्वर अथवा ब्रह्म कृष्ण हैं, आत्मा चित्त है और प्रकृति अचित्त है । इन की अन्य रचनाएँ हैं – श्री कृष्णस्त्वराज और गुरु परंपरा, श्रीकृष्णस्तव, वेदान्त तत्वबोध, वेदान्त-सिद्धांत प्रदीप, कर्म काण्ड पर ‘सदाचार प्रकाश’, श्री मुकुन्द मंत्र की व्याख्या रहस्य ‘षोडश परब्रहम’, परमेश्वर के बारे में ‘प्रपत्ति चिंतामणि’, प्रातः स्मरण स्तोत्रम, सर्विशेष निर्विशेष, श्रीकृष्ण स्तवम आदि। इन में अधिकांश ग्रन्थों की केवल पाण्डु लिपि ही उपलब्ध हैं । इन्हीं के मतावलंबियों द्वारा रचित ब्रह्म सूत्र की व्याख्या ‘सिद्धांत जाह्नवी’ है । कहते हैं इसे इन के शिष्य देवाचार्य ने लिखा था ।

आचार्य निम्बार्क ने ईश्वर प्राप्ति के पाँच साधन बताएं है। (1) निष्काम कर्म – बिना किसी फलेच्छा के नि:स्वार्थ भाव से कर्म करना। (2) ज्ञान – शुद्ध और सात्विक मन से ज्ञान की खोज करना और उसे आत्मसात करना । ज्ञान का स्थान कर्म से गौण नहीं है परंतु कर्म ज्ञान प्राप्ति में सहायक होता है। (3) तीसरा साधन है – उपासना अर्थात ध्यान। इस के भी तीन रूप होते हैं – एक- स्व चित्त के रूप में ब्रहमोपसाना, दो – अचित्त  को नियंत्रित करने के लिए ब्रह्म का ध्यान करना , तीन – चित्त और अचित्त – दोनों से अलग कर ब्रह्म का ध्यान करना।

कर्म, ज्ञान और उपासना के बाद ईश्वर प्राप्ति का साधन है प्रपत्ति। इस का अर्थ है ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण। इस पर सभी संतों और आचार्यों ने समान रूप से बल दिया है । इस में प्रमुखतः दर्प हीन,दंभ हीन और निरभिमानी  होने की बात कही गई है। प्रपत्ति जब तक नहीं हो सकती जब तक मनुष्य दुर्भावना का त्याग नहीं करता । इस के लिए आवश्यक तत्व हैं – ईश्वर में निष्ठा, नि:सहाय की भावना, परमात्मा को अपना रक्षक मानना तथा सम्पूर्ण समर्पण। अंतिम साधन है – गुरु भक्ति। ईश्वर के प्रति जितना समर्पण आवश्यक है उतना है गुरु के प्रति भक्ति भाव और निष्ठा आवश्यक है।

निम्बार्क के अनुसार गुरु ही पथप्रदर्शक है । अतः गुरु का उत्तरदायित्व भी गुरुतर है । इन पाँच साधनों से ईश्वर प्राप्ति संभव है।

निम्बार्क के आराध्य देव हरि हैं जो कृष्ण रूप में अवतरित हुए। वह उन्हें  नारायण अथवा विष्णु भी नहीं कहते। वे मात्र गोपाल कृष्ण हैं जिनकी सहचरी श्री राधा हैं। वास्तव में राधा संप्रदाय आचार्य की ही दें है। इन से पहले किसी भी संत ने इस पक्ष को उजागर नहीं किया था। इन के बाद महाप्रभु चैतन्य तथा आधुनिक समय के श्री राम कृष्ण परमहंस ने राधा भाव से श्री कृष्ण की आराधना की। श्री राधा एक प्रतीक हैं श्री कृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की। राधा के लिए पूरा विश्व कृष्णमय है। बाद में जय देव ने अपने गीत गोविंद में राधा की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया है। इन के प्रतिपादन में कृष्ण के सभी भक्त और शिष्य समुदायों का प्रतिनिधित्व राधा ने किया है। राधा ही शक्ति है। कृष्ण यदि परम पुरुष हैं तो राधा परम प्रकृति।

यद्यपि श्री कृष्ण की जन्म भूमि, उन की लीला और क्रीड़ा भूमि, अनेक प्रकार के दैत्यों के संहार की कर्म भूमि सब उत्तर भारत में है परंतु दक्षिण भारत के आचार्य निम्बार्क कृष्ण के प्रमुख भक्तों में एक थे। राधा वाद अथवा राधा भक्ति का प्रचार मुख्यतः दक्षिण भारत की ही देन है। कहते हैं कि वैष्णव धर्म की तैयारी दक्षिण में ही हुई थी और दक्षिण से ही यह उत्तर भारत में आई। इस का प्रमाण यह है कि रामानुज, माधव, निम्बार्क और वल्लभाचार्य सभी संत दक्षिण भारत में ही जन्मे थे।

शंकर अद्वैतवाद के प्रवर्तक थे तो रामानुज ने विशिष्टद्वैत की बात की। माधवाचार्य ने द्वैतवाद का दर्शन दिया तो वल्लभाचार्य ने शुद्ध द्वैतवाद की स्थापना की। निम्बार्काचार्य ने अपने मत का नाम द्वैताद्वैत रखा।  ये सभी संत महान थे। सब का अपना मत होते हुए भी सभी वंदनीय हैं । सभी अवतार पुरुष थे। सभी के दर्शन मानव समाज के लिए मार्ग दर्शक रूप में थे । सभी को हमारा नमन ।

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बी एन गोयल
लगभग 40 वर्ष भारत सरकार के विभिन्न पदों पर रक्षा मंत्रालय, सूचना प्रसारण मंत्रालय तथा विदेश मंत्रालय में कार्य कर चुके हैं। सन् 2001 में आकाशवाणी महानिदेशालय के कार्यक्रम निदेशक पद से सेवा निवृत्त हुए। भारत में और विदेश में विस्तृत यात्राएं की हैं। भारतीय दूतावास में शिक्षा और सांस्कृतिक सचिव के पद पर कार्य कर चुके हैं। शैक्षणिक तौर पर विभिन्न विश्व विद्यालयों से पांच विभिन्न विषयों में स्नातकोत्तर किए। प्राइवेट प्रकाशनों के अतिरिक्त भारत सरकार के प्रकाशन संस्थान, नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए पुस्तकें लिखीं। पढ़ने की बहुत अधिक रूचि है और हर विषय पर पढ़ते हैं। अपने निजी पुस्तकालय में विभिन्न विषयों की पुस्तकें मिलेंगी। कला और संस्कृति पर स्वतंत्र लेख लिखने के साथ राजनीतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक विषयों पर नियमित रूप से भारत और कनाडा के समाचार पत्रों में विश्लेषणात्मक टिप्पणियां लिखते रहे हैं।

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    • ऐसा कहीं नहीं कहा गया – एक उदाहरण है – आदि गुरु शंकराचार्य और आचार्य मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र की पत्नी भारती निर्णायक थी सत्रह दिन तक शास्त्रार्थ चला और भारती ने आदि गुरु को एक बार गृहस्थ आश्रम समझने के लिए वापिस भेज दिया था. वह महिला थी और विवाहित भी थी.

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