संजय सक्सेना
‘घर को आग लग गई घर के चिराग से।’ मुलायम सिंह की सरपस्ती में समाजवादी परिवार अगर पूरे देश में सबसे सशक्त माना जाता था तो उसकी वजह परिवार की एकता थी। मुलायम के पीछे पूरा कुनबा हाथ बांधे खड़ा रहता था। परिवार का कोई सदस्य उनके सामने चूूं नहीं कर सकता था,तो फिर पार्टी के अन्य नेताओं/कार्यकर्ताओं की क्या बिसात थी। जिसने जरा भी मुखालफत की उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता था,लेकिन 2012 के बाद हालात काफी बदल चुके हैं। मुलायम ने भले ही 2012 में अखिलेश यादव के लिये सीएम की कुर्सी तक का मार्ग प्रशस्त किया होगा,लेकिन आज अखिलेश अपने रास्ते खुद चुन रहे हैं। साढ़े चार मुख्यमंत्री का ठप्पा उन्होंने उतार के फंेक दिया है। अब बड़े से बड़ा फैसला अखिलेश स्वयं लेते हैं। चचा शिवपाल यादव तक को मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने में उन्हें गुरेज नहीं होता है। अखिलेश के सीएम बनने के बाद पार्टी में हालात और सियासत के तौर-तरीके काफी बदल चुके हैे। अब मुलायम का चरखा दांव और छोबी पाट नहीं चलता है। अखिलेश अपनी अलग पहचान बना चुके हैं। उनकी छवि साफ-सुथरी और पढ़े-लिखे सीएम है। वह न तो भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देते हुए दिखना चाहते हैं न अपराधियों को करीब फटकने देना चाहते हैं। इससे जनता के बीच उनकी छवि नायक जैसी बन रही है तो वहीं मुलायम, शिवपाल और पार्टी के कुछ और बड़े नेताओं की छवि ऐसे नेता के रूप में उभर कर सामने आई है जो भ्रष्टाचारियों और अपराधियों के सहारे सियसात आगे बढ़ाना चाहते हैं। इस वजह से पार्टी में हालात टूट की नौबत तक पहुंच गये है। हालात गृहयुद्ध जैसे हो गये तो नेताजी ने एक बड़ी बैठक बुलाने का ऐलान कर दिया,लेकिन यह बैठक भी बेनतीजा रही।
बल्कि उम्मीद के उलट आज (24 अक्टूबर) नेता जी की बैठक के बाद स्थिति सुधरनें की बजाये कलह-कलेश और खुल कर सामने आ गया। कोई भी नेता यहां तक की सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव भी अपने स्टैंड से पीछे हटने को तैयार नहीं थे। परिवार में लगी ‘आग’ से मुलायम के सामने ही सभी रिश्ते तार-तार हो गये। इस आग से नेताजी भी बच नहीं पाये। बैठक खत्म हो गई,लेकिन नेताजी कहीं किसी को कोई संदेश नहीं दे पाये। ऐसे क्यों हुआ इसको लेकर भी बहस छिड़ी हुई है। आकलन इस बात का भी हो रहा है कि अखिलेश की लोकप्रियता का अंदाजा होने के बाद नेताजी ने अखिलेश के खिलाफ कोई कदम उठाने से अपने कदम पीछे तो नहीं खींच लिये। (मुलायम के स्वयं सीएम बनने की अटकलों का बाजार गर्म था ) अगर गले ही मिलवाना था तो इतना ड्रामा क्यों हुआ। जबकि सब जानते हैं कि अब गले मिलने जैसी स्थिति बची ही नहीं है। शिवपाल ने ही नहीं मुलायम ने भी अखिलेश के जख्मों को ताजा ही किया। जबकि उम्मीद यही थी कि मुलायम कुछ सुलह-सफाई की कोशिश करेंगे। मगर नेताजी, शिवपाल यादव ओर अमर सिंह के प्रति कुछ ज्यादा ही प्रेम दर्शा रहे थे।
अब देखना यह है कि अखिलेश ‘शहीद’ होकर निकलेंगे या फिर स्वयं सपा से किनारा कर लेंगे। आज की तारीख में जनता अखिलेश की बातों पर मुलायम से अधिक विश्वास कर रही है। मुलायम द्वारा बुलाई गई बैठक का सबसे दुखद पहलू यह रहा की कहीं न कहीं मुलायम और उनकी पार्टी मुसलमानोें के नाम पर एक्सपोज होते भी दिखी। 2003 में बीजेपी के एक बड़े नेता के यहां अमर सिंह की मदद से मुलायम सरकार बनाने के लिये रणनीति बनाई गई थी, इस बात की गंूज सत्ता के गलियारों मेे दूर तक सुनने को मिलेगी। बीएसपी जो मुस्लिम वोट बैंक अपने पाले में करने को लेकर हाथ-पैर मार रही हैं। वह इस बात का पूरा फायदा उठाना चाहेगी।
लब्बोलुआब यह है कि सपा अगर दो हिस्सों में बंट कर चुनाव मैदान में उतरेगी तो बीजेपी को इसका फायदा मिल सकता है। कोई नहीं जानता है कि 04 नवंबर को सपा का रजत जयंती समारोह किस शक्ल में सामने आयेगा। अखिलेश की नाराजगी चचा शिवपाल और अमर से तो है ही नेताजी से भी वह काफी दूर चले गये हैं। इस सच्चाई को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि इस समय लोकप्रियता के मामले में अखिलेश के सामने कोई नेता यहां तक की सपा प्रमुख मुलायम सिंह भी नहीं टिकते नजर आ रहे हैं।आज की तारीख में सपा का संर्घष न थमने वाला एक सिलसिला बनकर रह गया है।