अखिलेश की अगुवाई में लहरायेगा सपा का परचम

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डॉ0 आशीष वशिष्ठ 

समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष, ऊर्जावान नेता और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश जिस तेजी से राजनीतिक गगन में उभरे हैं, वो किसी चमत्कार से कम नहीं है। हालांकि राजनीति उनकी रगों में दौड़ती है और राजनीति का ककहरा उन्होंने पालने में ही पढ़ लिया था। वे लोकसभा सांसद हैं और लगभग एक दशक से राजनीति में सक्रिय हैं। जब से अखिलेश ने प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी संभाली है उसी दिन से वो 2012 के विधानसभा चुनावों में सपा का परचम लहराने के लिए दिन-रात एक किये हुए हैं।

अखिलेश के पिछले लगभग दो सालों की मेहनत रंग लाती दिखाई भी दे रही है। जिस तरह से उनके क्रांति रथ और जनसभाओं में भीड़ उमड़ रही है उससे विरोधी खेमे में खलबली तो मची ही है, समाजवादी पार्टी समर्थकों और नेताओं ने भी अखिलेश को अपना भावी नेता मान लिया है और वो उनके नेतृत्व में सत्ता के सपने देखने लगे हैं।

कुछ वक्त पहले तक राजनीतिक विश्लेषक राहुल गांधी के व्यक्तित्व के सामने अखिलेश को उन्नीस ठहरा रहे थे। आज वही विश्लेषक और आलोचक अखिलेश की गंभीरता, सौम्य व्यक्तित्व, प्रचार और भाषण शैली, जनता से संपर्क स्थापित करने की कला, मुद्दों एवं समस्याओं को जोर-शोर से उठाने के अंदाज और साफ-सुथरी छवि के कायल हैं।

वे जिस तरह बिना आपा खोए, सधी एवं संतुलित भाषा में विरोधियों का विरोध करते हैं उससे उनकी गंभीरता, सूझ-बूझ और एक आदर्श नेता के गुण झलकते हैं। जिस तेजी से अखिलेश सपा की साइकिल को चला रहे हैं और साफ छवि एव युवा नेताओं को पार्टी के साथ जोड़ रहे हैं, पार्टी की छवि सुधारने के लिए कड़े फैसले ले रहे हैं, वो यही दर्शाता है कि उनमें बड़ा नेता बनने और नेतृत्व करने की संभावनाएं हैं।

इन सबके बावजूद विधानसभा चुनावों में अखिलेश का बहुत कुछ दांव पर लगा है। विधानसभा चुनाव के नतीजे उनके राजनीतिक भविष्य और पार्टी में कद दोनों पर गहरा असर डालेंगे। जिस तरह वे प्रदेश में समाजवाद का नया चेहरा बनकर उभर रहे हैं, उससे एक नयी उम्मीद जगती तो है लेकिन अभी उनको अग्निपरीक्षा से गुजरना बाकी है।

गौरतलब है कि पिछले चुनावों में पार्टी के प्रचार की कमान मुलायम सिंह यादव के हाथ थी और संगठन का काम-काज उनके भाई शिवपाल सिंह के जिम्मे था। सूबे में समाजवादी पार्टी की सरकार थी, लेकिन जनता ने बहुमत बसपा को देकर समाजवादी पार्टी को सत्ता से दूर कर दिया था। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को भारी झटका लगा था, ये सिलसिला 2009 के आम चुनावों तक जारी रहा।

सपा की गिरती साख और समर्थन को संभालने के लिए मुलायम सिंह ने जून 2009 में युवा अखिलेश को पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी सौंपकर बदलाव और युवाओं को आगे लाने के फार्मूले पर काम करना शुरू कर दिया था। कुर्सी संभालने के बाद अखिलेश ने भी सुविधाएं और पद के ठाठ-बाठ भोगने की बजाए कार्यकताओं के बीच पकड़ बनाने और उन तक पहुंचने का काम शुरू किया।

पिछले तीन सालों में सपा कार्यकर्ताओं ने बसपा सरकार के हर गलत और जनविरोधी निर्णय और कार्रवाई का जमकर विरोध किया। जब समूचा विपक्ष चुपचाप आम आदमी के साथ अन्याय, कानून और प्रशासन की बिगड़ती व्यवस्था, पुलिस-प्रशासन की बेरूखी, किसानों, मजदूरों की समस्याओं, महिलाओं के साथ बढ़ती बलात्कार की घटनाओ को मूकदर्शक बनकर देख रहा था तब युवा समाजवादियों ने अखिलेश के नेतृत्व और मार्गदर्शन तले प्रदेश सरकार का सड़कों पर आकर विरोध किया और सरकार को पीछे हटने और मनमाने तरीके से राज-काज चलाने से रोकने में प्रभावी भूमिका निभाई।

अखिलेश की सक्रियता विरोधियों के लिए चिंता का कारण है। विरोधी दल उनके मिशन को फेल करने और उन्हें चक्रव्यूह में फांसने के लिए तरकीबें सोच रहे हैं। उनकी सक्रियता से सपा के कई सीनियर नेताओं और उनके खुद के कुनबे में भी खलबली मची हुई है। विरोधियों के साथ-साथ घर से मिल रही चुनौतियों से निपटना अखिलेश के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है।

ये अलग बात है कि अखिलेश को अभी राजनीति में बहुत कुछ सीखना बाकी है, लेकिन वो इतने होशियार तो हैं ही कि विरोधियों की चाल और तेवर भांप सकें। उन्होंने पार्टी और संगठन पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए चाहे-अनचाहे अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव पार्टी के मुस्लिम चेहरे आजम खां और पार्टी के वरिष्ठ नेता मोहन सिंह से पंगा तो लिया ही है। चाचा-भतीजे के व्यवहार और बर्ताव की खबरें चाहरदीवारी से बाहर निकलने भी लगी हैं। गनीमत है कि नेताजी ने परिवार और पार्टी दोनों को संभाल रखा है जिससे अखिलेश अपना पूरा ध्यान चुनाव में लगा पा रहे हैं।

असल में यूपी विधानसभा चुनाव से खुद अखिलेश और देशभर को बहुत उम्मीदें हैं। राजनीतिक विश्लेषकों और ओपनियन पोल के नतीजों ने सपा की सीटों में इजाफा होने के संकेत दिए हैं, जिससे सपा सर्मथकों का उत्साह चरम पर हैं, लेकिन सत्ता प्राप्ति की राह लंबी और कांटों भरी है, इसे अखिलेश बखूबी समझते हैं।

अगर चुनाव नतीजे सपा के पक्ष में रहे और समाजवादी पार्टी सत्ता में आ गयी तो अखिलेश का सिक्का जम जाएगा, लेकिन नतीजे आशा के विपरीत हुए तो उनको पार्टी-परिवार और बाहर दोनों मोर्चा पर चुनौतियों को सामना करना पड़ेगा। आज उनके हर निर्णय के पीछे नेताजी मजबूती से खड़े दिखाई देते हैं, लेकिन अगर हालात सपा के पक्ष में नहीं रहे तो मुलायम सिंह को पार्टी और संगठन बचाने के लिए अखिलेश के पर कतरने होंगे।

कुल मिलाकर विधानसभा चुनाव अखिलेश के लिए अग्निपरीक्षा बने हुए हैं और जिस तरह वे युवाओं को पार्टी से जोड़ रहे हैं और उनके क्रांति रथ को जनता का प्यार मिल रहा है उससे काफी उम्मीदें जगती हैं। अब आने वाला वक्त ही बताएगा कि अखिलेश उत्तर प्रदेश की राजनीति का चमकता सितारा साबित होंगे या फिर राजनीति के बियाबान में गुम हो जाएंगे।

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