स्पष्ट हुई आदेश और अपील की मिलीभगत – स्वामी सानंद

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yamuna अरुण तिवारी

प्रो जी डी अग्रवाल जी से स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जी का नामकरण हासिल गंगापुत्र की एक पहचान आई आई टी, कानपुर के सेवानिवृत प्रोफेसर, राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय के पूर्व सलाहकार, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रथम सचिव, चित्रकूट स्थित ग्रामोदय विश्वविद्यालय में अध्यापन और पानी-पर्यावरण इंजीनियरिंग के नामी सलाहकार के रूप में है, तो दूसरी पहचान गंगा के लिए अपने प्राणों को दांव पर लगा देने वाले सन्यासी की है। जानने वाले, गंगापुत्र स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद को ज्ञान, विज्ञान और संकल्प के एक संगम की तरह जानते हैं।
मां गंगा के संबंध मंे अपनी मांगों को लेकर स्वामी ज्ञानस्वरूप सांनद द्वारा किए कठिन अनशन को करीब सवा दो वर्ष हो चुके हैं और ’नमामि गंगे’ की घोषणा हुए करीब डेढ़ बरस, किंतु मांगों को अभी भी पूर्ति का इंतजार है। इसी इंतजार में हम पानी, प्रकृति, ग्रामीण विकास एवम् लोकतांत्रिक मसलों पर लेखक व पत्रकार श्री अरुण तिवारी जी द्वारा स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जी से की लंबी बातचीत को सार्वजनिक करने से हिचकते रहे, किंतु अब स्वयं बातचीत का धैर्य जवाब दे गया है। अतः अब इस बातचीत को सार्वजनिक कर रहे हैं। हम, प्रत्येक रविवार को इस श्रृंखला का अगला कथन आपको उपलब्ध कराते रहेंगे; यह हमारा निश्चय है।

इस बातचीत की श्रृंखला में पूर्व प्रकाशित कथनों कोे पढ़ने के लिए यहंा क्लिक करें।
पांचवां कथन आपके समक्ष पठन, पाठन और प्रतिक्रिया के लिए प्रस्तुत है:

स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद – पांचवां कथन

दिसंबर, 2008 तक मैने तय कर लिया था कि फिर अनशन करूंगा। मेरे सामने प्रश्न था कि कहां करूं ? दिल्ली में पहला अनशन तो मैने महाराणा प्रताप भवन मंे किया था। 27-28 जून तक वे भी कहने लगे थे कि कब खाली करोगे। मैने सोचा कि दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित मालवीय स्मृति भवन में करूं। सोच थी कि इसे बी एच यू एलुमनी एसोसिएशन ने बनवाया है; मैं भी बी एच यू एलुमनी ही हूं और मालवीय जी का गंगाजी के लिए बहुत कन्ट्रीब्युशन था; अच्छा रहेगा। बी एम जायसवाल, मालवीय भवन के प्रबंधक थे। उनसे मिला। वह खुश थे। उन्होने कहा कि बोर्ड बदल गया है। अब महेश शर्मा जी इसके अध्यक्ष हैं। गिरधर मालवीय जी भी बोर्ड में हैं। बाद में पता चला कि ये तीनों समर्थन में थे, लेकिन सांसद राजा कर्णसिंह जी ने मना कर दिया। मैने सोचा कि कर्णसिंह जी ने इसे शायद कांग्रेस बनाम भाजपा बना लिया है। मैं, मकर संक्रान्ति से करने का निर्णय कर चुका था; तब आचार्य जितेन्द्र (गंगा महासभा) ने कहा कि हिंदू महासभा भवन में करा दूंगा। निर्णय मेरा था। राजेन्द्र सिंह (जलपुरुष)व रवि चोपङा (लोक विज्ञान संस्थान, देहरादून)इसके विरुद्ध थे, पर मेरे साथ थे; अतः मैने उनसे कहा कि दूसरी जगह दिला दो, पर वे दूसरी जगह नहीं दिला पाये।

एक शंकराचार्य से मिला आशीष

जनवरी, 2009 के शुरु में स्वामी स्वरूपानंद जी का स्वास्थ्य खराब हो गया था। मैं उनका हाल-चाल लेने एम्स गया। उन्होने पूछा कि कमेटी क्या कर रही है। मैने कहा – ’’वह संतोषजनक नहीं है। प्राधिकरण भी गठित नहीं हुआ और हाई पावर कमेटी की रिपोर्ट भी नहीं आई। मुझे सरकार पर शंका है।’’ इस पर उन्होने मुझे अपना आशीर्वाद दिया। उपवास शुरु करने के लिए जब 14 जनवरी को मैने उपवास शुरु करने के लिए हवन संपन्न किया, तो राजेन्द्र ने कहा – ’’स्वरूपानंद जी से आशीर्वाद ले लो।’’ स्वरूपानंद जी ने कुछ नहीं कहा, सिर्फ आशीर्वाद दिया – ’’विजयी भव।’’

दूसरे शंकराचार्य ने भी दिया आश्वासन

बहरहाल, हिंदू महासभा में अनशन चलता रहा। जब फरवरी आई, तो मुझे भी लगा कि आखिरकार कब तक चलेगा। कमजोरी भी महसूस हुई। थोङी सी आतुरता भी थी। संतों में चिदानंद मुनि, हंसदेवाचार्य और रामदेव से संपर्क बना रहा। स्वरूपानंद जी से भी संपर्क रहा। मेरी प्रार्थना पर समर्थन देने के लिए स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी दिल्ली आये। हिंदी भवन मंे बैठक हुई। क्या करें ? कैसे करें ?? आठ फरवरी तक यह विचार चलता रहा, तभी महंत मिश्र (आई आई टी, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सेवानिवृत प्रोफेसर तथा संकटमोचन हनुमान मंदिर, बनारस के महंत स्वर्गीय प्रो. वीरभद्र मिश्र) के माध्यम से पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी का संदेश मिला – ’’यदि तुम्हारे प्राण चले जाते हैं, तो यह हमारे लिए शर्म की बात होगी।’’

स्वरूपानंद जी की निर्णायक चिट्ठी

मेरे मन में आया कि दोनो शंकराचार्य भी बनारस मंे हैं और महंत जी भी। मेरी हनुमान जी पर आस्था भी रही है। सोचा कि संकटमोचन के दर्शन भी कर लंूगा; सो, मै बनारस गया। वहां जो जो आश्वासन मिले; निश्चलानंद जी ने जो फोन किए, उनसे यह भी लगा कि उनके संपर्क भाजपा में हैं। एस. के. गुप्ता जी को साथ ले गया था। उन्होने स्वरूपानंद जी से कहा कि एक पत्र, प्रधानमंत्री जी के नाम लिख दें। उन्होने स्वीकृति दे दी। एस. के. गुप्ता जी ने ड्राफ्ट लिखा। देर रात तक वह फाइनल हो गया। उसमंे लिखा था कि लोहारी-नाग-पाला को रद्द कर दें, तो उपवास खत्म कर देंगे।

बातचीत का बुलावा

प्रधानमंत्री जी उन दिनों बीमार थे। कुछ आईआईटीएन, पृथ्वीराज चव्हाण (प्रधानमंत्री कार्यालय से संबद्ध तत्कालीन राज्यमंत्री ) के संपर्क मंे थे। हमने तय किया कि पत्र को पृथ्वीराज चव्हाण के माध्यम से प्रधानमंत्री जी को पहुंचायें। राजेन्द्र सिंह ने कहा कि प्रधानमंत्री जी की बेटी दमन सिंह के द्वारा पहुंचाने की कोशिश करते हैं। दमन सिंह ने पहले कहा कि पिताजी कहते हैं कि तुम सरकारी कामकाज में दखल नहीं करोगी; फिर भी दमन सिंह ने गंगाजी का काम मानते हुए पत्र को पृथ्वीराज जी से पहले ही पहुंचा दिया। उस पर प्रधानमंत्री जी ने कुछ लिखा। क्या लिखा, मालूम नहीं। वह आदेश दिया हुआ पत्र, 17 फरवरी, 2009 को पृथ्वीराज चव्हाण के पास पहुंचा। उनके पास तो पहुंचाने वाला पत्र पहले से ही था। वह नाराज हुए। फिर चव्हाण ने उस समय के ऊर्जा मंत्री शिंदे जी को कुछ डायरेक्टशन्स दी। 18 फरवरी को शिंदे ने चिदानंद जी को बुलाया। चिदानंद जी ने एम. सी. मेहता (पर्यावरण मामलों के विख्यात वकील) को फोन किया। एस के गुप्ता ने मुझे बताया कि शिंदे जी, लोहारी-नाग-पाला पर बात करना चाहते हैं।…तो ज्ञानेश चैधरी, परितोष त्यागी (केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सेवानिवृत चेयरमैन), एस. के. गुप्ता, रवि चोपङा 18 की शाम को शिंदे जी के घर मीटिंग में पहंुचे।

आदेश और अपील की मिलीभगत

दो बैठकें, पैरलल चल रही थी। बाहर शिंदे जी व अधिकारीगण बात कर रहे थे और अंदर कमरे में पृथ्वीराज चव्हाण बैठे थे। निर्देश साफ था। रात दस बजे ड्राफ्ट बन गया। गुप्ता जी वगैरह डाफ्ट लेकर आये। मुझे उसमें आपत्तियां थीं। चिदानंद जी ने मुझे डांटा भी, पर अंततः डाफ्ट की भाषा बदली। पर्यावरण प्रवाह को लेकर हाईपावर कमेटी के सदस्य दो घन मीटर प्रति सेकेण्ड की बात कर रहे थे, एनटीपीसी के चेयरमैन चार की और गैर सरकारी सदस्य 16 घन मीटर प्रति सेकेण्ड की बात कर रहे थे। परितोष व रवि ने कहा, तो शिंदे ने कहा कि 16 मांगते हो, मैं 20 घन मीटर देता हूं। निर्णय हुआ कि जब तक एन्वायरन्मेंटल फ्लो तय नहीं होता, तब तक लोहारी-नाग-पाला पर काम बंद रखा जाये। उसमें लिखा गया कि लोहारी-नाग-पाला बंद कर देंगे। रात दो बजे पुनः मोडीफाइड डाफ्ट लेकर आये। मैने कहा कि सुबह बिङला मंदिर मंे उपवास खोलूंगा।

आदेश, 18 फरवरी का था। 20 फरवरी को नैनीताल में अवधेश कौशल (आर एल ई सी) ने हाईकोर्ट में अपील दायर कर दी कि यह आदेश निरस्त किया जाये। हाईकोर्ट ने स्टे दे दिया। 18 फरवरी का आदेश निरस्त हो गया। चुनाव भी आने वाला था। मेरी स्थिति विचित्र थी कि मैं क्या करूं ? बहुत बाद में पता चला कि यह सब मिलीभगत थी। एन टी पी सी का वकील ही अवधेश कौशल वाली पीआईएल का वकील था।

स्पष्ट हुआ स्वरूपानंद जी का प्रभाव

खैर, 20 फरवरी को एन जी आर बी ए (राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण) के गठन का नोटिफिकेशन आ गया। गंगा जी को नेशनल रिवर घोषित कराने मंे तीन डेलीगेशन प्रधानमंत्री जी से मिले थे; तारा गांधी, रमा राउत, बी के चतुर्वेदी वगैरह..किंतु मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि प्रधानमंत्री जी पर स्वरूपानंद जी का प्रभाव है। मुझे यह भी स्पष्ट था कि कांग्रेस की सरकार में यदि गंगाजी के पक्ष में कोई निर्णय कराना है, तो स्वामी स्वरूपानंद जी का प्रभाव ही काम करेगा।
पुनः उपवास की विवशता

स्वास्थ्य लाभ की दृष्टि से मैं कुछ समय शांत रहा। मई, 2009 में बेचैनी हुई कि इस धोखे से चुप तो नहीं बैठ सकता। जून शुरु में मैने ए के गुप्ता (इलाहाबाद के नामी वकील श्री अरुण कुमार गुप्ता) और गिरधर मालवीय के जरिये नैनीताल हाईकोर्ट में पटीशन डाल दी। सोचा कि कुछ नहीं होगा, तो आषाढ़ पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) से पुनः उपवास शुरु कर दूंगा। चार जुलाई, 2009 को बनारस के गणमान्य लोगों ने महंत मिश्र के घर बैठक की। जालान जी, अविमुक्तेश्वरानंद जी वगैरह सब आये। उन्होने कहा कि एक महीने का समय दो। उनके आश्वासन पर मैने एक माह के लिए उपवास स्थगित कर दिया। आश्वासन हस्ताक्षरित था, किंतु आश्वासन पर उन्होने कुछ नहीं किया।
उधर नैनीताल हाईकोर्ट की डेट पङी। चीफ जस्टिस रिटायर हो रहे थे। उन्होने सोचा कि क्यों सरकार के विरोध में करें; टाल दिया। सितंबर की तारीख दे दी। मैं पुनः बनारस चला गया।
महंत मिश्र जी के यहां रुका था। शुरु करने के दिन अविमुक्तेश्वरानंद जी मिलने गया। उन्होने कहा कि स्वरूपानंद जी का फोन आया था कि काम तो बंद है, क्यों उपवास करते हो ?
मैने कहा – ’’बारिश के कारण काम बंद है। आदेश तो है नहीं।’’
उन्होने कहा – ’’नहीं, स्वरूपानंद जी की बात हो गई है। प्रधानमंत्री जी ने कहा है।’’ अविमुक्तेश्वरानंद जी ने शंकराचार्य जी से मेरी बात करा दी।
शंकराचार्य जी ने कहा – ’’हां, प्रधानमंत्री जी ने मान लिया है।’’
मैने विश्वास किया और उनका आदेश मान अनशन भी स्थगित कर दिया।
अगले दिन प्रेस कान्फ्रंेस हुई। प्रेस ने पूछा – ’’कैसे विश्वास करें ?’’
मैने कहा – ’’शंकराचार्य जी ने कहा है कि प्रधानमंत्री जी ने कहा है, तो मैने मान लिया; वरना् यदि लिखित देकर भी मुकर जायें, तो क्या करेंगे ?’’

फिर टूटा विश्वास

फिर मैं दिल्ली आ गया। पता चला कि हां, कुछ मशीनें हटा दी हैं। लेकिन यह सब नाटक था। अक्तूबर तक काम बंद रहा; उसके बाद फिर शुरु हो गया। मेरे लिए संकट था कि अब क्या करुं। पत्रकार..मित्रगण पूछने लगे कि अब क्या करोगे ?’’
यह 2009 तक की कथा है।

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