मौन तो टूटा पर हालत बद से बदतर

manmohanसिद्धार्थ मिश्र “स्वतंत्र”

विश्व के कुशल अर्थशास्त्रियों में शामिल हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी का मौन अक्सरहां पूरे राष्ट्र को अखर जाता है.बात चाहे घोटालों ,न्याय व्यवस्था,महिला सुरक्षा या भ्रष्टाचार की हो मनमोहन जी अक्सर ही बातों को ख़ामोशी से टाल जाते हैं.कुल मिला-जुलाकर यदि उनकी इस प्रवृत्ति का निष्पक्ष होकर आकलन करें तो ये पंक्तियाँ सर्वाधिक मुफीद साबित होती हैं-

मूदहूँ आँख कतहूँ कुछ नहीं……

सही भी है बातें कभी कर्म का स्थान नहीं ले सकती. शायद इसीलिए मनमोहन जी  प्रश्नों की आबरू बचने के लिए   ख़ामोशी का लबादा ओढना ज्यादा मुफीद समझते हैं.बहरहाल ये उनका नितांत निजी विषय है.हालांकि विगत कुछ दिनों से वे अपनी छवि के विपरीत जाकर कभी-कभार अपने उद्गार भी व्यक्त करना सीख रहे हैं.याद नहीं आया,पाक के हमले को कायराना उन्होंने ही बताया था या अभी हाल ही में स्वयं को फाइलों की रक्षा से अलग करने वाला बयान.रही बात कार्यकुशलता की इस विषय में उनका सर्वाधिक निष्पक्ष आकलन टाइम मैगजीन ने किया.स्मरण रहे की अपनी कवर स्टोरी में टाइम पत्रिका ने उन्हें अंडर अचीवर तक कह डाला था.खैर इस बात को प्रमाणित करने के एक नहीं दर्जनों प्रमाण हैं.इस सब के बीच कांग्रेसी उनके बचाव में अक्सर ये दलील देते रहते हैं की वे ईमानदार.सही भी हैं वे निश्चित तौर पर अपने दल के प्रथम परिवार के बेहद ईमानदार हैं.हैं या नहीं ? आपको क्या लगता है ? भ्रष्टाचार से पार्टी फण्ड बढ़ाने का मामला हो वाड्रा जी को बचाने का मामला हो उनकी ईमानदारी को पूरे देश ने प्रत्यक्ष रूप में देखा है.ये दीगर बात है की उनकी इस सुप्रवृत्ति से राष्ट्र का कोई विशेष लाभ नहीं हुआ है. इसके बावजूद भी अपनी पार्टी और उसके प्रथम परिवार के हित संवर्धन के प्रति उनकी ईमानदारी पर प्रश्नवाचक चिन्ह नहीं लगाया जा सकता. आपको क्या लगता  है ?

वैसे देखा जाये तो मनमोहन जी का ये शासन काल  भारतवर्ष के इतिहास में सर्वाधिक निराशाजनक काल के तौर पर याद किया जायेगा.महंगाई,रूपये का अवमूल्यन,बेरोजगारी,संप्रभुता का अभूतपूर्व पतन एवं भ्रष्टाचार का अद्भुत विकास जैसी समस्याएं आज नकारी नहीं जा सकती.अब इन समस्याओं के प्रति जवाबदेह कौन है? निसंदेह सरकार की गलत नीतियाँ जिन्होंने देश को निराशा की गर्त में धकेल दिया है.गौरतलब है की इस मुद्दे पर रिज़र्व बैंक के गवर्नर सुब्बाराव एवं वित्त मंत्री पी.चिदम्बरम का विरोधाभास अब सतह पर आ चुका है.अपने एक बयान में सुब्बराव ने कहा की वित्त मंत्री एक दिन ये स्वीकार करेंगे कि शुक्र है रिज़र्व बैंक तो है. उनके इस बयान से सरकारी नीतियों के प्रति उनकी निराशा साफ़ हो जाती है.सबसे बड़ी बात तो ये है कि ये भारतीय इतिहास में शायद पहला मामला है जब आरबीआई के गवर्नर और वित्तमंत्री इस तरह से एक दूसरे के आमने सामने आये हैं.ध्यातव्य हो की इसके पूर्व माननीय चिदंबरम जी ने अपने एक बयान में कहा था की,रिज़र्व बैंक केवल मुद्रास्फीति पर नजर रख रहा है,विकास का ध्यान नहीं दे रहा है.जहाँ तक विकास का प्रश्न है तो आज इसी विकास की आड़ में हुए घोटालों से हम सभी बखूबी परिचित हैं.कहने का सीधा सा अर्थ ये है की टीवी पर हो रहे भारत निर्माण और यथार्थ परक विकास के बीच जमीन-आसमान का अंतर है.है या नहीं ? विकास के नाम पर अवमुक्त धन का भ्रष्टाचार पर अपव्यय होना निसंदेह राष्ट्रीय हानि का विषय है .जिसके लिए सरकार ही जवाबदेह है.

गिरते हुए रूपये को लेकर प्रधानमंत्री ने शुक्रवार को अपना मौन तोडा.इस दौरान वे खासे आक्रामक दिखे.बेशर्मी की हद तो तब हुई जब उन्होंने मौजूदा आर्थिक हालात एवं रूपये के अवमूल्यन के लिए विपक्ष को जिम्मेदार बताया.बतौर प्रधानमंत्री अपना दुखड़ा रोते हुए उन्होंने ये कहने से भी गुरेज नहीं किया कि,मुख्य विपक्षी दल इस बात को पचा नहीं पा रहा की वो पिछले नौ वर्षों से सत्ता से बाहर हैं.बतौर प्रधानमंत्री उनके ये शब्द क्या प्रदर्शित करते हैं ? बहरहाल ये कहकर भी उन्होंने इतिहास ही रच डाला.गौरतलब है कि ये भारतीय इतिहास का पहला ऐसा मामला है जब सभापति को प्रधानमंत्री के शब्दों को असंसदीय बताते हुए कार्यवाही से हटाना पड़ा.अब भारत निर्माण के दावे और प्रधानमंत्री के मानसिक स्तर की इससे वीभत्स तस्वीर क्या हो सकती है ? आप ही सोचिये ?अपने इस पूरे संबोधन में उन्होंने आर्थिक बिमारियों की भयावह तस्वीर तो पेश कर दी किन्तु समाधान के विषय में उपयुक्त आश्वासन तक नहीं दे पाए.क्या यही है मनमोहन जी का अर्थशास्त्र? यदि हाँ तो गुस्ताखी माफ़ हो मै इसे अनर्थ शास्त्र कहना अधिक उपयुक्त समझूंगा.आप ही बताइए एक तथाकथित ईमानदार प्रधानमंत्री के कार्यकाल में भ्रष्टाचार एवं घोटालों के कीर्तिमान क्या प्रदर्शित करते हैं ? क्या ये निंदनीय नहीं है ? यदि है तो मनमोहन जी किस मुंह से दूसरों पर आरोप लगाने का दुस्साहस करते हैं ? कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री की संलिप्तता और अचानक फाइलों का गुम हो जाना कहाँ तक जायज है ? उस पर मनमोहन जी का ये तुर्रा की वे फाइलों के रखवाले नहीं है……क्या प्रदर्शित करता है ? बतौर प्रधानमंत्री क्या राष्ट्र के प्रति उनकी कोई जवाबदेही नहीं है ? यदि है तो वे उसे किस रूप में पूर्ण कर  रहे हैं ? अब प्रधानमंत्री जी ही बताएं वे किसके रखवाले हैं ? देश के,जनता के,संप्रभुता,अर्थव्यवस्था के अपनी पार्टी के,क्योंकि इन सारे मोर्चों पर उनकी विफलता अब किसी से भी छुपी नहीं है. बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन जी चाहे कितनी भी सफाई दें पर देश के विषम हालात अब सतह पर आ गए हैं.यदि ऐसा नहीं है तो उन्हें कुछ प्रश्नों के जवाब आज नहीं तो कल सत्ता जाने के बाद अवश्य देने ही होंगे.

१.विद्वान् मनमोहन जी के रहते आज रुपया रसातल में कैसे पहुंचा ?

२.भारत का व्यापार घाटा प्रति वर्ष की दर से बढ़ता क्यों जा रहा है ?

३.विदेशी निवेशकों का विश्वास क्यों डिग रहा है?

४.विकास दर का लुढ़कना क्या दर्शाता है ?

५.अनियंत्रित महंगाई के लिए जवाबदेह कौन है ?

६.किसकी शह पर भ्रष्टाचार के उच्च कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं ?

७.विपक्ष पर आरोप लगाने वाले मनमोहन जी क्या अपनी भूमिका से न्याय कर रहे हैं ?

ये सारे प्रश्न निसंदेह मनमोहन जी की विशेषज्ञता से सम्बंधित ही कहे जायेंगे.इनके अतिरिक्त भी देश की रक्षा नीति से जुड़े प्रश्न अब भी अनुत्तरित हैं,जिनका जवाब तो मनमोहन जी को देना ही होगा.अंत में इतना कहना चाहूँगा कि प्रधानमंत्री जी का चिर-परिचित मौन तब टूटा है जब हालत बद  से बदतर हो चुके हैं.ऐसे में मनमोहन जी का ये जुबानी-जमाखर्च प्रयोजन रहित प्रतीत होता है,क्योंकि ये वक़्त कहने सुनने का नहीं वरन कड़े फैसले लेने का है.

5 COMMENTS

  1. महंगाई दिन-दुनी रात-चैगुनी बढ़ रही है। आजादी का जो सपना महात्मा गांधी ने दिखाया था, उस सपने के साथ में उन्हांेने
    दो सपने दिखाए थे – ‘स्वाभिमान’ और ‘स्वरोजगार’ का। स्वरोजगार का सपना इसलिए
    दिखाया था, क्योकि स्वरोजगार के बिना स्वाभिमान जिन्दा नहीं रह सकता। आजादी
    मिली, लेकिन स्वाभिमान और स्वरोजगार का सपना पूंजीवादी सभ्यता की भेंट कब चढ़
    गया, पता ही न चला। सत्तासीन कांग्रेस सरकार ने सत्ता में आते ही कहा था कि हम
    सौ दिन में प्राइस राइस कंट्रोल करेंगे लेकिन कांग्रेस महंगाई रोक पाने मे
    विफल रही और महंगाई निरंतर नये आयामों को छू रही है। महर्षि चार्वाक ने कहा था-“यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत्, ऋणं कृत्वा
    घृतम पिवेत।” यह केन्द्र सरकार पर पूरी तरह लागू होता है हां अगर विदेशो में जमा
    काला धन वापस आ जाये और विदेशी ऋण चुकता कर दिये जाये तो महंगाई थम सकती है।
    लेकिन केन्द्र सरकार उसपर भी मौन साधे है। महंगाई से निपटने के लिए सरकार
    विदेशी पूंजी निवेश की ओर ताक रही है। भारत में पहले से 5000 से अधिक विदेशी
    कंपनिया मौजूद है। अगर इतिहास के पन्नो में पीछे झांके तब वित्त मंत्रालय से
    लेकर रिजर्व बैंक के आंकड़े चिल्ला चिल्लाकर कह रहे है कि विदेशी निवेश और
    विदेशी कंपनियों से जितना भी पैसा भारत में आता है उससे कई गुना ज्यादा पैसे
    वे भारत से लेके जाती है। 1933 से भारत में कार्य कर रही हिन्दुस्तान युनीलीवर
    जोकि ब्रिटेन और हालैण्ड की संयुक्त कंपनी है ने मात्र 35 लाख रुपये से भारत
    में व्यापार शुरु किया था और उसी वर्ष यह 35 लाख से अधिक रुपया भारत से लेकर
    चली गयी। उसी तरह प्राॅक्टर एण्ड गैम्बल, फाइजर, गैलेक्सो, गुडईयर सरीखी अनेको
    कंपनीयों ने जितना निवेश किया उससे लगभग तीन गुना उसी वर्ष भारत से वापस लेके
    चली गयी। यह बात केन्द्र सरकार के पल्ले में नहीं समाती। आज भारत के प्राकृतिक
    सम्पदा, रोड, खाद्यान्ने तक विदेशी कंपनीयों को बेचे जा रहे है। जिसमें लूट भी
    खूब हो रही है। अभी कोयला और सेना का घोटाला सबके सामने है।
    महंगाई कहां से कम होगी। जो दौलत यहां किसान बनाते है भारत उसे भी समेटने में
    विफल है। हमारी सरकार ने कभी एफसीआई का विस्तार नहीं किया। आलू रखने के लिए
    जनता ने अपने आप इंतजाम किया फिर भी दाम ठीक नहीं मिल रहे। पहले जहां फसल पैदा
    होती थी अब सरकार सेज की आड़ में पूंजीपतियों को सौंप दिये। गेहूं का रुतबा नौ
    फीसदी कम हो चुका है। देखा जाये तो आज देश में कालाबाजारी, मुनाफाखोरी,
    जमाखोरी, भ्रष्टाचार, लूट, घोटाले दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ रहे हंै और सरकार
    कही न कही, किसी न किसी तरह से इसमें लिप्त भी नजर आ रही है। आज भी देश का एक बड़ा तबका विकास से कोसो दूर है और यही वह तबका है जिसकी आय में वृद्धि की जगह कमी निरंतर जारी है।

  2. बेशर्मी की भी कोई सीमा होती है लेकिन इन की नहीं | पिछले ९ साल में देश रसातल पर चला गया है और कांग्रेसी लोग अपनी प्रशंसा करते नहीं थकते | प्रधान मंत्री स्वयं इमानदार हो सकते हैं लेकिन उन के मंत्री एक से एक बढ़कर हैं – अगर वे किसी पर कोई कार्यवाही नहीं कर सकते तो क्यों कुर्सी से चिपके हैं | शपथ लेते समय हर बार महात्मा गाँधी का नाम लेते हैं | इश्वर ही मालिक है इस देश का ….

  3. मनमोहन जी और चिदम्बरम जी तथा सर्कार के अन्य प्रवक्ता लगातार कहते हैं की भारतीय अर्थव्यवस्था के ‘फंडामेंटलस’ मजबूत हैं.लेकिन ये नहीं बताते की कौन सा फंडामेंटल मजबूत है?करेंट एकाऊंट घाटे की स्थिति ख़राब है,वित्तीय घाटे की स्थिति ख़राब है, मुद्रास्फीति की स्थिति ख़राब है,जीडीपी की स्थिति खराब है,आम आदमी की क्रय शक्ति ख़राब है, औद्योगिक विकास की दर घट कर ४.४% पर आ गयी है,बेरोजगारी बढ़ रही है नए रोजगार के अवसर सर्जित नहीं हो रहे हैं,फिदेशी निवेश नहीं आ रहा है उलटे विदेशी पूँजी की निकासी हो रही है, फिर भी प्रधान मंत्री और वित्त मंत्री और उनके भोंपू कह रहे हैं की ‘आल इज वेल’.स्वयं निद्रा में हैं या देश को गहरी निद्रा में धकेल देना चाहते हैं?

  4. Manmohan Singh was made prrime minister by Sonia and has had no public contact in his life except books, research papers, seminars and conferences now and then. He has proved to be disaster for people of India in every way . I consider him to be the most incapable as P.M. and is the most corrupt man because he has supported and given shelter to evil and most corrupt people including his cabinet ministers. He is most loyal to Sonia and Rahul and Nehru- Gandhi dynasty which is a shame on his part and dumped the Indian Nation of over 125 karore people.He is suffering from Islamophilia and has great affinity for Pakistan , Bangladesh and Afgahanista . In Afaghanistan he has invested Billions of dollars and which we are going to lose without any gain or return exccept deaths of Indians working in different projects. He is neither singh or lion nor Sardar or leader he is a puddle of sonia and lowest of the low human being .

  5. सिद्धार्थ, जी आपके लेख मे सच्चई है ईमानदार है…

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