वेदान्त के आध्यात्मिक गुरु विवेकानन्द

Swami-Vivekanandaअशोक “प्रवृद्ध”

आज से 153 वर्ष पूर्व 12 जनवरी 1863 को हमारे देश में एक ऐसे सन्यासी ने जन्म लिया था, जिसने सम्पूर्ण विश्व को गौरवमयी भारत के प्राचीन ज्ञान की प्रकाश से जगमग कर दिया था। वह सन्यासी थे नरेन्द्र नाथ दत्त, जो कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए और जिन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व कर भारत के आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन को अमेरिका और यूरोप के हरेक देश में अपनी वक्तृता के बल पर पहुँचाया । वे वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे । वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे और उन्होंने ही अपने गुरू के नाम पर रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। कहा जाता है कि विवेकानन्द ने शिकागो में अपने भाषण की शुरुआत ‘मेरे अमरीकी भाइयो एवं बहनों’ के साथ किया और संबोधन के इस प्रथम वाक्य से ही उन्होंने सबका दिल जीत लिया था। यह भाषण एक वेदान्ती साधु की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ, वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी। बीसवीं सदी के इतिहास ने बाद में उसी पर अपनी सहमति की मुहर लगायी। एक युवा सन्यासी के रूप में विवेकानन्द भारतीय संस्कृति की सुगन्ध विदेशों में बिखेरने वाले साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान थे। अमेरिकी मीडिया ने उन्हें भारत से आया ‘तूफानी संन्यासी’ ‘दैवीय वक्ता’ और ‘पश्चिमी दुनिया के लिए भारतीय ज्ञान का दूत’ जैसे शब्दों से सम्मान दिया। अमेरिका पर स्वामी विवेकानन्द ने जो प्रभाव छोड़ा था वह आज भी कायम है। इसीलिए, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जब भारतीय संसद को संबोधित किया तो स्वामी विवेकानन्द का संदेश उनकी जुबान पर भी था। हिन्दू धर्म के प्रतीक के रूप में गेरुए वस्त्र से अमेरिका का पहला परिचय स्वामी विवेकानन्द ने ही कराया था। उनके भाषण ने अमेरिका पर ऐसा प्रभाव छोड़ा कि गेरुए वस्त्र अमेरिकी फैशन में शुमार किए जाने लगे। शिकागो-भाषण से ही दुनिया ने ये जाना कि भारत गरीब देश जरूर है लेकिन आध्यात्मिक ज्ञान में वो बहुत अमीर है। युगांतरकारी आध्यात्मिक गुरु विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म को गतिशील तथा व्यवहारिक बनाकर सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए आधुनिक मानव से पश्चिमी विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का आग्रह किया। कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में जन्मे नरेन्द्रनाथ चिंतन, भक्ति व तार्किकता, भौतिक एवं बौद्धिक श्रेष्ठता के साथ-साथ संगीत की प्रतिभा का एक विलक्षण संयोग थे। उनके इन्हीं गुणों के कारण भारत में स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

 

स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 तदनुसार मकर संक्रान्ति संवत् 1920 को कोलकाता तत्कालीन  कलकत्ता में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। पिता विश्वनाथ दत्त और माता भुवनेश्वरी देवी के इस पुत्र का बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक प्रसिद्ध वकील थे तथा पाश्चात्य सभ्यता में अगाध विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के अनुरूप चलाना चाहते थे। परन्तु उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। उनके घर में नित्य नियमपूर्वक पूजा-पाठ होता था ।धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी देवी को  पुराण,रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का अत्यन्त शौक था।इसलिए कथावाचक भी इनके घर सदैव आते रहते थे तथा नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के प्रति संस्कार गहरे होते चले गये। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और भगवदप्राप्ति की उत्कण्ठा जागृत हो उठी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुकता में कभी-कभी वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे जिनके उत्तर उनके माता-पिता और कथावाचक विद्वान तक नहीं दे पाते थे।

 

बचपन से ही नरेन्द्र अत्यन्त तीक्ष्ण व कुशाग्र बुद्धि के तो थे ही चंचल व नटखट स्वभाव के भी थे, जो बड़े होकर एक धीर-गंभीर और पढ़ने में रुचि रखने वाले नौजवान के रूप में परिणत हो गये। धर्म, दर्शन, साहित्य, इतिहास और विज्ञान हर विषय में उनकी गहरी रुचि थी। नरेन्द्र ने शास्त्रीय संगीत भी सीखा और 1881 में जनरल एसेंबली इंस्टीट्यूशन नाम से जाने जाने वाले स्कॉटिश चर्च कॉलेज से चित्रकला की परीक्षा उतीर्ण की। 1884 में उन्हें कला में स्नातक की डिग्री मिली। उनकी बहुमुखी प्रतिभा देख कर जनरल एसेंबली इंस्टीट्यूशन के प्रिसिंपल विलियम हेस्टी ने उन्हें जीनियस कहा था। 28 सितम्बर 1895 को शिकागो एडवोकेट नाम के अंग्रेजी अखबार ने उनके बारे में लिखा कि विवेकानन्द ऐसी अंग्रेजी बोलता है जैसे वो उसकी मातृभाषा हो। नरेन्द्रनाथ की ज्ञान की जुगुप्सा बढती ही जा रही थी और वे ईश्वर के बारे में जानने की उनकी इच्छा समय के साथ और उत्कट होती चली गई । इस इच्छा ने उन्हें ब्रह्म समाज के केशवचन्द्र सेन और देवेंद्रनाथ टैगोर तक पहुँचा दिया। परन्तु यहाँ भी इनकी इच्छा की पूर्ति नहीं हो सकी। परन्तु एक दिन अंग्रेजी कक्षा में मशहूर कवि विलियम वर्डस् वर्थ की कविता में ट्रांस शब्द का अर्थ समझाते हुए प्रोफेसर हेस्टी ने कहा कि जिसे सचमुच इसका अर्थ जानने की इच्छा हो उन्हें रामकृष्ण परमहंस से मिलना चाहिए और यहीं से एक शिष्य से गुरु की मुलाकात की कोशिश प्रारम्भ हो गई। और यह कोशिश रामकृष्ण परमहंस से मिलने के बाद ही समाप्त हो सकी ।अपने कॉलेज के प्रिंसिपल से रामकृष्ण परमहंस के बारे में सुनकर, नवम्बर 1881 को वे उनसे मिलने दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर पहुँच गये। रामकृष्ण परमहंस से मिलने पर भी नरेन्द्र ने वही प्रश्न किया जो वे औरों से किया करते थे, कि क्या आपने भगवान को देखा है? रामकृष्ण परमहंस ने जवाब दिया-हाँ, मैंने देखा है, मैं भगवान को उतना ही साफ देख रहा हूँ जितना कि तुम्हें देख सकता हूँ, फर्क सिर्फ इतना है कि मैं उन्हें तुमसे ज्यादा गहराई से महसूस कर सकता हूँ ।

रामकृष्ण परमहंस के जवाब से नरेन्द्र प्रभावित तो हुए परन्तु वे इसे ठीक से समझ नहीं सके, तथापि इस मुलाकात के बाद उन्होंने नियमपूर्वक रामकृष्ण परमहंस के पास जाना शुरू कर दिया। प्रारम्भ में तो वे रामकृष्ण परमहंस के विचारों से सहमत नहीं थे और निराकार ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाने के अद्वैतवाद के सिद्धांत को वे धर्मविरोधी समझते थे। तर्क-वितर्क में भी वे रामकृष्ण परहमंस का विरोध करते थे, तब उन्हें  उत्तर यही  मिलता था कि सत्य को सभी कोण से देखने का प्रयत्न करो। इसके बाद 1884 में उनके पिता का देहावसान हो जाने के बाद नरेन्द्र के जीवन में एक बड़ा बदलाव आया और अमीर परिवार के नरेन्द्र एकाएक गरीब हो गए। उनके घर पर उधार चुकाने की माँग करने वालों की भीड़ जमा होने लगी। ऐसे में नरेन्द्र  ने रोजगार तलाशने की भी कोशिश की लेकिन यहाँ भी उन्हें नाकामयाबी ही हाथ लगी। इस पर वे रामकृष्ण परमहंस के पास लौट आए। उन्होंने परमहंस से कहा कि वे माँ काली से उनके परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए प्रार्थना करें। रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि वे स्वयं काली माँ से प्रार्थना क्यों नहीं करते? कहा जाता है कि नरेन्द्र तीन बार कालीमंदिर में गये लेकिन प्रत्येक बार उन्होंने अपने लिए ज्ञान और भक्ति माँगी और वे परिवार की आर्थिक स्थिति संवारने की इच्छा तक काली के समक्ष व्यक्त नहीं कर सके । इस आध्यात्मिक अनुभूति के बाद नरेन्द्र ने सांसारिक मोह का त्याग कर दिया और राम कृष्ण परमहंस को अपना गुरु मान लिया। राम कृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानन्द को जीवन का ज्ञान दिया। स्वामी विवेकानन्द अगर ज्ञान की रौशनी थे तो रामकृष्ण परमहंस एक ऐसे प्रकाश पुंज थे जिनके ज्ञान की रौशनी ने नरेन्द्रनाथ को विवेकानन्द बना दिया था। 16 अगस्त 1886 को रामकृष्ण परमहंस के निधन के दो साल बाद नरेन्द्र भारत भ्रमण के लिए निकल पड़े। भारत भ्रमण के दौरान उन्होंने जब देश में फैली गरीबी, पिछड़ेपन को देखा तो वे विचलित हो उठे।

छह साल तक नरेन्द्रनाथ भारत की समस्या और आध्यात्म के गूढ़ सवालों पर विचार करते रहे। कहा जाता है कि इसी यात्रा के अंत में कन्याकुमारी में नरेन्द्र को ये ज्ञान मिला कि नए भारत के नवनिर्माण से ही देश की समस्या दूर की जा सकती है। भारत के पुनर्निर्माण की उत्कट इच्छा ने ही उन्हें शिकागो की धर्मसंसद तक ले गया, जहाँ से भारत लौटने के बाद ही 1 मई 1897 को स्वामी विवेकानन्द ने राम कृष्ण मिशन की नींव रखी। इसी राम कृष्ण मिशन ने बाद में भारत के नवनिर्माण के लिए कई अस्पताल, स्कूल, कॉलेज आदि खोले और जनकल्याणकारी अनेक महत्वपूर्ण कार्यों को अंजाम दिया। अपने कार्यों और विचारों के कारण स्वामी विवेकानन्द नौजवानों के  आदर्श बन गए। 1898 में उन्होंने बेलूर मठ की स्थापना की। लेकिन दुखद यह कि इसी बेलूर मठ में ही 4 जुलाई 1902 को स्वामी विवेकानन्द का निधन हो गया लेकिन उनके कहे शब्द आज भी युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत हैं, जिसका मूल मंत्र है- उठो जागो और लक्ष्य तक पहुँचने से पहले रुको मत।

 

 

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