बोले जाने पर बोला जाना चाहिये

-अखतर अली

इन दिनों जितना बोला जा रहा है उतना शायद बोले जाने के इतिहास में और कभी नहीं बोला गया होगा। कौन बोल रहा है, क्यों बोल रहा है, क्या बोल रहा है, ये कुछ भी समझ नहीं आ रहा है। बोला जाना चीखे जाने मे तब्दील हो चुका है। लोग माईक में चिल्ला रहे है, इतनी ज्यादा शक्ति लगाकर बोला जा रहा है कि बोला जाना शोर मचाने की की श्रेणी में आ गया है।

बोले जाने की कोई खास वजह नहीं है फिर भी बोला जा रहा है। कोई सुनने वाला नहीं है फिर भी बोला जा रहा है। मंदिरों, मस्जिदों, बाजारों, स्कूलों, गोष्ठियों, सभाओं, जहां भी आप चले जाईये आप पायेंगे कि वहा बोलने की होड़ मची हुई है। हर आदमी इसी कोशिश में है कि बस एक बार माईक हाथ में आ जाये। जिसके हाथ मे माईक है वह माईक छोड़ने को तैयार नहीं और जिसके हाथ में अभी माईक आया नहीं है वह वहां से हटने को तैयार नहीं। जिनके पास बोलने को कुछ नहीं है वह भी बोलने वालो की लाईन में है, जिनके पास बोलने का सलीका नहीं है वह भी बोलने को आमादा है। यह तय करने वाला कोई नहीं है कि कब किसको कहां बोलना है। जिसको श और स में अंतर नहीं मालूम वह भी बोल रहा है। कक्षा मे जो हर प्रश्‍न के जवाब मे सिर्फ चुप रहा वह भी माईक हाथ मे लेकर सवाल पर सवाल किये जा रहा है। शब्दों की इतनी फिजूल खर्ची और कभी नहीं की गई होगी जितनी इन दिनों की जा रही है। ऐसा लग रहा है मानों पूरे देश में बोलने के वायरस फैल गये है, बोलने की बीमारी लग गई है, बोलने का प्रकोप फैल गया है। एक आदमी बोलता है फिर उसके बोलने पर पांच औरे उनके बोलने पर पच्चीस आदमी बोलते है यानि बोलने के कीटाणु बहुत तेजी से फैल रहे है। अगर आप अपने आस पास ध्यान देगे तो महसूस करेंगे कि ज्ञानी को छोड़ कर हर आदमी बोल रहा है।

अचानक इतना अधिक बोले जाने की जरूरत क्यो पड़ गई? क्या बोलने का यह तरीका नहीं होना चाहिये कि एक आदमी बोले और बहुत से उसे ध्यानपूर्वक सुने। वह एक बोलने वाला भी कोई ज्ञानी ध्यानी ही होना चाहिये। बोलने का यह कौन सा मापदंड़ हुआ कि चूकि कल तुमने बोला था इसलिये आज हम बोलेंगे। आज कल गोष्ठियों में लोग सुनने नहीं सिर्फ बोलने जाते है, इस अनावश्‍यक और अत्याधिक बोले जाने के कारण आज कल बोले जाने को महत्व नहीं दिया जा रहा है। कुछ महत्वपूर्ण बाते महत्वहीन बातों के शोर मे दब जा रही है, आप अपने इर्द गिर्द नज़र ड़ालेगे तो महसूस करेंगे कि यहां हर दूसरा आदमी भाषण देने की मुद्रा में खड़ा है। यह बहुत चिंता की बात है कि आजकल बोला जाना बहुत आसान हो गया है। आठवी फ़ेल आदमी भी केन्द्रीय बजट पर टिप्पणी कर रहा है, वित्त मंत्री की आलोचना में बोल रहा है। मंच अयोग्य आदमी की मुट्ठी में है उसने योग्य आदमी को नेपथ्य मे धकेल दिया है। योग्य आदमी अल्पमत में आ गया है। बोलना ही योग्यता की पहचान मानी जाने लगी है। लोगो पर बोलने का नशा इस कदर चढ़ गया है कि उनको इतना होश भी नहीं रहता है कि उनके ध्दारा क्या बोला जा रहा है, क्यों बोला जा रहा है? बस एक बार माईक भर हाथ मे आ जाये फिर तो पूरे मौहोल की सत्यनाशी कर देना तो इनके बाये हाथ का खेल है। कुछ नहीं बोल पायेंगे तो ड़ेढ़ दो घंटे इसी बात का शोर मचाते रहेंगे कि कृपया शांति बनाये रखे।

अगर बोले जाने पर सोचा जाये तो बड़ी चौकाने वाली बात सामने आयेगी, आप भी सोचेंगे कि ये कैसा गड़बड़झाला है कि बोलने के अंदर से विचार ही गायब है, भाषा ही लुप्त हो गई है फिर भी बोला जा रहा है। बोलने वाला अगर बोलता है कि यही विचार है यही भाषा है तो वो बोलने की लिये स्वतंत्र है वह इस बकबक को विचार बोल सकता है क्योकि उसकी तो कोई विचारधारा है ही नहीं, और शायद उसे यह भी मालूम न हो कि विचारधारा जैसी कोई चीज़ होती भी है, फिर भी वह सीना ठोक कर बोल रहा है, उसके पास भाषा नहीं है लेकिन शब्दों की कमी तो नहीं है उसके पास। बिन भाषा और बिन शब्द के बोलने वाले बोले जा रहे है। उनके भेजे मे बुद्धि नहीं है तो क्या हुआ मुट्ठी में पैसा तो है, भले माईक उनके मुंह के सामने हो पर बोल उनका जेब रहा है। शहर में विचारहीन और विचारवान दोनों बोलते है लेकिन दूसरे दिन सामाचार पत्र के मुख्य पृष्ठ पर कौन होता है और तीसरे पेज पर कौन होता है यह सर्वविदित है। इस अनाप-शनाप बोले जाने से आये दिन बड़ी विचित्र स्थति निर्मित हो जाती है जब बोले जाने पर बोला जाता है कि मेरे बोलने का अभिप्राय यह नहीं था, मेरे बोलने का गलत अर्थ निकाला जा रहा है। अरे भैया आप पहले से ही अर्थवान बोलो न ताकि दूसरो को आपके बोले जाने मे से अर्थ ढूंढने की आवश्‍यकता ही न पड़े। पहले बोलना कठिन और सुनना आसान होता था लेकिन आज कल ऐसा लगता है कि बोलना सरल और सुनना कठिन हो गया है। पहले देश मे चुनिंदा लोग बोलते थे और हज़ारो लोग उसे सुनते थे, सुनने का आनंद लेते थे, सुनने में मगन हो जाते थे, सुनकर तालियां बजाते थे वाह वाह करते थे, क्योंकि जो बोला जा रहा होता था वह सार्थक होता था, तर्कसंगत होता था, देश, समाज और व्यक्ति के लिये वह बोला जाना अत्यंत आवश्‍यक होता था क्योंकि वह स्वयं के लिये नहीं दूसरों के हित के लिये बोला जाता था। बोलने की कला पर नहीं, बोले जाने वाले विषय पर ध्यान दिया जाता था। लेकिन अब सब कुछ उल्टा पुल्टा हो गया है। अब मंच से बोला नहीं बका जा रहा है, स्तरहीन मुद्दों को उछाला जा रहा है, बेहुदा शब्दों का पथराव हो रहा है मंचों से। यह तो चिंता की बात है ही कि ऐसा बोला क्यो जा रहा है लेकिन उससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि ऐसा सुना क्यों जा रहा है? सभाओं, गोष्ठियों, प्रवचनों को सुनने वालो की बढ़ती संख्या सफ़ल बना रही है।

पहले सुनने का अवसर नहीं मिलता था तो लोग नाराज़ हो जाते थे कि आयोजन हमारी सुविधा अनुसार क्यों नहीं रखा गया ? हम तो सुनने से वंचित रह गये लेकिन अब बोलने का अवसर नहीं मिलता है तो लोग नाराज़ हो जाते है। अब लाईट माईक कुर्सी का पैसा देकर बोलने का अवसर खरीदा जा रहा है। बहुत अंतर होता है कि अवसर आपके पास आ रहा है या आप अवसर के पास जा रहे है। काबलियत ने आपको अवसर दिया या चालबाज़ी से आपने अवसर हथियाया। कुल मिलाकर संकट यह है कि इन दिनों बोला जाना समस्या बनता जा रहा है और हम इस समस्या से वाकिफ़ नहीं है। हमें इस ओर ध्यान देना होगा कि ये चारो तरफ़ इतना बोला क्यों जा रहा है? इसकी वजह क्या है, इसकी आवश्‍यकता क्या है, उपयोगिता क्या है? इस बोले जाने से क्या लाभ है और अगर यह नहीं बोला जायेगा तो क्या नुकसान होगा? जो भाषण, प्रवचन, समीक्षा, उदघोषणा कर रहा है उस व्यक्ति में ऐसा क्या गुण है जिसके तहत उसे ऐसा करने का अधिकार मिला है। कुछ ऐसा करना होगा कि इस अनावश्‍यक बोले जाने में कमी आये। यह भी एक प्रकार का प्रदूषण है जिसे साफ किया जाना चाहिये। बोलने वाले से यह पूछा जाना चाहिये कि आपने पिछली बार जो जो बोला था उस पर क्या अमल हुआ? उस बोले जाने पर आपने क्या कदम उठाया? ऐसा तो नहीं कि उस कहनी और करनी में ज़मीन आसमान का अंतर पता चले। यदि ऐसा है तो उसे बोलने का अधिकार नहीं देना चाहिये। यदि इस स्वतंत्र देश में वह बोलने के लिये आज़ाद है तो हम भी तो सुनने के लिये बाध्य नहीं है। हमे वहा अनुपस्थित रह कर उस कार्यक्रम को असफल कर देना चाहिये। अगर हम उस बोलने वाले से उसके बोलने का हिसाब नहीं ले सकते तो कोई बात नहीं हम मन ही मन उसके कहनी और करनी का हिसाब लगा तो सकते है। हम उसे अपनी क्षमता के अनुसार जांच परख तो सकते है? हम स्वयं परीक्षक बन कर पास या फेल कर सकने का अधिकार तो रखते है। चुनावी सभाओं में खिलाड़ी और अभिनेता बोल रहे है, साहित्यिक गोष्ठियो मे नेता बोल रहे है, पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम मे उघोगपति बोल रहे है, आखिर यह क्या गड़बड़खोटाला है? क्या इसका अर्थ यह नहीं निकालना चाहिये कि इन दिनों बोलना मज़ाक बन कर रह गया है? क्या अब समय नहीं आ गया है कि जब एक आम आदमी सुनने से इंकार कर दे? क्या कोई ऐसा सिस्टम तैयार करने की आवश्‍यकता नहीं है जिसके तहत केवल मान्यता प्राप्त लोग ही सार्वजनिक तौर पर बोल सके। बोलना, चल रही व्यवस्था में दखल देना होता है और इतना महत्वपूर्ण काम हर ऐरा गैरा कैसे कर सकता है?

बोलना, कम बोलना और नहीं बोलना ये तीनो बिलकुल अलग अलग चीज़ है और तीनो का अपना महत्व है। मैं बोलने के खिलाफ़ नहीं हूं, मैं कम बोलने का भी हिमायती नहीं हूं और चुप रहने का समर्थक भी नहीं हूं। ये चीज़े हमारे औजार और हथियार है इनका इस्तेमाल बहुत सोच समझ कर करना होगा। अगर बहुत बोलने की ज़रूरत है तो वहां कम क्यों बोलना और चुप रहने से ही काम बन सकता है तो थोड़ा सा भी क्यों बोलना? हमे बोलने को हस्तक्षेप मानना चाहिये इसलिये कही भी किसी का भी बोलना गंभीर और आवश्‍यक ही होना चाहिये इससे कम कदापि नहीं। जोश मे बोले गये को बोलना न माना जाये यहां सिर्फ होश में बोलने वालो को ही सुना जाना चाहिये। हमारे यहां अब कुछ ऐसी व्यवस्था हो ही जानी चाहिये जिसके तहत हर किसी को बोलने का अधिकार न मिले। बोलने की कुछ तो न्यूनतम योग्यता होनी चाहिये कुछ तो मापदंड होने चाहिये। जैसे विश्‍व कप में खेलने के लिये टीम को क्वालीफाई करना होता है वैसा ही कुछ इस क्षेत्र में भी लागू कर देना चाहिये। जैसे जिस नेता को उसकी पार्टी ने ही टिकट देने की ज़रूरत न समझी उसे बोलने का भी हक नहीं होना चाहिये। जो नेता चुनाव हार जाये उसे बोलने का हक नहीं होना चाहिये। जो उघोगपति ने समय पर टैक्स नहीं भरा हो उसे बोलने का हक नहीं मिलना चाहिये। बोलने वाले के पिछले रिकार्ड़ चेक करना चाहिये कि वह अपनी पहले कही गई बातो पर अड़िग है कि नहीं? वह कहे गये अनुसार ही कार्य कर रहा है या नहीं? उसका पिछला बोला गया भड़काउ तो नहीं था? उससे कानून और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव तो नहीं पड़ा? उसके बोलने से किसी की भावना तो आहत नहीं हुई ? मै यह कतई कहना नहीं चाह रहा हूं कि बोलने पर पूरी तरह पाबंदी ही लगा देनी चाहिये। कमज़ोरी, खराबी के खिलाफ़ यदि बोला नहीं जायेगा तो देश में कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज़ ही नहीं रहेगी। बुराई का नाश करने में जिन हथियारो का इस्तेमाल किया जाता है उसमें एक हथियार विरोध में बोलना भी है, मैं जिस बोलने का विरोध कर रहा हूं वह अनावष्यक बोला जाना है, गैर जिम्मेदाराना बोला जाना है, वह बोला जाना जो सिर्फ चर्चा में रहने के लिये बोला जाता है, वह बोला जाना जो सिर्फ अपना आस्तित्व बचाये रखने के लिये बोला जाता है। यहां ऐसे भी बोलने वाले है जिन्हे खुद नहीं मालूम कि वे क्या बोल रहे है, क्यों बाल रहे है, किसके लिये बोल रहे है? बोलने के लिये सिर्फ जुबान ही नहीं दिमाग भी होना चाहिये। प्रदूषण विभाग को चाहिये कि वे अनावश्‍यक बोले जाने वाले शब्दो से पैदा होने वाले प्रदूषण से जनता को निजात दिलाये।

बोलना एक अतिआवश्‍यक प्रतिक्रिया है, इसके बिना दुनियॉ का काम चल ही नहीं सकता। भोजन भी अति आवश्‍यक आवश्‍यकता है लेकिन खाने की भी एक सीमा होती है उससे अधिक खाने से भारी नुकसान है, जीने के लिये सोना भी आवश्‍यक है लेकिन बस सोये ही रहना तो सब कुछ समाप्त कर देगा, परिश्रम करना बहुत जरूरी है लेकिन सिर्फ काम ही काम करते जायेगे और विश्राम नहीं करेगे तो कैसे होगा? यही फार्मूला बोलने पर भी पूरी तरह लागू होता है। मेरा बोलने वालो से निवेदन है कि वे अपने बोलने पर नियंत्रण रखे, बोलने से पहले स्वयं की पड़ताल करे, अपने खुद की खबर ले, खुद को मुजरिम मानकर खुद को खुद की अदालत में पेश करे और खुद जज बनकर खुद को फैसला सुनाये। मैं सुनने वालो से अपील करता हूं कि सार्थक बोलने वालो को ध्यानपूर्वक सुनकर उनका समर्थन करे और अनावश्‍यक बोलने वालों को न सुनकर उनके बोलने का बहिष्कार किया जाये।

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