व्यंग्य/8230;..बोल मरी मछली कितना पानी!!!

उस रोज-रोटी की तलाश में वह तड़के ही निकल पड़ा था। और वे लाल बत्ती वाली कार में शिकार करने। चालक ने बस के एक्सीलेटर पर दोनों पांव पुरजोर रखे थे, क्योंकि बड़े दिनों बाद वह पत्नी के चुंगल से छूट प्रेमिका से मिलने जा रहा था, सो फुल स्पीड में था।उसने भी सोचा, चलो! अपनी तो प्रेमिका है नहीं, प्रेमिका कैसी होती है? इसी की प्रेमिका देख लेते हैं। इसलिए वह बहुत खुश था। उसकी भी प्रेमिका होती तो मत पूछो उसका क्या हाल होता?

और प्रेमिका के अंधे ने अगले मोड़ पर बस धकिया दी। और जनाब! दुर्घटना में जो अक्सर होता है, उसके साथ भी वही हुआ। अंग-अंग टूट गया।

जैसे, ‘कैसे नाक बचाई के लिए दोस्त’ रिश्तेदार इकट्ठे हुए। और वह पुलसिया देखरेख में सरकारी अस्पताल! चार दिन तक वह उस अस्पताल में पड़ रहा और पांचवे दिन मर गया। ‘चलो, लोकतंत्र से पीछा छूटा। अब कम से कम स्वर्ग में तो मौज करूंगा,’ उसने मेरे कान में फुसफुसाया। मुझे उस वक्त उससे बहुतर् ईष्या हुई। यार, इस देश में धक्के खाने को हम जैसे ही रह गए क्या?

सच कहूं, वह मेरा खास था, बहुत खास। मेरे इस वक्तव्य में संवेदना है, यह राजनीतिक स्टेटमेंट नहीं। कारण? जनता के वक्तव्य में संवेदना होती है, राजनीति नहीं।

पहला द्वार:
अब उसे नियमतन सरकारी बेड से शवगृह में शिफ्ट होना था। कर दिया गया। मैं पता नहीं क्यों बराबर उसके साथ बना रहा। शवगृह के कर्मचारी ने उसे एक कोने में डाल दिया। उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। जनता कर ही नहीं सकती। चाहे जिंदा हो, चाहे मरी हुई। चाहे संसद में हो, चाहे शवगृह में। समाजवाद का हिमायती एक कोने में। मुझसे उस समाजवादी का यह हाल देखा न गया, सो जेब से सौ का नोट निकाल उस कर्तव्यनिष्ठ की ओर बढ़ाया, ‘ये लो भद्रपुरूष! इस समाजवादी को कोने में मत रखो। यह पूरे देश में छाना चाहता था।’

‘तो?’

‘इसे प्लीज सम्मानित जगह दो।’ उसने मुझसे सौ का नोट मुस्कुराते हुए लिया और उसके शव को हंसते हुए कुछ आदरणीय स्थान पर रख दिया।

दूसरा द्वार:
नियमानुसार अब उसका पोस्टमार्टम होना था। वह भी दूसरे अस्पताल में। भारी मन और उसका शव लिए दूसरे अस्पताल पहुंचा तो वहां भी लंबी लाइन! लगा, लोग अपने-अपने शवों का पोस्टमार्टम करवाने नहीं, मिट्टी का तेल लेने पीपियां ले लाइन में खड़े हों।

‘कब तक पोस्टमार्टम हो जाएगा?’ मैंने शव का पसीना पोंछते हुए एक अस्पताली बंदे से सविनय पूछा।

‘क्यों? जल्दी है?’

‘हां, मित्र सड़ जाएगा!’ कुछ और कहने के बदले वह मुझे किनारे ले गया। फिर हंसते हुए बोला,’ ये लंबी लाइन देख रहे हो?’

‘हां।’

‘वोट डालने वालों की तो है नहीं?’

‘नहीं, शवों की है।’

‘अब हमारे हैं तो दो ही हाथ न?’

‘हां, तो?’

‘इस व्यवस्था में हाथ अतिरिक्त उगते आए हैं, उग सकते हैं।’

‘मतलब?’

‘मंदिर जाते हो?’ मैं नास्तिक होने के बाद भी सब समझ गया।

‘कितने लगेंगे?’

‘तत्काल के दो हजार।’

‘इतने तो बचे नहीं हैं।’ हाथ जुड़ने से मुकर गए।

‘तो हजार!’ उसने मेरी जेब में झांका।

‘ठीक है।’ और सौदा पट गया। मित्र का पोस्टमार्टम आउट ऑफ वे हो गया।

तीसरा द्वार:
अब मित्र को घर लाना था। सरकारी एंबुलेंस नहीं मिली। पता चला, साहब के बच्चों को घुमाने गई है, राम जाने ,कब जैसे आए। वैसे भी,सरकारी गाड़ियां लाशों के लिए नहीं होतीं।

चौथा द्वार:
मैंने फिर दूसरे अस्पताल फोन किया। लाश मुझे देख हंसती रही, मैं लाश को देख रोता रहा। दूसरी सरकारी एंबुलेंस दूसरे अस्पताल से चली। धन्यवाद! एक, दो, तीन, चार, पांच घंटे बीते। एंबुलेंस नहीं पहुंची। अचानक एंबुलेंस चालक का फोन आया,’ मैं अस्पताल के बाहर दो घंटे से खड़ा हूं। शव नहीं मिल रहा। पत्नी घर में अकेली है, डर रहा हूं, सो वापिस जा रहा हूं। माफ कीजिएगा।’ शायद……….. उसे………..

—— हरा समंदर, गोपी चंदर, बोल मरी मछली कितना पानी!

-अशोक गौतम
गौतम निवास, अपर सेरी रोड
नजदीक वाटर टैंक,सोलन
173212 हि.प्र.

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