व्यंग्य/ अपनी राय दीजिए!!

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वे हाथ में कुछ लहराते हुए पटरी से उतरी रेल के डिब्बे की तरह मेरी ओर आ रहे थे। डर भी लगा, हैं तो मेरे ताऊ! पर इन दिनों ताऊ ही दुश्मनों से अधिक पगला रहे हैं। वैसे भी आज के दौर में दुश्मन कौन से माथे पर दुश्मन का लेबल लगाए आते हैं? सावधानी में ही सुरक्षा है सो मैं सावधान हो गया। असल में क्या है कि न पिछले दिनों मुझे मेरे उस पालतू कुत्ते ने काट दिया जिसे मैं अपने मुंह का भी कौर देता रहा था। अब अपनों से सपने में भी भर डर लगने लगा है।

वे नजदीक आए तो मेरी सांसें सांसों से बाहर। पर शुक्र है उनके हाथ में जूता न था, अखबार था। उखड़ी सांसें थम गईं। उन्होंने आते ही अखबार मेरे मुंह पर मारते गुस्साए कहा,’ ये देख तेरी पत्रकारिता! जो भी देखो तथ्यों से परे छाप देते हो।”क्या छप गया ताऊ तथ्यों से परे?’ मैंने भीतर से पानी की बाल्टी ला उन पर डाली तो वे तनिक ठंडे हुए।

‘जो मन में आया छाप दिया।’

‘क्या छाप दिया इन्होंने ऐसा?’

‘खुद पढ़ ले, तबसे तुझे ढूंढता फिर रहा था।’ आखिर उन्होंने अखबार मेरे मुंह पर मार ही दिया और शांत भी हो गए। वैसे पाठक को यह करने का पूरा अधिकार भी है। मैंने अखबार की मार से पिचका मुंह ठीक करते कहा, ‘देख ताऊ! मैं ठहरा लिखने वाला बंदा! और लिखने वालों के पास पढ़ने का वक्त नहीं होता। सीधा-सीधा कहो कि बात क्या है। ज्यादा गंभीर बात होगी तो भूल सुधार छाप देंगे बस! इससे अधिक और कुछ नहीं हो सकता।’

‘देख पुत्र! ये भी कोई बात होती है कि जबसे पैदा हुआ हूं तबसे आज तक लगातार जूते खाता खाता मर गया मैं, और जब हीरो बनाने की बारी आई तो छाप दिया इनका फोटो।’

‘मैं समझा नहीं ताऊ। साफ-साफ कहो। आपको पता है न कि पहेलियां बूझने में मैं बचपन से ही नालायक रहा हूं।’

‘ये देख! जहां मेरा फोटो होना चाहिए था वहां किसी और का छाप दिया। पुत्र मैं पहले भी चुप रहा सी जब खबर छपी थी कि फलॉ जूते खाने वाला पहला भारतीय है। क्योंकि तब मेरे को पता नहीं सी कि जूते खाना भी शान दा काम होता है। इसलिए तब ढकेया रहा था। सोचा, तू ही छपाले दोस्ता जूते खाके अखबार में फोटों। हालांकि उस वक्त तेरी अनपढ़ ताई ने सीना चौड़ा करके कहा भी था, ‘ये क्या छप रहा है अखबार में? मैं तो समझी थी कि तुस्सी ही सबते अधिक जूते खानेवाले हो। पर तुस्सी इत्थे भी पीछे रह गए। और फील्डा बीच तो सबते पीछे हो ही। लानत है तुम्हारे पैदा होने पर ।’

‘माना पुत्र! अस्सी गरीब बंदे हां। अखबारों को हम बड़े बड़े विज्ञापन तो छड्ड, अखबार भी रोज नहीं खरीद सकदे। पर इधर उधर से ही सही, अखबार मार कर पढ़ जरूर लेते हैं। तुस्सी अखबार वाले वकालत तो करदे हो कि देश में कोई टाटा, बिरला बाद में है पहले वह इस देश का नागरिक है। देश दा प्रधानमंत्री ते कबाड़ी दोनों पत्रकारिता की नजरों में समान हैं तो सबको अखबार में बराबर जगह क्यों नहीं? आज मेरा दिल इतना टूटा है कि सात जन्मों तक भी न जुड़ सकेगा। और इसका सारा इल्जाम जाता है अखबार पर। मेरे फोटों की जगह ये फोटों छापने वालों पर। मैंनू इस गल्ल का जवाब चाहिए और वह भी अभी। नहीं तो कल से अखबार पढ़ना बंद।’ कह ताऊ मुंह दूसरी ओर कर बैठ गए। मैं डर गया। अगर सच्ची को ताऊ जैसे बंदों ने अखबार पढ़ना बंद कर दिया तो अखबार का क्या होगा? अखबार फिर छपेगा किसके लिए? सो मैंने तय किया कि जैसे भी होगा ताऊ को मना कर ही दम लूंगा। …..बड़ा सोच रहा हूं। पर कुछ समझ नहीं आ रहा! क्या अखबार में भूल सुधार छाप दिया जाए? लिख दिया जाए कि गलती से ताऊ की जगह किसी और की फोटो लग गई है, इसका हमें खेद है ताकि कल ताऊ भी शान से सिर ऊंचा किए चल सके और पाठक भी बचा रहे।

-डॉ. अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड,गलानग
सोलन-173212 हि.प्र.

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