व्यंग्य/ जाओ! जमकर हुड़दंग पाओ!!

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अशोक गौतम

ज्यों ही दूरदर्शन ने मौसम विभाग की ओर से जानकारी दी कि अबके वसंत सही समय पर आ रहा है जिससे जनता में निरंतर गिर रहे प्रेम की रेपोदर में धुआंधार वृद्धि होने की पूरी आशंका है तो सरकार की बांछें खिल गईं। वह खुश थी कि चलो उसके राज में कुछ तो सही समय पर आया । सरकार ने आव देखा न ताव महंगाई, बेरोजगारी से लकवा हुई जनता का मन रखने के लिए,आनन फानन में देश को मच्छरों से मुक्त करवाने की सहर्श घोषणा कर दी ताकि देश की जनता गई ऋतु के तमाम हादसों को भूल वसंत का भरपूर आनंद ले सके।

मच्छरों ने अगली सुबह चारपाई पर पड़े पड़े अखबार में सरकार की घोषणा पढ़ी तो उनके नीचे से चारपाई सरक गई। दिल्ली के सारे मच्छरों ने जंतर मंत्र पर इकट्ठे हो एक आम सभा कर तय किया कि अविलंब मच्छरों का एक प्रतिनिधिमंडल सरकार से जाकर मिले और सरकार पर दबाव बनाए कि इस घोषणा का तत्काल वापस लिया जाए वरना इसके दूरगामी परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहे। इसके साथ ही साथ यह भी तय हुआ कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए मच्छर देष के कोने कोने में तब तक प्रदर्शन करते रहेंगे जब तक सरकार मच्छर विरोधी इस घोषणा को वापस नहीं ले लेती।

और साहब! वसंत के सरकार के दरबार में सलाम ठोंकने से पहले मच्छरों के प्रतिनिधियों का मंडल सरकार के दरबार में जा पहुंचा। आंखों में पालिका बाजार से खरीदे नकली आंसू लगा, होंठों पर टीवी सीरियलों की नायिकाओं की प्रायोजित सिसकियां सजा सरकार को अपनी व्यथा सुनाते हुए उसने कहा,’ हे सरकार! आपने वसंत के आने की खुशी में जनता के लिए क्या घोषणा कर दी? आपने तो ये भी नहीं देखा कि वसंत के आने पर तो मरे हुए भी जिंदा हो उठते हैं । हमें भी बसंत के आने पर कोई तोहफा देने के बदले उल्टे हमें ही सृष्टि से खत्म करने की घोषणा कर दी! यानि चौरासी लाख योनियों में से एक योनि कम करने का दुस्साहस! वह भी चौबीसों घंटे रोती जनता के लिए? यह घोषणा करने से पहले आपने यह भी नहीं सोचा कि यह कर आप भगवान के विधान में हस्तक्षेप कर रहे हैं। जिस दिन से आपने यह घोषणा की है भगवान के हाथ पांव फूले हों या न पर अपने तो फूल गए हैं। दिन का चैन रातों की नींद गायब हो गई है। न किसीको काटने को मन कर रहा है न चाटने को। हम तो हस्तिनापुर के जन्म से वफादार रहे हैं। यकीन न हो तो इतिहास उठा कर देख लीजिए। अपने वफादारों पर ऐसा सितम ठीक नहीं।’

‘सरकार के वफादार! कैसे?’ सरकार असमंजस में। तो मच्छरों का नेता बड़बड़ाता बोला,’ सरकार! हम न होते तो आज को मुर्दा भी आपके खिलाफ लामबंद हो चुका होता। हम ही तो हैं कि जनता में माशा भर खून हुआ नहीं कि उसे पी लिया। जनता को उठने ही नहीं देते। आपको तो हमारा ऋणी होना चाहिए। आपके कर्मचारियों में भी जनता का खून चूसने का वह कौशल नहीं जो हमारे पास है। आपको तो चाहिए कि आप अपने कर्मचारियों से अधिक हमें अपना वफादार मानें। वे भी जनता का खून चूसने में कभी कभी कोताही बरत जाते हैं। पर हम आपके हित के लिए अपना यश अपयश भुला निष्‍काम कर्मयोगी हो जनता का खून चूसते रहते हैं। वह भी बिना किसी पगार के। न कभी डीए की मांग करते हैं न कभी सीए की। हड़ताल पर जाने की धमकी देना तो अपने खून में ही नहीं सरकार! हमारे कारण जो जनता उठने में भी असमर्थ हो वह आपके खिलाफ क्या खाक खड़ी होगी? हद है सरकार!आपके इतने शुभचिंतक होने के बाद भी आप हमारी ही जड़ें काटने की घोषणा कर बैठे।’

यह सुन सरकार ने तब उनके नेता को एक कोने में ले जाकर बड़े प्यार से समझाया,’ अरे यार! समझा करो न! सरकार भी अपनी कुछ मुश्किलें होती हैं। तुम तो खामखाह ही हम पर लाल पीले हो रहे हो। देखो! सरकार होने के नाते जनता के प्रति अपने कुछ दायित्व तो होते ही हैं। और उन दायित्वों को घोषणाओं के माध्यम से ही पूरा किया जा सकता है। ऐसा करने से सांप भी नहीं मरता और लाठी भी नहीं टूटती। सांप के इधर उधर संभलकर लाठी मारने में सबका कार्यकाल मजे से कटता रहता है। सरकार किसी न किसी अवसर पर कोई न कोई घोषणा कर अपने दायित्वों से मुक्त होती रहती है। तुम ही कहो? घोषणाओं के सिवाय सरकार और कर भी क्या सकती है? देखो, हमने भय खत्म करने की घोषणा कि तो क्या उसे समाज से खत्म होने दिया? हम हर बार देश से गरीबी को खत्म करने की घोषणा करते हैं। पर क्या हमने उसे घोषणा के बावजूद मस्ती में जीने का लाइसेंस नहीं दिया है? क्या है न कि कोई न कोई घोषणा करते रहने से जनता को भी लगता है कि सरकार उसके बारे में सोच रही है और हमें भी लगता है कि हम भी जनता का ख्याल रखे हुए हैं। इसलिए जाओ! इस घोषणा को भी रूटीन की घोषणा समझो, परेशान होने की कोई जरूरत नहीं। सरकार के प्रति ऐसे ही वफादार बने रहो और निर्भय हो वसंतोत्सव में जमकर हुड़दंग मचाओ! और हां ! मुख्यातिथि मुझे ही बनाना, कामदेव को नहीं।’

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