व्यंग्य/ प्रॉडक्‍शन ऑन प्रोग्रेस!

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 अशोक गौतम

ब्रह्मलोक में सदियों से मानव बनाने का काम लार्ज स्केल पर चला हुआ था, चौबीसों घंटे, शिफ्टों पर शिफ्टों में! पर फिर भी ब्रह्मा अपने इकलौते मांगी को मानवों की डिमांड को पूरी नहीं कर पा रहे थे। देश में मानवों की मांग आपूर्ति से अधिक देखते हुए बीच बीच में ब्रह्मा चोरी छिपे दूसरे देशों के मानव अंग निर्माता कंपनियों से भी मानवों के कुछ पार्ट्स मंगवा अपनी फैक्टरी में उन्हें असेंबल कर भेज देते, अपनी कंपनी की मुहर लगा, आज की बड़ी बड़ी कंपनियों की तरह। आज की डेट में हर जगह साहब माल नहीं मार्का जो बिकता है। इस तरह ब्रह्मलोक में मानव अंगों के निर्माण का काम ब्रह्मा के प्राइवेट लिमिटेडों में ही नहीं, कुटीर उद्योग के रूप में घर घर में चल रहा था। वहां पर कोई बेरोजगारी न थी। बच्चा पैदा बाद में होता, उसके हाथों को काम का इंतजाम पहले हुआ होता। बल्कि वहां के अखबार कामगारों की आवश्‍यकताओं के विज्ञापनों से अधिक, खबरों से कम भरे होते। घरों में जहां देखो, कहीं टांगें बन रही हैं तो कहीं खोपड़ियां, कहीं आंखें बनाई जा रही हैं तो कहीं कान! कहीं तरह तरह के रासायनों को मिलाकर रेट के हिसाब से दिमाग तैयार किया जा रहा है तो कहीं पर पीट पीट कर फौलाद के तो कहीं फूलों से भी नाजुक दिल तैयार किए जा रहे होते, भले ही दिल बनाने वालों के अपने दिल हों या ना हों।

उस दिन ब्रह्मा ने लक्ष्मी के साथ रेस्तरा में कैंडल लाइट डिनर लेते अपने लोक के सबसे तेज चैनल पर यह खबर देखी कि उनके द्वारा निर्मित सबसे बड़े मानव खपती देश की सरकार ने पापुलेशन एजुकेशन सभी सरकारी स्कूलों में अनिवार्य विशय के रूप में घोशित कर दी है और अनपढ़ों के लिए जनसंख्या जागरूकता अभियान पूरे जोर शोर से चला दिया है ताकि ब्रह्मलोक से मानवों का आयात कम कर मानवों को पालने वाले खर्च में कटौती कर देश की मुद्रा को बाहर जाने से रोका जा सके । यह देख,सुन ब्रह्मा के हाथ पांव फूल गए। कांवेंट स्कूलों में तो आते ही उनके बच्चे हैं जिनके मुश्किल से भी एक ही हो। उनकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। उन्हें लगा कि अब उनका लोक भी गया बेरोजगारी के आगोश में। उन्हें दिखने लगा कि ब्रह्मलोक में भी भारत के बेरोजगारों की तरह न खत्म होने वाली पक्तियां लगनी शुरू हो गईं हैं। उन्हें लगा कि अब लग गया ताला उनके मानव निर्माण के उद्योग पर। परेषान हो उठे कि अब सरप्लस कर्मियों को प्रतिनियुक्ति पर कहां भेजा जाए? पूरा विश्‍व तो पहले ही बेरोजगारी के दबाव से दबा जा रहा है।

इस खबर के बाद कई दिनों तक ब्रह्मलोक में सन्नाटा छाया रहा। लोग घरों टीवी लगाने तक से डरने लगे। वहां के विकास को एकाएक ग्रहण सा लग गया। लोग जहां पर पहले चौबीसों घंटे काम में व्यस्त रहते, मानव अंगों को घड़ने के लिए ठक ठक की आवाजें हरदम होती रहती वहां अब कामगार उदास हो ताश खेल रहे होते, बीड़ियां फूक रहे होते। देखते ही देखते औजारों को जंग लगने लगी। जिस लोक में पहले मानव अंग ब्लैक में भी नहीं मिलते थे, मानव अंगों के निमार्ण के आर्डर से पहले पूरी पेमेंट हो जाती थी, अब वहां आधे अधूरे मानव अंगों के ढेर देख कामगारों का कलेजा मुंह को आने लगा। चूल्हे जलने बंद हो गए। किसी के घर के चूल्हे से अगर कभी धुआं उठता दिखता तो मीडिया वाले वहां पहुंच लाइव प्रसारण शुरू कर देते।

अचानक उस सुबह ब्रह्मा के सचिव मुस्कुराते हुए उनके कार्यालय में आए तो ब्रह्मा के आष्चर्य की सीमा न रही। ब्रह्मा से न रहा गया तो उन्होंने विस्मित हो अपने सचिव की खुशी का कारण पूछा तो वे बोले,‘ देखा सर! मैं कहता था ना कि अपने माल का उपभोकता ज्यादा दिनों तक अपनी मांग को रोक नहीं पाएगा,‘ यह सुन ब्रह्मा अपनी कुर्सी से उठ उछलते बोले,‘ क्या मतलब तुम्हारा?? ज्यादा पहेलियां न बुझाओ! षीघ्र सब साफ साफ कहो।’

‘ प्रभु! वहां से दो करोड़ की डिमांड आई है! कहा है जितनी जल्दी हो सके सप्लाई भेज दो। बाकि के आर्डर भी आते रहेंगे, पहले की तरह ,’ सचिव के मुखारविंद से ये सुन ब्रह्मा लगे झूमने पर एकाएक रूक गए, फिर अपने सचिव से पूछे,‘ पर यार! एक बात है?’

‘क्या बॉस!’ तो ब्रह्मा बोले, ‘उन्होंने तो पापुलेशन एजुकेशन अनिवार्य कर दी थी, पापुलेशन अवेयरनेस के लिए अरबों का बजट भी रख दिया था, तो भी …’ तो उनका सचिव उन्हें समझाते बोला,‘ अरे साहब! आप भी हद करते हैं। वहां पर बजट लक्ष्य प्राप्त करने लिए नहीं, फूंकने के लिए होता है। अब देखो न, वहां नैतिक शिक्षा भी तो अनिवार्य है। पर किसी एक का नाम बता दो जो उसे पढ़ नैतिक हुआ हो। वहां पर शिक्षाओं की तो कमी नहीं, पर शिक्षाओं का अनुसरण करने वालों की बड़ी कमी है। वहां पर शिक्षा देने वाले तो बहुत हैं पर पालन करने वाले वे खुद भी नहीं। वनों के लिए वहां क्या क्या नहीं हुआ? पर सब कागजों में। कागजों से पूछें तो वहां इतने पौधे लग चुके हैं कि चलने को भी जगह नहीं बची है। पर अब एक दुविधा है बॉस!’

‘ क्या??? सप्लाई अविलंब भेज दो।’

‘वही तो गड़बड़ हो रही है प्रभु!‘

‘मतलब???’

‘ अंग तो जैसे कैसे हैं, चला लेंगे। जनता के ही हैं। पर दिमाग का घोल बिलकुल खराब हो चुका है। और नया इतनी जल्दी बन नहीं पाएगा। ये घोल तो गधों के लायक भी नहीं। फिर हम तो जनता सप्लाई कर रहे हैं। कुछ न कुछ दिमाग तो उसमें भी होना है चाहिए ना सर!’

‘ ये तो और भी अच्छा है। खोपड़े में वही डाल दो! उनको वोट ही तो देना है। कौन सा सरकार का हिस्सा होना है? वोट देने के लिए दिमाग की नहीं, नोट की जरूरत होती है।’

‘पर अगर गलती से…..’ सचिव ने शंका जताई तो ब्रह्मा निसंकोच बोले,‘ हद करते हो यार! वहां अब नेता की संतान ही नेता बन देश का नेतृत्व करेगी। किसान की संतान किसान होगी तो मजूदर की संतान मजदूर!’ तो सचिव ने शंका जताते कह ही दिया ,‘ पर सर! वहां धरती का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।

‘तो मैंने कोई इनकार किया क्या! जितने को वहां से किसी नेता को बनाने की डिमांड आएगी तबको दिमाग का पलटिया घोल बन जाएगा ना?’

‘पर वहां की जनता गलती से जाग गई तो??’

‘ अरे ,तो उसकी चिंता अभी से क्यों करते हो? तबकी तब देखेंगे! अभी तो अभी की सोचो! पुराना माल निकालो। वरना पर्यावरण को संकट खड़ा कर देगा।’

सचिव बिना कुछ कहे फैक्टरी के कामगारों को जनता के पार्ट्स असेंबल करने का आदेश देने हेतु फैक्टरी की ओर हो लिए।

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अशोक गौतम
जाने-माने साहित्‍यकार व व्‍यंगकार। 24 जून 1961 को हिमाचल प्रदेश के सोलन जिला की तहसील कसौली के गाँव गाड में जन्म। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला से भाषा संकाय में पीएच.डी की उपाधि। देश के सुप्रतिष्ठित दैनिक समाचर-पत्रों,पत्रिकाओं और वेब-पत्रिकाओं निरंतर लेखन। सम्‍पर्क: गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड,नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन, 173212, हिमाचल प्रदेश

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