व्यंग्य-जनता बदलाव चाहती है

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पंडित सुरेश नीरव

अब अपने भारत के दिन फिर बहुरेंगे। पहले सुनहरे कल में बेचारा

घुसते-घुसते रह गया था। फिर शाइनिंग इंडिया होते-होते भी बाल-बाल बच गया।

मगर अबकी बार कोई चूक नहीं हो सकती है। क्योंकि मंहगाई और घोटालों के

साथ-साथ मतदान का ग्राफ भी लप-लपाता हुआ आगे बढ़ा है। मतदाताओं के सर

मुंडाते ही घोषणापत्रों के ओले पड़े। मतदाताओं का सर मूंडने और वादों के

ओले गिराने-जैसे दोनों ही जन-कल्याणकारी काम जनसेवकों ने अपनी खानदानी

विनम्रता के साथ खुद-ब-खुद ही कर डाले हैं। कर तो जाने क्या-क्या सकते

हैं इस जनता के लिए हमारे माननीय। मगर बुरा हो इस निर्वाचन आयोग का जो हर बात में ही टांग अड़ा देता है। चलिए कैसे भी सही अब हमारे देश की राजनीति

झकाझक सफेद हो जाएगी क्योंकि जनता बदलाव चाहती है। इससे कोई फर्क नहीं

पड़ता कि चेहरे वही पुराने हैं। मगर मतदान का प्रतिशत बता रहा है कि जनता

बदलाव चाहती है। दागियों को लेकर राजनैतिक दलों ने दोस्ताना अदल-बदल कर

अपना होमवर्क पूरा कर लिया है। इधर एक दल ने निकाला वहीं दूसरे दल ने उसे

लपक लिया। दिया जहां भी रहेगा रोशनी लुटाएगा। चराग का कोई अपना घर नहीं

होता। बड़ी मार्केट वेल्यू है इन दागियों की। सचमुच ये दाग अच्छे हैं।

ईमानदारों से तो अपना घर नहीं चलता। सरकार क्या खाक चलाएंगे। कोई क्या

करेगा इनकी ईमानदारी को चाट के। ये न घर के हैं ना घाट के। न थ्री-जी का

हुनर,न राष्ट्रमंडल की काबिलियत न एसोचेम की तहजीब। राजनीति में इन गोबर

गणेशों का क्या काम। जनता भी इन से ऊब चुकी है। इसलिए बदलाव चाहती है।

झूम-झूम के वोट डाल रही है। आंधी-बरसात से भी नहीं डर रहा मतदाता। दलों

ने भी जनता के बदलाव के मूड को सीरियसली लिया है। श्रद्धेय बाबूलालजी

कुशवाह जन कल्याण की भावना से ओतप्रोत होकर बसपा से भाजपा में आ गए।

अनुराधाजी रालोद से सपा में आ गईं। शेष नेता भी जन हित में पाला बदल के

खेल में दिन-रात जुटे हैं। अपनी प्रतिभा एक ही दल में क्यों नष्ट की

जाए.। दूसरे दलों को भी क्यों न ऑब्लाइज किया जाए। करेप्शन की कुशाग्र

प्रतिभा के धनी माननीय अब दूसरे दल को भी घोटाले का तकनीकि सहयोग देने

चले गये हैं। निष्काशन से पूर्व वो जिस दल में थे वहां भी सम्माननीय थे

और अब जिस दल की नागरिकता ली है वहां भी सम्माननीय हैं। विद्वान सर्वत्र

पूज्यते। सोना कीचड़ में गिरे तो भी सोना ही होता है। जनसेवक भी कुर्सी

पर हो या जेल में हमेशा सम्माननीय ही रहता है। वह अकेला ही नहीं उसके

बेटे-बेटियां,पुत्रवधु-दामाद,भाई-भतीजे,बीवी-बीवियां और अविवाहित हो तो

भूमिगत प्रेमिकाएं सभी सम्मानित नस्ल के जीव होते हैं। और इन्हें कभी

भी,कहीं भी और किसी भी स्थान से चुनाव लड़ने का नेशनल परमिट जन्म के साथ ही मिल जाता है। कुछ अति भाग्यशाली तो उस परमिट में लिपटकर ही संसार में अवतरित होते हैं। कुर्सी हथियाना इनका फेमली ड्रामा होता है। परिवार का हर सदस्य इस लड़ाई में एक जुट हो जाता है। भले ही राजनीति में न हों

मुसीबत में रोड शो करने वे भी निकल आते हैं। और अब की तो मतदान ज्यादा

हुआ है। वोटर बदलाव की बयार लाने को कसमसा रहा है। नेता भी लालीपॉप की

जगह अब लैपटॉप बांटने की बातें कर रहे हैं। हर दल प्रदेश की तस्वीर बदलने

पर अपने-अपने ढंग से आमादा हैं। रात-दिन इस सामूहिक सत्कर्म की शिकार हुई

मूल तस्वीर भंवरी देवी की तरह फ्रेम छोड़कर न जाने कहां बिला गई है।

दीवार पर बस निर्वाचन आयोग की कील ठुकी रह गई है। जिसे बदलाव के कुछ

उत्साही जांबाज पहरुए आरक्षण की हथौड़ी से ठोंकने में लगे हैं। बदलाव तो

लाना ही है। क्योंकि बदलाव जनता चाहती है। हर दल के दागी माननीय पाला

बदल-बदलकर बदलाव की नई इबारत लिख रहे हैं। लोकतंत्र को आनेवाले इस सुखद बदलाव की अभी से मुबारकबाद।

 

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