व्यंग्य/ क्या बोलूं क्या बकवास करूं

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जबसे दुनियादारी को समझने लायक हुआ था थोड़ा-थोड़ा करके मरता तो रोज ही था पर माघ शुक्ल द्वितीय को, चार सवा चार के आसपास सरकारी अस्पताल की चारपाई पर पड़े-पड़े पता नहीं किस गोली का असर हुआ कि मैं रोज-रोज के मरने से छूट गया और सच्ची को मर गया। हा! हा! हा!! अब बंदा मर गया तो मर गया! पर सच मानिए, लाखों की तरह मैं भी रोज-रोज मरने के बाद भी मरना नहीं चाहता था। साली ये जिंदगी है ही ऐसी कमीनी चीज कि लाख अभाव हों, पर असल में मरने को मन करता ही नहीं। पहले तो मुझे विश्‍वास ही नहीं हो रहा था कि मैं मर गया हूं। आनन-फानन में बुलाए कॉफी पीने से डिस्टर्ब हुए मन ही मन गालियां देते डॉक्टर ने आकर मेरी नब्ज टटोली तो मुझे गुदगुदी हुई। मन किया जिंदगी में एक बार तो खुलकर हंस लूं। पर अपने आस पास तो आसपास, पूरे वार्ड में सभी को गंभीर देख मरते-मरते उल्लू बनना नहीं चाहता था। भगवान को हाजिर नाजिर मानकर कहता हूं कि भगवान ने मुझे जिंदा जी तो किसी को उल्लू बनाने का मौका कभी दिया ही नहीं, इस बात की शिकायत भगवान से मरने से पहले भी थी और मरने के बाद भी रहेगी, वह गुस्सा होता हो तो होता रहे। बस, उम्रभर उल्लू बनता रहा। सो अबके भी उल्लू बन दुबका रहा। काफी देर तक मेरे दिल को बेदर्दी से दबाते रहने के बाद डॉक्टर ने घोषणा कर दी, ‘सॉरी! ये अब नहीं रहे।’ और मेरा मुंह ढक कर आगे हो लिया। हालांकि उस वक्त मैंने ही डॉक्टर को खींचने के लिए सांस बंद कर रखी थी। पर अब जो किसीकी मौत की घोशणा सरकार द्वारा अधिकृत बंदे ने ही कर दी तो मैंने भी मन बना लिया कि सरकार के बंदे को तोहमद नहीं लगने दूंगा, भले ही मरना क्यों न पड़े।

मैंने कुछ देर तक पास बैठी पत्नी के साथ रोने के बाद अपने को हिम्मत बंधाते कहा, ‘यार! छोड़ परे! तेरे मरने की अधिकृत घोषणा हो ही गई तो चल आगे चलते हैं। अब तो तेरी पत्नी भी परंपरा को बचाए रखने के लिए चारपाई के पाये से बजा अपनी दोनों कलाइयों की चूड़ियां तोड़ चुकी है। माथे की बिंदी निकाल चुकी है। ऐसे में तू अगर लौट आया तो गजब हो जाएगा।

वैसे यहां रहने के लिए अब बचा भी क्या है? रिश्‍तेदार, दोस्त तो बहुत हैं पर खाने वाले ही हैं। जब तक उनका करता रहा, वे मेरे बने रहे। जिस दिन से उनका नहीं कर पाया उस दिन के बाद से वे कौन, तो मैं कौन! अस्पताल हाल पूछने भी नहीं आए। वैसे वे मेरा हाल चाल पूछने आ भी जाते तो मैं कौन सा ठीक हो जाता? इंफेक्शन ही होता। वे आते तो उनके नखरे बेचारी को अलग से उठाने पड़ते। बिन चाय पानी भेजो तो दूसरी बार मरने पर भी न आएं। आजकल रिश्‍तेदार बीमार के ठीक होने की कामना करने नहीं आते, देखने आते हैं कि कितने दिन लगेंगे साले को जाने में।

पत्नी को परेशान देख अपने अजीज को फोन कर डाला,’ हैलो! हैलो!! ‘उसने मेरा नंबर देख कर चार पांच बार काट डाला। पर मैं भी डटा रहा। कारण, इतने बड़े अस्पताल में मुर्दे के पास मेरे हिसाब से जवान पत्नी अकेली थी। अभी भी वह सुंदर है। ढलती उम्र में जवान औरत से विवाह करने का कोई दु:ख हो या न पर एक दु:ख बराबर बना रहता है कि जाना तो पहले ढले, गले मर्द को ही होता है, बेचारी अकेली कैसे जिएगी। जमाना हद से ज्यादा खराब हो गया है। विधवा तो वैधव्य काटे जो लफंगे काटने दें। देखो न, मेरे जाते ही तभी तो आसपास के मरीजों के साथ आए अटेंडेंटों की नजरें उसे घुरने लग गई थीं। आखिर उसने फोन उठा ही लिया, ‘ कौन?’

‘मैं अमरदेव यार! और क्या हाल हैं? फोन क्यों नहीं उठा रहा था। व्यस्त था क्या रिष्वत लेने में?’

‘मैं कौन??’ साला दोस्त होकर भी मरने के दूसरे पल ही ऐसा हो जाएगा सपने में भी नहीं सोचा था।

‘वही तेरा लंगोटिया यार अमरदेव! बाण मुहल्ले वाला। रिटायर्ड सीएचटी। वही यार जिसने तुझे रिष्वत लेते हुए पकड़े जाने पर तेरी चार बार जमानत दी थी। पहचाना नहीं क्या!’

‘तो सीधे- सीधे बोल। अहसान गिना रहा है या अपना नाम बता रहा है।’ चलो वह कुछ नरम हुआ,’ बोल, अस्पताल से आ गया? यार, वक्त नहीं निकाल पाया तुझे अस्पताल देखने आने के लिए। साली सीट ही ऐसी डील कर रहा हूं आजकल कि सिर खुरकने को भी वक्त नहीं मिलता। माफ करना। और भाभी कैसी है?’

‘परेशान है!’ कहते मेरी आंखों से आंसू बह निकले। पहली बार पत्नी के आगे रोया। पर षुक्र ,मेरे चेहरे को डॉक्टर चादर से ढक गया था। मरने के बाद फजीहत होने से बच गई।

‘वह परेशान क्यों है? परेशान हो उसके दुश्‍मन। मैं अभी आता हूं। तू तब तक भाभी का खयाल रखना। देख, अगर उसको कुछ हो गया तो मुझसे बुरा और कोई नहीं होगा। मैं तुझे छोड़ूगा नहीं।’

‘मुझे क्या छोड़ना यार! मैं तो सबको छोड़ चुका हूं। घरवाली अकेली है इसलिए तुझे फोन कर रहा हूं।’

क्या तू मर गया!!’ उसने बड़े अपनेपन से कहा। लगा, उसे चैन मिल गया हो जैसे।

‘हां!’ मैंने मुसकराते हुए कहा।

‘मैं भी कई दिनों से यही सोच रहा था कि अब तुझे मर जाना चाहिए क्योंकि अब तेरे पास किसीको खिलाने के लिए बचा ही क्या है? वैसे भी अब लोग खिलाने वालों की दीर्घायु की ही कामना करते हैं? ईमानदारों के लिए जीने की दुआएं कर कौन अपना कीमती वक्त बरबाद करे? कितना टाइम हुआ तुझे मरे हुए?’

‘यही कोई पंद्रह बीस मिनट।’

‘कर दी न यार तूने फिर वही बात! ये भी मरने का कोई टाइम हुआ भला। दिन कितने छोटे हैं। ऊपर से चार चार कोट तक फाड़ने वाली ठंड! यार! मरने से पहले मौसम तो देख लेता। बाहर देख, कभी भी बर्फ पड़ सकती है। तुझे औरों का क्या! तू तो मरना था सो मर गया। मरने से पहले कम से कम एक बार तो खिड़की से बाहर झांक कर देख लेता। यार मरना ही था तो सुबह जैसे मरता। देख, सारी रात तेरे लिए भूखा रहने वालों में से कम से कम मैं तो नहीं। मैं तो खाना खा लूंगा। दफ्तर में सालों ने दिमाग खाली करके रख दिया है। तू मरता है तो मरता रहे। ये बेकार के गले सड़े रीति रिवाजों को मैं नहीं मानता, तो नहीं मानता। अब मरने वाला मर गया तो मर गया। उसको फूकने ले जाने तक भला मैं क्यों भूखा मरूं? बोल?’

‘चल, वह तो सब ठीक है पर अपनी भाभी, और हो सके तो मुझे यहां से ले जा वरना ये मुझे मुर्दाघर में मुर्दों के साथ रख देंगे। तू तो अच्छी तरह जानता है कि जिंदगी भर मुर्दों से मुझे सख्त नफरत रही है।’ मैंने पहली बार किसीसे अपनी व्यथा कही।

‘देख यार! अब उस घर में रहने का सपना भी मत लेना। ये तो दुनिया का नियम है। कोई कितना ही प्यारा क्यों न हो। मरने के बाद उसे कोई अपने साथ एकपल भी रखना नहीं चाहता।’

‘क्यों??’ मेरा रोना निकल आया।

और साहब! पचासियों फोन करने के बाद चार लोग आ ही गए। तय हुआ कि अब घर क्या ले जाना। मिट्टी ही तो है। घर ले जाएंगे तो श्‍मशान ले जाने में देर हो जाएगी। बर्फ किसी वक्त भी गिर सकती है। सारी रात मुर्दा कौन जुगाले? सारा दिन दफ्तर में सिर उठाने को नहीं मिला है। आंखें वैसे ही भारी हो रही हैं। सूर्यास्त से पहले दाह संस्कार जरूरी है। पत्नी ने भी दबे स्वर में हां कह दी तो मैं क्या कहता!

आनन-फानन में चार बांस के डंडे लाए गए और मैं माडर्न पंडित के मुंह से मंत्रों के नाम पर गालियां सुनता गालियां देते दोस्तों के कधों पर आगे हो लिया, ‘यार इतने दिन बीमार रहा, पर भार देखो तो पहलवान सा। श्‍मशान तक पहुंचते पहुंचते तो कंधे छील कर रख देगा साला।’ मेरे से किसी बहाने पिछले चार मास पहले दस हजार लिए ने मन ही मन मुसकराते कहा।

‘चलो यार! अब ठिकाने तो लगाना ही पडेग़ा। सुबह भी तो हमें ही ये सब करना था। अब चलो शाम को चैन से तो सोएंगे।’

‘सोएंगे क्या ख़ाक! सोने लायक रखेगा तब न! अगर मुझे पता होता कि इतनी लंबी बीमारी के बाद भी इतना मोटा बचा है तो कभी भी आने की भूल न करता।’ मेरे दाएं ओर लगे मेरे खास दोस्त ने मुझ पर फिकरा कस कहा। उस खास दोस्त ने जो मेरे साथ मरने की बात करता था। और गलती से मैं अकेला मर गया तो देखा न!

‘कुछ भी बोलो यार! बंदा था ठीक। कम से कम किसीका मार कर नहीं मरा। सभी को मरवा कर ही मरा।’

‘पर यार! इसका तो कोई भी साथ नहीं। रात भर श्‍मशान में कौन जुगालता रहेगा?’

‘सौ पचास वहीं पर किसीको दे देंगे। वह देख लेगा।’ चौथे ने कहा तो सभी नार्मल हुए। मुझे उठाए हुए उन्होंने राम नाम सत एकबार भी नहीं कहा, पर मुझे उनसे इसकी उम्मीद थी भी नहीं। दिन रात चोरी- चकोरी में निमग्न रहने वाले राम का नाम लें तो जिंदे ही नरक में न जा पडें!

मेरे परमादरणीय बड़े भाई धर्म से सदा ही कोसों दूर रहे। उनके लिए कर्म पूजा न होकर लूट मार रहा। उन्होंने खून के रिष्तों को पूजने से अधिक अपनी घरवालियों को पूजा। यहां एक घरवाली से पार पाना ही भवसागर पार जाने के बराबर होता है और वे ठहरे दो दो घरवालियों के सत्यवान। भवसागर पार हुए लोग कम ही लौटे हैं और वे तो ठहरे दो दो सागर पार करने वाले। अत: उनके आने की उम्मीद तो मैंने कभी रखी ही नहीं। जब वे मेरे मरने से पहले ही अपनी पत्नियों को क्षण भर के लिए अकेला नहीं छोड़ पाए, उनके कपड़े धो पति धर्म का निर्वाह करते रहे, उनके लिए रोटियां बना प्रिय पतिदेव की उपाधि से मंडित होते रहे तो मेरे मरने पर वे बेचारे कैसे समय निकाल पाते? दूसरे दिन को घरवालियों के कपड़ों का ढेर न लग जाता धोने को। मैंने इसीलिए उन्हें सूचित भी नहीं किया। एक कॉल खराब ही होती। वे अपना रोना रोते। अपनी महामजबूरी दर्शाते। और मरने के बाद थोड़ा बहुत बचा मजा किरकिरा हो जाता।

मेरा साला अगले दिन मेरी सास के साथ मेरे मरने की खबर सुनकर तालियां बजाता हुआ दौड़ा- दौड़ा आया। कारण, आप जान ही गए होंगे। नहीं जाने तो आपका समय बचाने के लिए चलो आपको बताए देता हूं। यमराज के पास जाने के लिए अभी कौन सी देर हो रही है? देर सबेर तो जाना वहीं है। कौन सी वहां जाकर मुझे आग बुझानी है? इसके लिए अपने शहर के फायर ब्रिगेड वाले जो हैं। वे सर्दियों में भी आग बुझाने का खेल खेला करते हैं। पर जब शहर में कहीं आग लगी तो जले मकान वाले गवाह हैं कि उनकी लारियां खराब पाई गर्इं। वैसे भी मैं देश का स्थाई बाशिंदा हूं जहां पीएम से लेकर पीऊन तक समय की सीमाओं से बहुत ऊपर उठ चुके हैं।

मेरे साले को पूरी उम्मीद थी कि वह मुझे तो उम्र भर खा नहीं पाया, अब मेरे मरने के बाद अपनी बहन को तो पटा ही लेगा।

कमरे को करीने से सजा मेरी जवानी के दिनों की तस्वीर के आगे अगर बत्ती जला उसपर बड़े करीने से नकली फूलों की माला डाल दी गई। मैंने पत्नी से कहा भी, ‘जवानी के दिनों की तस्वीर को माला पहना मेरी जवानी का अपमान तो न करो, ‘तो उसने अनसुना करते कहा, ‘आपका बुलावा करने आने वालों को मैं उदास नहीं करना चाहती। उन्हें लगना चाहिए कि आप मेरे साथ बड़े खुश थे। शादी के बाद वाले किसी एक फोटो में भी आप हंसते हुए हैं?’

‘तीनों लोकों में किसी ऐसे जीव का नाम बता दो जो शादी के बाद हंसा हो?’

‘यही बात तो मुझे तुम्हारी सबसे बुरी लगती है।’ पत्नी ने यों कहा तो लगा कि जैसे वह सुहागन ही हो।

‘कौन सी?’

‘कि तुमने मरने के बाद भी सच बोलना नहीं छोड़ा। पर अगले जन्म में मुझे ऐसा पति कतई नहीं चाहिए।’

‘क्यों?? तुम तो कहती थी कि तुम मेरे साथ हर जन्म में रहोगी।’

‘वह तो तुम्हारा मन रखने के लिए कहती थी कि तुम पेरशान होकर कुछ ऐसा वैसा न कर लो और आफत मुझे पड़ जाए। यह मेरा तुम्हारे साथ आखिरी जन्म समझो।’

‘क्यों?? जब तुम्हें कोई ब्याह नहीं रहा था तो क्या मैंने तुम्हारा उद्धार नहीं किया?’ मुझे भी गुस्सा आ गया। वह बिदकती बोली, ‘जाओ अब! अपना आगा सुधारो। अब मैं विधवा ही भली। गले मर्द से छुटकारा तो मिला। अबके जो विवाह करने में भूल हुई अगले जनम में नहीं होने दूंगी।’ मन किया अपनी सारी जमा पूंजी किसी और को दे दूं। पर किसको देता? जवानी में आदर्शवादी होकर जीने की गलती का अहसास बाद में होता है।

‘सुन री कांता!’ सास ने कांता की बगल में सोए करवट बदली।

‘बोल मां! वह सारा दिन मेरी मौत का जाली बुलावा करने वालों को अटेंड करके थक चुकी थी बेचारी। सब को बार बार एक ही बात बताते रहो कि ऐसे मरे, मरने के वक्त ये कह गए, काश वे मरने की जरा भी बू दे जाते तो मैं कुछ भी कर अपने सुहाग की रक्षा कर लेती, आादि आदि। इन बुलावा देने वालों से मेरा वास्ता पड़ता तो उनके पांच-सात होते ही मरने की सारी बातों की एक आडियो कैसेट पहले ही बनवा देता और उन्हें चाय बिस्कुट परोस उसे ऑन कर दिया करता। इधर चाय बिस्कुट खत्म उधर बुलावा खत्म। कम से कम मेरा दिमाग तो खाली न होता, ‘बुरा मत मानना बेटी! अच्छा ही हुआ जो हुआ। कितना की जोड़ कर रख गया है?’ पर पत्नी कुछ कहने के बदले चुप रही। ठीक ही तो है। सास कौन होती है मेरी जमा पूंजी का हिसाब पूछने वाली?

क्रिया कर्म के दिन खत्म! धर्म शांति हो गई। साले ने मेरे प्रति अपनी हमदर्दी के बदले तेरह दिनों में माला से लेकर मेरी फोटो के आगे जलने वाली अगरबत्ती तक में मजे से चुराए। बीड़ी पीने वाला चौबीसों घंटे चांसलर ही पीता रहा। सोच रहा था, एक ही दीदी क्यों है? उसके भी तेरह दिन चैन से कटे। उम्मीद तो लगाए बैठा है कि अब कड़की वाले दिन ये गए, कि वो गए।

तेरहवीं तक आते-आते वह फिर चौहदवीं का चांद सी दिखी तो मन गद्गद् हो गया। दोनों कलाइयों में चार चार तोले हालमार्क सोने के कंगन जो खनके, बीते दिनों की चूड़ियों की खनक कम्बख्त पुरानी खराब कपड़े धोने की मशीन की आवाज हो गई। मन किया यमराज से कहूं कि हे यमराज द ग्रेट! तुस्सी महाग्रेट हो! मुझे एकबार, बस एकबार, मेरी पत्नी के पास भेज दो। मुझसे उसका वैधव्य के बाद निखरा सौंदर्य अब और नहीं देखा जा रहा। मुझे उसके सौंदर्य की रक्षा के लिए एकबार धरती पर जाने दो। किस पति- पत्नी में लड़ाई नहीं होती? दो बरतन आपस में टकराएं या नहीं पर पति- पत्नी आपस में टकराते जरूर हैं। इस रिश्‍ते की सार्थकता है भी इसी में। पर इसका मतलब ये तो नहीं कि… कि तभी पड़ोस की शांता आ गई, उसकी कलाइयों को चूमती बोली,’ हाय री! नजर न लगे तेरी कलाइयों को। काश… ये बहुत पहले हो जाता… कित्ते के पड़े?’

‘एक लाख के।’ चलो, उसे अपनी घरवाली कह देता हूं, ने कौवी नैन मटकाते कहा।

‘अब तो मेरा मन भी कर रहा है कि… मैं तो थक गई ये पंद्रह रूपये दर्जन वाली चूड़ियां पहन पहन कर।’ कह वह उदास हो गई,’ अबके तो पेंशन लेने तू ही जाएगी न?’

‘हां तो! ‘वह हंसी तो हंसती ही रही। अब मरने वाले के लिए बचे लोग हंसना भी छोड़ दें, ये किस धर्म में लिखा है साहब? हंसना तो अब मरने वाले को ही बंद करना चाहिए, सो मैं गंभीर हो गया।

‘तू बहुत किस्मत वाली है री कांता। इस बहाने अब हर पहली को सज धज कर घर से तो निकला करेगी। बाजार में बेरोक टोक घूमा करेगी। करारे करारे नोट जब पहली बार तेरी नरम नरम हथेली पर जब आएंगे न तो … तो कैसा लगेगा??’

‘चल, जब आएंगे न, तब बताऊंगी। और तू बता तेरा……………

-अशोक गौतम

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